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Wednesday 22 February 2012

अब्बू...


अब्बू...

एक

अब्बू खूंटी थे
दीवाल के कोने से लगी
जिसमे हम टांग देते
अपनी छोटी बड़ी समसयाएं
इच्छाएं
मसलन कापी, किताब, पेन, पेंसिल
टॉफी, बैट बाल आदि आदि
और मम्मी टांग देतीं
छोटी बड़ी जरुरतें
मसलन
धनिया,मिर्ची, सब्जी
आटा, दाल आदि आदि
और अब्बू खूंटी मे
टंगे न जाने किस जादू के झोले से
निकाल लाते
एक एक चीजे
सच्ची मुच्ची की
सब के मर्जी की
व जरुरियात की

दो

अब्बू
अलार्म घड़ी थे
हर वक्त टिक टिक करती
न चाबी देने की दिक
न बैटरी भरने की जरुरत
पर हर वक्त
आगाह करती
कि
पढाई का वक्त हो गया है
पढ लो
सोने का वक्त का हो गया है
सोलो
या कि अमुक काम का वक्त हो गया है
न करोगे तो पछताओगे
आदि आदि

तीन

अब्बू घर की दीवार थे
बाहर सहती धूप पानी
और तूफान
अंदर साफ चिकनी रंगी पुती दीवार
जिसके सहन मे
हम भाई बहन व
मॉ रहते
निस्फिकर और निस्चिंत
अब्बू न जाने किस मिटटी के बने थे

चार

खूंटी, दीवार और घड़ी तो
अब भी है
पर अब
खूंटी से हमारी जरुरतें नही
निकलती, सेंटा क्लाज की तरह
और नाही
घड़ी अर्लाम बजाती है
जरुरत के वक्त
और दीवारों के बिना
हम खड़े हैं
रेगिस्तान मे अपने तम्बू
और कनात के साथ

अब्बू घर की
खुटी थे
घड़ी थे
दीवार थे
अब्बू पूरा घर थे


मुकेश  श्रीवास्तव

1 comment:

  1. Awesome... Abbu.. Bahut khoob.. Par Mukesh ji aajkal Abbu ki jagah Super Moms ne le li hai... Sundar rachna.. Badhai
    ~NeelPari

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