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Tuesday 31 January 2012

एक बोर आदमी के कुछ पुराने दिन
30.12.05
साक्षी भाव ।
बुड्ढे के सिर में सुबह से र्दद था । हरारत भी महसूस हो रही थी । देह, पोर-पोर दुख रही थी । सिर भारी-भारी था । आंखो में जलन थी । सारा शरीर  जकडा-जकडा सा था । बी.पी. नापा वह भी बढा था । रजाई से उठा न जाता था । बुढिया बहुत याद आयी । खैर ... ।
परदा हटा के देखा सूरज भगवान कोहरे की चदरिया ओढे पहाड की ओट में थे । कालोनी का कोई भी आदमी बाहर नही दिख रहा था । नाक सुडकते हुए मुंह लिहाफ के अंदर दोबारा कर लिया । बुड्ढा सोचने लगा । षायद बुढापा ओैर बीमारी पर्यायवाची है ।
दूसरे रुप में कहा जाय तो बुढापा ही अपने आप में बीमारी है । उसके बाद सठियाना दूसरी बीमारी, षरीर में झुर्री पड जाना, दांत गिर जाना, बाल पक जाना, बाल गिर जाना, कमजोर हो जाना, आंखो से कम दिखना, याददाष्त का कम होना आदि आदि भी अपने आप में बीमारियां ही तो हैं जिनका श्रीगणेषाय नमः हो चुका है । उसके बाद उपरोक्त बीमारियां । खुदा कसम ऐसे में जिंदगी एक लाइलाज आजार बन जाती है जिसका इलाज मौत ही है ।
कुछ साक्षी भाव के बारे में ।
अरुण कुमार षर्मा मारण पात्र के अनुसार
मनोनाष होने पर हमें जिस अपरिवर्तनीय षाष्वत तत्व का साक्षात्कार होता है जिसे आत्मा की संज्ञा दी गयी है । योग उसे साक्षी कहता है । हमारे देष का सारा चितंन सारी मनीशा सारी प्रतिभा इसी छोटे से षब्द में निहित है । इससे महत्वपूर्ण षब्द हमारे देष ने संसार को दूसरा नही दिया ।
साक्षी का मतलब है देखनेवाला । गवाह द्रश्टा । मैं षरीर नही हूं । मैं मन नही हूं । मैं यह नही हूं । मैं वह नही हूं । इस प्रकार ऐसा कौन है जो इन्कार करता जाता है और वह वही तत्व है जिसे हमने द्रश्टा, साक्षी और अपरिवर्तनीय षाष्वत तत्व कहा है ।
31.12.05
साल का आखरी दिन ।
पिछले साल क्या खोया क्या पाया ।
न कुछ खोया न कुछ पाया ।
जहां था, जैसा था ।
वहीं हूं, वैसा ही हूं ।
अभिषप्त हो गया हूं ।
जड हो जाने को ।
बिना किसी श्राप के ।
या अजाने किसी श्राप से ।
विषेश बात । इस साल पत्नी व बच्चो से अलग व अकेले रहने को परिस्थितियों ने मजबूर किया और उसी अकेलपन की ऊब ने इस रोजनामचे को लिखने के लिये मजबूर किया ।
01.01.06
लो हो गयी एक और  नये साल की शुरुआत  । इस बार कुछ नये लोगों के बीच नये साल की आगवानी का जष्न मना रात काफी देर तक खाना, पीना, नाचना, गाना, हंसना हंसाना । सबकुछ था वहां गुडी गुडी । कमी थी तो बुढिया और बच्चे की । खैर ...
अंधेरा, अकेलापन, उदासी, बीमारी, ऊब, सठियाना, पुरानी यादें, बिखरे सपने, जलन कुढन, लडाई झगडा बस यही सब तो बच रहा है मेरे पास जायजाद के नाम पर जिन्हे गठरी बना सिरहाने रखे रात सेाया आज भी वैसे ही सो रहूंगा । आगे भी सोता रहूंगा कब तक ? न जाने कब तक ? खैर ...
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि क्या वाकई सठिया गया हूं ? क्या वाकई मैं बुड्ढा हो गया हूं ? क्या वाकई मैं बीमार हूं ? क्या वाकई मैं सठिया गया हूं ? अगर ये सब कारण मेरे अंदर मैाजूद हैं तोे सबूत क्या ? सबूत है भी तो फायदा क्या ? फायदा हो भी गया तो उसका फायदा क्या ? मान लिया फायदा मिला भी तो क्या फायदा हमेषा के लिये होगा कि कुछ काल के लिये फायदा होगा ? फायदा हमेशा  के लिये हो तो ठीक । कुछ काल के लिये ही फायदा हो तो क्या फायदा ?
कहने का मतलब हर चीज मुजबजब में ! चाहे जिंदगी हो ! चाहे विचार हों ! चाहे परिवार हो ! चाहे नोैकरी हो ! चाहे दोस्ती हो ! चाहे मुहब्बत ही क्यों न हो ! खैर ...
छोडो इन बातों को । कहां तक सोंचू कहां तक लिखूं कहां तक कहूं ।
बहुत सोचा ! बहुत बिचारा ! बहुत रोया ! बहुत गिडगिडाया ! बहुत फडफडाया ! बहुत मन्नते मानी ! बहुत मजारों में माथा रगडा ! बहुत मंदिरों में घंटा बजाया ! बहुत ज्योतिशियों को हाथ दिखाया ! बहुत कुण्डलियां बनवायी ! बहुत झाडफूक किया ! बहुत गण्डा ताबीज किया ! कहीं कुछ भी नही । कोई फायदा नही । खैर ...
आपको क्या ? जो आप हमारी परेशानी  को इतने ध्यान से पढ रहे हैं । कही आप भी परपीडक तो नही ? मेरा दावा है, आप मेरे इस रोजनामचे को ध्यान से पढे तो ज्यादातर संभावना आपके परपीडक होने की है । ऐसा है तो आप को षरम आनी चाहिये । अगर आप परपीडक हैं तो आप को बताने का क्या फायदा । लिहाजा आप भी जायें मूत के सो जाये और हमें भी सोने दें ।
नया साल आपको भी मुबारक हो । जै राम जी की ।
02.01.06
आप भी सोचते होंगे अजब रंडी रोना है रोज-रोज का । वही बुढापा, ऊब, सठियाना, अजीब-अजीब बातें, हरकतें । अब तो चिडचिडाहट होने लगी है । क्या करुं जनाब मैं खुद भी आजिज आ गया हूं । वही-वही बाते ! वही-वही दिनचर्या ! वही-वही लोग ! वही-वही सूरज ! वही-वही चांद ! वही-वही बीबी ! वही-वही पडोसी और पडोसन ! पर क्या करुं ? ऊब, बीमारी और बुढापे ने दिमाग को गंदा कर दिया है । अब तो बदबू भी आने लगी है - सडी और बासी । हर वक्त फिजूल बातें ! फिजूल विचार ! गंदे विचार ! मसलन न जाने क्यों सुबह से ही बचपन याद आया । बचपना याद आया तो याद आयी पडोसन । गोरी मोटी गदबदी सुंदर सी । हंसती तो फूल झरते । बोलती तो चांदनी बरसती । सोचते-सोचते मन बहकने लगा, सोचने लगा, ख्याल आने लगा आज की तारीख में कहां होगी ? कैसी होगी ? क्या कर रही होगी ? क्या उसके भी बाल मेरी तरह पक गये होंगे ? क्या वह भी मेरी तरह सठिया गयी होगी ? क्या वह भी मेरी तरह जिंदगी से ऊब गयी होगी ? क्या वह भी मेरी तरह बीमार रहती होगी और खांसती खखारती होगी ? क्या वह भी मेरी तरह अकेले घर में नंगे रहने और मटकने का सुख लेती होगी ? क्या वह भी कभी-कभी बोरडम से घबराकर अष्लील साहित्य पढती होगी या ब्लू फिन्म देखती होगी ? फिर उत्तेजित हो कर मस्टरबेषन करती होंगी ? फैंटेसी करती होगी अपने किसी चाहने वाले को याद करके, तो लगती कैसी होगी ? क्या उसका भी जंगल हरापन छोड सफेदी लेने लगा होगा ? ऐसा है तो वह जगंल कैसा लगता होगा या वह उसे काट छांट के समतल कर रखा होगा ? ऐसा है तो वह बिना पेटीकोट के कैसी लगती होगी ? क्या उसके नितंब अभी भी भारी होंगे ? क्या उसके वक्ष अभी भी उसी तरह मांसल और भरे-भरे हांेगे या लटक गये हांेगे । ऐसा हो गया है तो वह कैसी लगती होगी ? अभी भी गरम होती होगी या नही ? कहीं मुलाकात हो जाय तो क्या पहचानेगी ? पहचान भी लेगी तो गले लगगी की नही ? और ...
उसके आगे की बातें आप न पूछे, आप कहेंगे कि मैं रोजनामचा लिख रहा हूं या अष्लील साहित्य । वैसे लिख भी दूं तो कोई हर्ज नही । आजकल तो वैसे भी साहित्य या आत्मकथा के नाम पर यही सब परोसा जा रहा है और चटखारे ले-ले कर पढा व सराहा भी जा रहा है । मजा ये है कि विरोध करने वाले भी लिखे को मजा ले-ले कर ढूंढ-ढूंढ कर पढते हैं ।
चलिये छोडिये यह तो जमाना है । सभी तरह के लोग होते हेैं कुछ हमारी तरह कुछ आपकी तरह ।
अभी तो समय है रजाई ओढ सोने का । शुभ  रात्रि ।
03.01.06
मंगलवार । साप्ताहिक छुट्टी । करने को कुछ नही । फिर भी बहुत कुछ । वैसे भी फालतू आदमी के पास करने को बहुत कुछ होता है । मसलन... कुछ नही तो कोने अतरे की साफ सफाई । कुछ नही तो ढूंढ-ढूंढ के रद्दी व कबाड बेचना । कुछ नही तो नल, पंखा, पुराने ताले, छाता, दरवाजा, खिडकी आदि की मरम्मत ही बहुत बडे काम हैं । फिर कभी बिजली का बिल जमा कराना है तो कभी फोन का, तो कभी हाउस टैक्स आदि आदि ।
पर कल इनमें से कोई भी काम न करके सुबह से ही मंगनी का अखबार चाटता रहा । एक-एक खबर । एक-एक विज्ञापन । एक-एक लेख । एक-एक लाइन । कहीं कुछ भी नही बचा । तत्पष्चात अखबार से मुंह ढक वही गुनगुनी धूप में दरी पर सो गया ।
आधा दिन ऐसे ही बीता । बाकी आधा गुनगुनी धूप में झपकी लेकर । शाम  जब सूरज अपनी मांद में जाने लगा हवा भी कुछ ठंडक लेने लगी तकिया बगल में दबा कमरे में आ धमका गरम चाय सुडकने की इच्छा से ।

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