Pages

Thursday 15 November 2018

अदृश्य नदी बह रही थी

एक
अदृश्य नदी बह रही थी
हमारे - तुम्हारे दरम्यान

इस तरफ मै था
उस तरफ तुम थी
और तुम्हारा गाँव

एक दिन मैंने इस नदी को पार कर
तुम तक
और तुम्हारे गाँव आने के लिए नदी में उतरा

मेरे उतरते ही
नदी अदृश्य हो गयी
साथ ही अदृश्य हो गईं तुम और तुम्हरा गाँव भी

नदी की जगह उग आया एक अंतहीन रेगिस्तान
जिसपे मै बहुत देर तक औंचक खड़ा रहा
सोचता रहा तुम्हारे और तुम्हारे गाँव के बारे में

फिर मै - दौड़ने लगा
यह सोच कर
शायद वह अदृश्य नदी राह बदलते - बदलते
इस रेगिस्तान के पार चली गयी हो
साथ ही तुम व तुम्हारा गाँव भी रेगिस्तान के पार चला गया हो

तब से दौड़ रहा हूँ मै बेतहासा
लगातार
बिना कुछ सोचे - बिना कुछ समझे
यहाँ तक कि अब तो मै थकने भी लगा हूँ
हांफने भी लगा हूँ बुरी तरह
मेरे कदम लड़खड़ा रहे हैं - बुरी तरह
मै गिरने - गिरने को हूँ
फिर भी - दौड़ रहा हूँ - इस उम्मीद में

शायद किसी दिन इस रेगिस्तान के पार
पहुँच ही जाऊँ - मै तुम तक - और - तुम्हारे गाँव तक

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

No comments:

Post a Comment