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Tuesday 31 January 2012

धुंआ बनाम गुलाब




10.12.2009
‘एक बेहद अच्छे इंसान व दोस्त, सुदेंद्र पवार जी को नज़र जिनकी ज़िंदगी से यह कहानी चुरायी है’


       मै समझता था मुहब्बत की ज़बां  खुशबू है
       फूल  से  लोग  इसे  खूब  समझते होंगे


बाल्कनी से ताजा खिलें फूलों की भीनी भीनी खुशबू  उसे पूरा का पूरा कब भिगो गयी  राजा को पता ही न लगा। राजा को यह भी पता न लगा कब सुबह की नर्म मुलायम गुलाबी किरणों ने चुपके से आ के  रात के अंधेरे को, व ओस की बूंदों को सोखना शुरू कर दिया था। पंक्षियो की चहचह और फूलों  की खुशबू से चारों तरफ एक उत्सव सा लगने लगा था। यही सुबह तो रोज होती थी। सूरज तो रोज खिलता था। हवा रोज ही तो चलती थी। फूल तो रोज ही खिलते थे। पर राजा क्यों नही देख पाता था। क्यों नही इन खुशबुओं को अपने नथूनों में भर पाता था। क्यों नही इन किरणों को आखों से पीने की ख्वाहिश  होती थी। सना का जादू भी तो न जाने कब धीरे धीरे चुपके - चुपके उसके वजूद को घेरने लगा था। सना का जादू ही तो है जो हर चीज को हर बात को हर एहसास को यहां तक की राजा को पूरा का पूरा बदल दे रहा है। अगर नही तो फिर यह सुबह पहले की तरह उदास क्यों नही लगती। उसे क्यों नही लगता कि यह वही तो सूरज है जो रोज रोज उगा करता है। यह वही तो गुलाब व गेंदा हैं जो उसी तरह गुलाबी व पीले रंग में उगते हैं। पर अब क्यों गुलाब और ज्यादा गुलाबी, गेंदा और  ज्यादा पीला दिखायी पड़ता है। पर अब क्यों उसे हर चीज नयी नयी लगती है। आफिस जाना क्यों बोझ नही लगता। एक उत्सव मे शामिल होना लगता है। राजा यह सब जितना सोंचता उतना ही अपने आप में मुस्कुराता। पर यह भी जानता कि इस मुस्कुराहट के पीछें एक ऐसा फैसला है जिसे वह अभी तक मुल्तवी किये है। एक ऐसा फैसला जिसमे उसका पूरा का पूरा वजूद सना है। जिसमे एक सना है जो उसकी सारी तपस्या को भंग कर सकती है।
राजा के मन मे उस फैसलें का ख्याल आते ही अजीब सी उदासी तारी हो गयी। हाथों ने  खुद ब खुद न जाने कब पैकेट से सिगरेट निकाल के होंठो पे लगा दिया।
राजा जब कभी भी अपने आपको अर्निणय की स्थिति मे पाता तो वह अपने आपको कमरे मे अकेले बंद कर लेता फिर एक दो तीन चार दिनों तक न कहीं आना न कहीं जाना न कोई फोन न किसी से बात चीत बस। राजा रहता और रहता एक निपट निचाट अकेला पन। जिसमे वह सिर्फ सोचता सोचता और सोचता। उस समस्या के हर  पहलू पे सुबह से शाम तक शाम से सुबह तक जब तक कि कोई निर्णय नही आ जाता। और अक्सर ऐसा होता कि अचानक या किसी मंथन से उस समस्या का हल निकल ही आता।
आज भी उसने अचानक दो दिन की छुटटी और रविवार को ले कर तीन दिन तक कमरे में ही बंद रहने का फैसला कर लिया था।
इस दौरान उसे महज सोचना था और सोचना था। सना के बारे मे अपने बारे में सना के भविष्य के बारे मे अपने भविष्य के बारे में। अपने उन सिद्धांतो के बारे मे जो उसके सीने से कवच कुण्ड़ल से चिपके पडे थे। जिन्हे वह निकाल फेंकना चाह के भी नही निकाल पा रहा था। वे तो उसके साथ ही जुडें हैं, और षायद मरने के बाद तक जुडें रहेंगे।
यही सिद्धांत ही तो रहे हैं जिनको ढोते ढोते वह आज टूट जाने की स्थिति मे आ चुका है। न जाने कितनी बार टूटा भी है पर हर बार पता नही किस अंदरुनी ताकन ने उसे उबारा है वह खुद भी नही जानता। भले ही उपर से लगे कि इमारत कितनी बुलंद व अच्छी है। पर नीव की कमजोरी तो उसे ही पता है।
कई बार तो भावनाओं के तूफान आये पर हर बार वह अपने आप को बचा लेता। हालाकि एक तूफान के अलावा तो बाकी छुट पुट बारिस की ही जद मे आते है। पर इस बार तो वह लगता है कि टूट ही जायेगा।
पर टूटना फिदरत मे नही।
आदाबे मुहब्बत  से  संवर  क्यों नही जाते
खुशबू सी फ़जाओं में बिखर क्यों नही जाते
सना। सलोनी नायक। जिसे वह स.ना लिखती है। सना कहाना पसंद करती है। सना। सना खुशबू ही तो है जो चुपके चुपके से चंदन की भीनी भीनी महक के साथ। उसके मन मे फैल चुकी है। पर यह खुशबू  उसके वजूद में विखर के उसे ही पूरा का पूरा बिखेर देना चाहती है।
राजा ने जोर से सांस ली। वह सना को सूंघ लेना चाहता था। यादों मे ही पूरा का पूरा। पर सना तो खुशबू की तरह उड़ रही थी। अब महक दरवाजों और खिडकियों से बह बह के दूर और दूर जा रही थी। राजा खुशबू  के लिये खिडकी तक आया तब तक खुशबू उड के दूर कहीं आसमान मे ढेर सारी खुशबुओं मे घुल मिल गयी थी जिसमे यह पहचानना मुस्किल था, इसमे कौन सी खुशबू सना की है कि कौन सी फिजां की है या कि दूसरी चंपा या चमेली की। पर अब इस वक्त तो वह फिजां की खुशबू ही ढूंढ रहा था।
जो फिजां के गुलाब से गालों से महमह कर के महकती थी। जो इस बुझते हुए अलाव की राख मे न जाने कितनी दूर दबे अंगारों को कुरेद रहे थे। जिन्हे वह पता नही कब दफन कर आया है। ,
षायद उसी दिन जिस दिन फ़िजा से दूर हुआ था। तब जब उसने अपने व फ़िजा के घर के रास्ते मे पडने वाले कब्रिस्तान मे ही उन यादों को दबा आया था। और उस दिन के बाद आज तक उसने कभी भी मुहब्बत की घाटी मे दूबारा न झांका था। उसे विश्वास  था कि दुनिया मे सिर्फ एक फ़िजा थी जो उसके लिये थी और अब कोई दूसरी फ़िजा नही हो सकती । हुआ भी यही । इतने सालों तक वह अपने आप मे मगन रहता सुबह से षाम तक कभी पल दो पल की फुरसत भी मिली तो ‘दुनिया मे और भी ग़म हैं ज़माने मे मुहब्बत के सिवाय’ यह सोच किन्ही और कामो मे अपने आप को उलझाता रहा।
पर वह तो हर वक्त फ़िजा के आबनूसी गेसुओं में ही उलझा रहता था। जब भी रात होती तो लगता यह चांद फिजां के काली घनी अलकावलियों में ही तो खिला है। जो रात भर यादों की भीनी सी चांदनी बरसाता रहता और राजा उसी मे धीरे धीरे भीगता रहता। मन से दिल मे दिल से और भीतर और भीतर तक । फिर न जाने कब यह रात चुपके चुपके कहीं हवाओं मे और फ़िजाओं मे खो जाती और फिर चांद सूरज बन हल्की हल्की सी तपन के साथ उसके तन व मन से यादों के मोती चुन के फिर दूसरी यादों के झोंको से सेंकती रहती। राजा घर मे हो या आफिस मे राजा बस मे हो या पैदल। राजा यहां हो कि वहां। जहां जहां भी जाता फिजां संग संग ड़ोलती हंसती मुस्कुराती। वह राजा के साथ एक साये सी लगी रहती। कभी कभी तो राजा अपने आप से भी झुंझला जाता। फिर इन यादों को मय मे ड़ुबो देना चाहा पर यह भी न हो पाया।
सिगरेट का एक लम्बा कष खींच के ढेर सा धुआं उगल दिया राजा ने। कमरे में अब गुलाब गेंदा की महक मे धुएं की तीखी महक भर गयी।
फिजां गुलाब सी गुलाबी व शोख तो सना गेंदा सी खिली खिली सरसों सी पीली। और राजा धुआं।
चाहता तो वह गुलाब की महक से अपने को भर सकता था। पर उसी ने तो नही चाहा। और -------- आज जब एक बार फिर किसी फूल ने उसके जीवन को महकाने की हौले से कोषिष की तो वह क्यों उदासीन सा है। यह उसे समझ मे ही नही आ रहा।
अब वह उस अजीब सी महक में से सिर्फ गुलाब को अपने नथूनों मे भर रहा था।
और फ़िजां ग़जल बन गयी।
हां फ़िजां गुलाब ही तो थी। जिसका एक एक अंग गुलाबी। एक एक अदा शराबी। वह जब हंसती तो मूंगे से होंठ खिल जाते। जिसे देख के ही तो उसने जिंदगी का पहला षेर कहा था।
सर्द मौसम मे सुलगते से होंठ
कुदरत का करिस्मा ही हैं ये होंठ
तब ज्यादा से ज्यादा चुप रहने व कम से कम बोलने वाले राजा को यह नही पता था कि शेर के काफिये कहां और कैसे तंग होते हैं या झोल खा जाते हैं। पर अनायास ही उसके होंठों से निकली ये चार लाइने ही तो थी जिसने उसे गजल व शेरोन व शायरी की दुनिया का रास्ता दिखा दिया था। फिर तब का दिन है और आज का कि राजा सिर्फ शब्दों  मे जीने लगा था।
शब्द - शब्द - शब्द  और शब्द द ही तो बच रहे हैं । उसके पास खैर ...
हंसती खिलखिलाती गुनगुनाती फ़िजां जब भी घर आती। घर भर की फ़िजा बदल जाती।  मॉ पिताजी व बहन सभी के साथं हंसती ठिठोली करती। सभी को किसी न किसी बात से किसी न किसी चुटकुले से या चुटकुले सी बात से हंसाती रहती गुदगुदाती रहती। बस सबसे कम बोलती तो वह राजा ही था। एक तो राजा के कम बोलने की आदत दूसरे फ़िजां के घर का माहौल भी जो मदों से कम से कम बोलने व मतलब रखने की हिदायत देता रहता था। पर इसके बावजूद वह अक्सर राजा को छेडती और कहती। राजा तो बाजा है। जिसके सारे बैंड व स्विच खराब हैं जो कभी कभी बजता है। और जब बजता है तो बस घर्र घर्र करता है। यह कह के वह खिल्ल से हंस देती। राजा भी बुरा न मानके बस मुस्कुरा के रह जाता।
फ़िजां आयी हो और राजा घर मे है तो वह किसी न किसी बहाने उसे देखने की कोशिश मे रहता। यह बात धीरे धीरे पता नही कैसे फ़िजां को महसूस होने लगी थी।
एक दिन जब उसने उसे चोरी से देखते देख लिया था तो मुह चिढ़ा चली गयी थी। तब राजा शर्मा  के रह गया था।
लेकिन उस दिन के बाद से यह लुका छिपी का खेल अक्सर होने लगा था।
एक दिन राजा ने कागज की पुरजी मे दो लाइने लिख के उसकी तरफ सरका दिया जिसे फ़िजां ने चुपके से उठा लिया।
मूंगा कहें गुलाब कहें जाम से ये होंठ
मासूक की पलकों पे सजते हैं ये होंठ
दूसरे दिन फिंजा ने भी एक पुरजी उसकी मेज पे उछाली।
होंठो को  अपने न सिल के रखिये
राज अपने दिल का खुल के कहियें।
उस दिन के बाद न जाने कितनी पुरजियां ली और दी जाने लगी। फ़िजां अब उसके लिये गजल बन गयी थी। जिसे वह हर वक्त गुनगुनाता रहना चाहता था।
अब दिन खूबसूरत नदी सा बह रहे थे। जिसमे राजा और फ़िजा छपक छइयां करते।
कभी फिजां फूल बन जाती जिसकी खुशबू को राजा रेशा रेशा  पी लेना चाहता कभी। फिजां खूबसूरत झरने सा बहने लगती जिसकी धवल धार मे राजा अठखेलियां करता। तो कभी राजा बादल बन जाता फ़िजां के लिये और फ़िजा बादलों में उडती रहती।
बया सी। बया जो एक सुंदर सा घोंसला बनाने का सपना देखा करती जिसमे बस वह रहती और रहता राजा। राजा भी ऐसा ही कुछ सोंचता और खुश रहता।
मग़र बया का घोसला बना कब ?
राजा और फिजा। फिजां और राजा। बस दो ही थे एक दूसरे की दुनिया मे । बाकी तो दुनिया एक सपना थी। 
फ़िजां खुशबू थी रुहानी खुषबू जिसमे राजा ड़ूबता उतराता तो कभी उड़ता दूर दूर आसमान के भी पार। जहां सारा जहां खत्म होता है। रहता है सिर्फ एक ख्वाब महल। जिस ख़्वाब महल मे सिर्फ रहते राजा ओर फ़िजां।और रहती सिर्फ मुहब्बत मुहब्बत सिर्फ मुहब्बत।
और यह ख्वाब महल हकी़कत का जामा पहन पाता इसके पहले ही। फ़िजां ने कहा।
‘राजा, घर वाले मेरे को जल्दी ही रुखसत करना चाहते है।’
‘क्यों’
‘मम्मी ड़ैड़ी को लगता है कि वे अपनी जिम्मेदारी जल्दी से जल्दी पूरी करदें। एक रिश्ता आया भी है। लिहाजा तुम जितनी जल्दी हो सके शादी का फैसला करो’
‘पर अभी तो मैने इस बारे मे सोचा ही नही है। वैसे भी जब तक अपने पैरों पे नही खड़ा हो जाता कुछ सोच नही सकता’
‘पर मेरे घर वाले अब रुकने को तैयार नही है।’
‘तुम्हारा क्या ख्याल है। अगर तुम मेरे पैर पैर पे खड़े होने तक रुक सकती हो तो ठीक है। वर्ना तुम्हारी मर्जी।’
फ़िजां काफी देर चुप रहने के बाद बोली ‘मेरे लिये यह काफी मुस्किल है। अगर अभी कुछ फैसला करो तो घर वालों से कह सुन के कुछ किया जा सकता है।’
पर राजा इतनी जल्दी तैयार न था। शादी के लिये।
कई बार फ़िजा के जोर देने पर भी राजा अपने फैसले पर अड़िग रहा।
इसके बाद बस एक दिन फ़िजां ने ही सूचना दी कि घर वालों ने उसकी शादी की ड़ेट तय कर दी है।
और एक दिन फ़िजां किसी और के बंधन मे बंध गयी।
और राजा ने अपनी मुहब्बत को अपने सीने मे ही दफ़न कर लिया।
न तो राजा रोया न ही ग़म के पैमाने मे डूबा उतराया। बस अब राजा रहता और रहता उसका लेखन।
वह खबरों की दुनिया मे रहता। धीरे धीरे वह एक सफल और सफल पत्रकार व लेखक बनता गया। उसका नाम खबरों की दुनिया मे छपता पर वह अपने आपको गुमनामी के अंधेरे मे ही डुबाये रहता। यहां तक कि,
सावन भादों आते बरस के चले जाते
जेठ बैसाख आते तपा के चले जाते, कोई भी रुत आये या जाये,
राजा के लिये बस
तेरी सांसों की महक फूलों में
लुत्फ़ हर रुत में तेरे प्यार का है।
अब बस राजा रहता और रहती फिजां की याद। और ....
धीरे धीरे दिन बीते महीने बीते साल बीते। और बीते दो दशक ।
राजा जिंदगी की राह मे अकेला ही चलता रहा। फिजां की यादों को लिये दिये।
धीरे धीरे फ़िजां की यादों के साथ वह अपनी जिंदगी आराम से काट रहा था।
तभी। मिली सना। आफिस की एक कम उम्र अल्हड़ सी बाला। जिसे वह एक छोटी से बच्ची समझता। थी भी वह बच्ची। वही बच्ची धीरे धीरे हंसते बोलेते। न जाने कब बेतल्लुफ होने लगी।
और यही बेतकल्लुफी इस हद तक परवान चढी कि कब वह उसकी यादों में कैद हो गयी। फिर कब वह उसकी धडकनों मे कैद हुयी। फिर कब उसकी सांस सांस में समा गयी राजा को कुछ पता ही न लगा।
बस जैसे एक फूल खिला हो और उसकी भीनी भीनी खुशबू नासा पुटों मे अपने आप भर जाती है। सांसों के साथ साथ। बस उसी तरह सना भी राजा की रातों मे सपने की तरह आने लगी।
कई बार राजा ने इन खयालों से पीछा छुटाना चाहा पर बात न बनती। हर बार उसकी मासूम आखें  ऑखों के सामने आ जाती तो कभी उसका मासूम जिददीपन याद आ जाता। और वह अकेले मे ही मुसकुरा देता ------। 
राजा अक्सर उससे कह भी देता।
तेरी झील सी ऑखों मे अजब भोलापन
मेरी जान न लेले तेरा मासूम जिददीपन।
और --------- वह हंस के कहती यही तो मै चाहती हूं। तब राजा आदतन मुस्कुरा के रह जाता। जवाब कुछ न देता।
जिस दिन सना न आती लगता कुछ खो सा गया है। वह रहता तो आफिस मे पर रोज सा खिलापन न रहता।
इसे राजा अपनी कमजोरी मानता और मन ही मन इससे उबरने की कोशिश करता।
पर हर बार मन व दिल दगा दे जाते।
हार के आज राजा ने फैसला लेने की गरज से अपने आपको इस कैद मे डाल लिया।
राजा सोच रहा था कि यदि सना के प्रति ये लगाव मुहब्बत है तो फ़िजां के प्रति क्या था। और अगर फ़िजां के प्रति प्रेम था तो सना की तरफ आर्कषित होना क्या है। यदि फ़िजां के प्रति उस लडकपन का आर्कषण मानें तो इस उम्र मे कम उम्र के प्रति इतना मोह क्या है। कहीं ऐसा तो नही यह अपने एकाकी पन को भरने की कोशिश है। या रुप का आकर्षण। अगर रुप को कारण माने तो एक से एक खूबसूरत लडकियां या औरतों से मुलाकते होती रही है। बातें होती रही है वे क्यों नही अपने आर्कषण मे बांध पायी। और अगर कोई सैहिक आर्कषण भर है तो वह भी राजा को मंजूर नही। कियी को भोग लेना और फिर छोड़ देना राजा का सिद्धांत नही।
तो राजा क्या करे। फ़िजां की यादों से बेवफाई करे या सना से मुहब्बत। सना से मुहब्बत करे या फ़िजां से बेवफाई।
भले ही फ़िंजा उसकी न हो पायी पर उसे तो राजा ने अपना माना है। फिर उसकी यादों से भी वह क्यों कर बेवफाई करे। अगर बेवफाई कर भी ले तो क्या वह अपने आप को फिर मॉफ कर पायेगा। और फिर अगर यही करना था तो बहुत पहले ही क्यों नही किया। इतने सालों तक क्यों तन्हा भटकते रहे।
मान लो किसी वजह से वह सना की दास्ती को हवा दे भी देता है तो क्या समाज उसे  स्वीकार कर पायेगी। क्या वह समाज से लड़ के उसकी हो पायेगी। और अगर नही तो क्यों फिर से इस मृगत्रिश्ना में फंसना।
राजा जितना ही सोंचता उतना ही उलझता जाता। पर राजा जिद किये बैठा था कि जब तक फैसला नही कर लेता कि उसे फ़िजां की यादों के साथ जीना है या फिर सना की दोस्ती कुबूल करना है तब तक उसे कमरे से बाहर नही निकलना है।
राजा के कुछ समझ न आया तो जोर से सांस ली और सिगरेट का ढेर सा धुआं बाहर फेंका मानो वह अपने सारे अंतर्ध्वंद  को बाहर फेंक देना चाह रहा हो।
ढेर सा धुआं आस पास फैल गया। राजा ने दो तीन कश  और जोर जोर से लिये।
फिर एक ही झटके में फैसला किया।
मोबाइल से सना का नंबर डिलिट कर दिया।
कमरे मे फूल की खुशबू  तो अभी भी आ रही थी।
उस खुशबू  मे जिसमे कुछ महक फ़िजां की तो कुछ महक सना की सनी थी।
और ढेर सारा धुआं था जो राजा के सीने से निकले धुएं मे कहीं खो सी गयी थी।
इस उम्मीद मे कि शायद  ..
आग तो बुझ जायेगी बस इक धुऑं रह जायेगा।
यह धुआं भी रफ़ता रफ़ता फिर कहां रह जायेगा।

मुकेश श्रीवास्तव
12.01.10
नई दिल्ली।




7 comments:

  1. Kya baat hai bhaiya. Aap aur ye roznaamcha dono zaandaar hain.

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  2. waaaaaaaaaaaaah.............bahut hikhoob..........dil ki gehrayi ko chu gaye apke har ehsaas..............umdaa soch aur khayaal se labrez ...................awesome..............................

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  3. Very nice...sir.....Wah.....I have no words...

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  4. bahoot khooob....lajawab..har ek line dil sune wala hai...

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  5. सना की कहानी जिस प्यार के अंजाम तक नहीं पहुँच सकी ..वो नई नहीं है । लेकिन बेहद ही रूमानियत के साथ आप ने लिखा है । बीच - बीच में कविताओं की पंक्तियाँ कथन को बल तो देती ही है ,प्यार के परवान का भी उल्लेख करती है ।कितनों के दिल में वो पुरानी बातें आपने ताज़ा कर दी होगी ....जो किसी को कवि , किसी को गीतकार और किसी को कथाकार बना दिया है ।बधाइयां।

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  6. Padh kar Dil se Yahi awwaz aayi Waaaah...Bahut khoobsurat ehsaas mohobatt ka...Har Ek pankti, Kavita is ehsaas ko hawa deti huyi...Ek premi se mahaan lekhak aur suljhe huye insaan ka safar... Bahut romanchak raha Mukesh Sir...thnx for sharing..
    ~NeelPari

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