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Monday 30 January 2012

अब्बू

दोस्तों,
पिछले साल पिताजी के न रहने पर चंद लाईने लिखी थी जिसे आपसे शेयर करना चाहूंगा,
 
अब्बू
--- एक
 
अब्बू खूंटी थे
दीवाल के कोने से लगी
जिसमे  हम टांग देते
अपनी छोटी मोटी समस्याएं
इच्छाएं,
मसलन कापी, किताब, पेन, पेन्सिल
टाफी, बैट, बाल आदि आदि
और मम्मी टांग देती
छोटी बड़ी ज़रूरतें
मसलन
धनिया, मिर्ची , सब्जी आदि आदि
और अब्बू खूंटी में टंगे झोले से
निकाल लाते
एक एक चीज़े
सच्ची मुच्ची की
सब के मर्जी की
व ज़रुरियत की
 
अब्बू --- दो
 
अब्बू
एलार्म घडी थे
हर वक़्त टिक टिक करती
न चाबी देने की दिक
न बैटरी भरने की ज़रूरत
पर हर वक़्त आगाह करती
कि,
पढ़ाई का वक़्त हो गया है
पढ़ लो
सोने का वक़्त हो गया है
सोलो
या कि अमुक काम का वक़्त हो गया है
न करोगे तो पछताओगे
आदि आदि
 
अब्बू -- तीन
 
अब्बू घर की दीवार थे
बाहर सहती धुप पानी
और तूफ़ान
अन्दर साफ़ चिकनी रंगी पुती दीवार
जिसके सेहन में हम भाई बहिन
व माँ रहते
निस्फिकिर और निश्चिंत
अब्बू न जाने किस मिट्टी के बने थे
 
अब्बू --- चार
 
खूंटी, दीवार और घडी तो
अभी  भी है, पर अब
खूंटी से हमारी ज़रूरते नहीं निकलती
संता क्लाज़ कि तरह
और न ही घडी एलार्म बजाती है
ज़रूरत के वक़्त
और दीवार के बिना
हम खड़े है
रेगिस्तान में अपने तम्बू और कनात के साथ
 
अब्बू
खूंटी थे
घडी थे
दीवार थे
अब्बू पूरा घर थे
 
मुकेश इलाहाबादी

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