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Tuesday 12 June 2012

ख़त मेरे महबूब ------------------

ख़त मेरे महबूब ------------------
मेरे महबूब,
यह ख़त नही, गुफ़तगूं है।
जो की गयी है,
बोगनबेलिया, कचनार और गुलाब की कतारों से।
अषोक, देवदार और युकलिप्टस के उंचे उंचे लहराते पेडों से।
तुम्हारी यादों से
ये वो बातें हैं, जो गुपचुप गुपचुप की गयी हैं।
खामोषी की उन गहराइयों से।
जो इस पहाड़ की अतल गहराइयों से
प्रतिघ्वनित हुयी है।
वेद की ऋचाओं सी या कुरान की पाकीजां आयतों सी।
यह वह पवित्र एहसास  है।
जो  महसूस गया है।
इन पेड पहाड़ पगड़ंड़ी घास फूस
कोैवे गिलहरी सांप गोजर और ग्रामवासियों
के बीच फ़ैली रहने वाली अनवरत खामोशी के साथ।
जिसे कभी
कोई झींगूर की सूं सूं या दूर चलती पनचक्की की पुक पुक
या किसी बैलवाले की र्हड़ र्हड़ ही तोड़ पाती है।
उसी खामोषी को कैद करने की कोषिष की है।
लिहाजा .... मेरी जानू
मेरी अच्छी जानू ....
कई दिनो की जददो जहद के बाद तुम्हे खत लिखने का साहस कर पाया हूं। यह जददो जहद किसी और से नही अपने आप से थी। यह जददोजहद अपने विचारों से अपने सिद्धांतों से थी। इन दो तीन दिनो मे न जाने कितने विचारों के बवंडर आये और चले गये। कलम उठायी और फिर रख दी। दो चार लाइने लिखी और फिर काट दी। कभी कोई बात बनती कोई विचार आकार लेता पर फिर थोडी देर बाद ही रेत की लकीरों सा न जाने किस बवंडर मे मिट जाता।
पर पता नही कौन सी ऐसी कशिश थी। या कि रुहानी ताकत। या कि तुम्हारी मुहब्बत। जिसने मुझ जैसे आलसी और काहिल आदमी को भी यह खत लिखने के लिये मजबूर कर ही दिया।
हालाकि एक बात और। मै नही जानता इस वक्त तुम कहां हो। कैसी हो और क्या कर रही हो। मुझे याद करती हो भी की नही।
और याद करती भी होगी तो किस रुप मे, कह नही सकता।
पर इतना जरुर जानता हूं कि यह यह खत जो मै तुम्हे इतने प्रेम से लिख रहा हूं कभी नही भेजूंगा कभी भी नही। इसके सारे राज सीने मे दफन ही  रहेंगे। या कि जिंदगी की किताब मे किसी मुरझाये फूल सा दब के रह जायेगे।
खैर छोडो इन सब बातो को ----
हां बात शुरू हो ही गयी है तो मै भी हर लिखने वालों की तरह या नये मिलने वालों की तरह अपनी बात मौसम के तष्करे से करना चाहूंगा।
कल्पना करो।
चारों ओर पहाड़ है। जो गर्मी मे नंगे खड़े रहते है। शीशे से चमकते । और वही पहाड़ बरसात मे हरी घास और पदों से लदे फंदे मदमस्त हाथी से खडे़ हो जाते है। जैसे आज खड़े हैं।
कल्पना को आगे बढ़ाओगी तो देखोगी। 
इन्ही पहाड़ों के बीच मे बड़ी सी टेबल लैंड़ है,  इसी टेबल लैड़ मे कुछ मकान है। आस पास गांव है। थोड़े से रहवइया है। हमारी तरह।
समझ लो एैसा लगता है। मानो एक हरे भरे बड़े से  कटोरे के तली मे कुछ बौने रह रहे हों, और ये बौने उछल उछल कर अक्सर इस कटोरे की दीवार को फांदना चाहते है पर फांद नही पाते। अपनी कम उंचाई और छोटे छोटे हाथो से। उन्ही बौनों  मे से एक बौना मुझे भी समझो। जो अक्सर इन पहाड़ की दीवारों मे कैद तुम्हारी यादों के सहारे सिसकता रहता है जीता रहता है। इस उम्मीद से कि कभी तो वक्त आयेगा। जब तुम मुझे ढूंढ़ती ढूंढती यहां आ जाओगी या तो मै ही कभी इन पहाड़ों के पार आ सकूंगा और मिल सकूंगा अपनी स्नोव्हाइट से।
तो, मेरी स्नो व्हाइट।
तुम सोंच रही होगी । यह कैसा चाहने वाला है जो प्यार मुहब्बत की कसमे वादे  छोड़ न जाने किस खब्तपना की बाते करने बैठ गया।
क्या करुं। मेरी सोणी। मेरी महिवाल।
यहां रहते रहते। इन वादियों मे इन खामोशियों मे। इस जंगल मे। इन कौवे, गिलहरी सांप गोजर खरगोश  के बीच अपने आप को इन्ही की तरह ढ़ाल लिया है अब तो यही हमारे मित्र है दोस्त हैं सखा सहोदर हैं नातेदार, रिश्तेदार है।
जब कभी अपने आपको उदास पाता हूं तो किसी भी आम अमरुद चीड़ या देवदार के तने से लिपट रो लेता हूं । लड़ना झगड़ना भी रहता है तो इन अपढ़ निपट ग्रामवासियो से लड़झगड़ लेता हूं। गाली गलौज कर लेता हूं।
या कि कभी ज्यादा अकेलापन महसूसने लगता है। तो गांव की उतरी कच्ची चढ़ा लेता हूं और फिर मस्त मगन हो नाचता गाता और उछलता कूदता इन्ही वादियो मे ढे़र हो जाता हूं। सुबह होने तक के लिये।
हो सकता है तुम्हे यह बात पसंद न आये।
पर मुझे मालुम है तुम मेरी बहुत सारी गुस्ताखियों की तरह इसे भी बरदास्त कर लोगी।
मेरी अच्छी जानू।
जहां मै रहता हूं वह जगह देखने और रहने के लिये बहुत ही मुफीद है। हो सकता है दुनिया से दूर इस जगह को तुम न पसंद करो। पर एक बात जान लो आज दुनिया मे कहीं कुछ भी ऐसा नही हो रहा है जिसको न जानने से आदमी की खुशी मे कोई कमी रह जाती है।
हो सकता है तुम मेरी बात से इत्तफाक न करो पर। जब कभी उजेले पाख की गहन नीरव रातो को । इस मैदान मे। तनहाइयों के साथ इन झींगुरो का झन झन संगीत सुनता हू। या इन अनंत चमकते तारों को देखता हूं तो न जाने क्यों इस सब को बनाने वाले उस कुशल  चितेरे की सूझ बूझ और सौंदर्य परकता पे मन रीझ रीझ जाता है। शिर सजदा करने के लिये अपने आप ही झुक जाता है। सोचता हूं तो यह कहना ही पडता है जिसकी रचना इतनी सुंदर वह कितना सुंदर होगा। सच तारों से भरी रात हो या अमावस की काली कजरारी रात, सभी कुछ तो मनभावन होता है। मगर शर्त  है यह सब तुम्हे मेरी आखों से देखना होगा।
यहां की अंधेरी और सूनी रात जब चुपके चुपके बतियाती है तो बहुत बतियाती है। हां। यह जरुर है उसका बतियाना षब्दों मे नही होता। वह होता है पेड़ों की सूं सूं मे भौरों  की भन भन मे। पपीहे की टेर मे। या कि एक गहन मौन संगीत की तरह। जिसे कोई योगी या साधक ध्यान मे सुन पाता है। सोहम की तरह। या कोई भक्त तुकाराम के अभंग की तरह। या कोई मीरा कान्हा की बांसुरी की तरह।
मेरी बुलबुल। ऐसा हरगिज नही, कि इन वादियों की बेपनाह खूबसूरती मे डूब मै तुम्हारे गुलाबी होंठ, गाल और मदमस्त अदाओं को भूल गया हूं। मुझे तुम्हारी हर बात हर अदा तुम्हारे साथ बिताये एक एक पल जेहन के किसी कोने मे मौजूद रहते है। जो हर सांस के साथ। अपनी मौजूदगी बनाये रखते है।
सच तुम्हारी यादें ही तो है। जो सतत जिंदगी के अलाव को जलाये रखती है। धीमे धीमे। सोंधी सोंधी उपले की महक के साथ। जानती हो अलाव की राख आसानी से नही बुझती और नही कम होती है। वह अंदर ही अंदर सुलगती रहती है बड़ी देर तक। उसी तरह तुम्हारे साथ की यादें दिल की राख मे कैद है।
जानती हो सोनम। यहां बरसात मे बादल बहुत नीचे तक आ जाते है। यहां तक की इतने नीचे कि कभी कभी तो पहाड़ की फुनगी से उतर कमरे और विस्तरे तक आ जाते है। लगता है जैसे हम उड़ रहे हों। चल रहे हों बादलो के बीच। बस एक उड़न खटोले की दरकार रहती है।
काश हमारे पास एक उड़न खटोला होता तो तो कितना अच्छा होता। तुम जब चाहे नदी नाले और इन पहाडों को पार कर मेरे पास आजती और इन वादियों के अलमस्त मौसम मे हम दोनों रहगुजर होते। या कि मै खुद तुम्हारे पास आ आ कर तुम्हारी द्यनी अलकावलियों से हौले हौले छेड छाड कर चुपके से चला आता।
चलो छोडो, जो हो नही सकता उसकी क्या बाते करना।
जानती हो। सावन मे जब मेघ अपनी पूरी मस्ती मे उफान मे उछल कूद करते बरसते है। एक दूसरे से टकरा टकरा कर हरहराते हैं, तो इन पहाड़ो की चोटियों से एक एक कर बावन झरने झर झर बरसते है। उनमे से एक तो रिवर्ष वाटरफाल है। उसकी बौछारें हवा के झोंको से ऊपर की ओर उछल कर फिर नीचे की ओर जाती है। कितना खूबसूरत और लुभावना समॉ होता है। मानो कोई नवेली नहा के जुल्फें झटक रही हो। और जिसे किसी कैमरे कविता कहानी कहीं भी कैद नही किया जा सकता। उसे तो सिर्फ देखा और महसूसा जा सकता है। जिया जा सकता है। सांस सांस नशे मे उतारा जा सकता है। सच ऐसे मे तुम होती तो कितना अच्छा होता। कितना सोणा होता।
जानम। तुमको याद हो कि न याद हो। पर याद करोगी तो याद भी आजायेगी। उस दिन की जब हम दोनो। किसी गरम दिन की चिपचिवे मौसम मे। बरामदे मे बैठ बतिया रहे थे और मै तुमसे कह रहा था। कि मै चाहता हूं। कि मेरे पास सिर्फ एक कमरा हो। झोपडी नुमा। जिसमे मात्र जरुरत भर की चीजें ही तो भी चलेगा। बस जहां यह झोपडी हो वहा का वातावरण सुहाना और षांत हो। जहां मै एकांत मे रह सकू ओैर पढ सकूं। अपने पसंदीदा लेखको को और सोच विचार कर सकूं अपने तरीके से।
और जानती हो। वह सपना उम्र के इस मुकाम पे इस तरह आके पूरा होगा। मालुम भी न था।
यहां मेरे पास रहने के लिये दो कमरे का एक मकान है । जिसकी छत स्लोप लिये है जो बाहर से झोपडी की ही तरह लगता है। कमरे मे मेरे पास समान के नाम पे भी ज्यादा कुछ नही है और मुझे ख्वाहिष भी नही है। बस समझ लो कि एक साधरण सा पलंग। एक मोटा गददा। एक लिखने पढने की मेज। एक टी वी जो कभी कदात ही खुलती है। कुछ जरुरत भर के बरतन वा कपडे। बस यही मेरी ग्रहस्थी है। बिना ग्रहिणी के ?
मेरी चुनमुन।
जानती हो, अगर यहां के लोगों की माने तो, जहां मै रहता हूं। उन्ही पहाड़ोके ऊपर से रावण सीता को अपने उडन खटोले पे उठा ले जा रहा था। तभी सीता जी का कोई एक गहना गिरा था। वह जगह मेर रहने के जगह के आस पास की बतायी जाती है।
एक बात और जो मैने सुना है कि यह जगह शापित जगह है
तुम इन बातो को सुनकर क्या प्रतिक्रिया करोगी मुझे नही मालुम। पर इन बातों को सुनकर अच्छा जरुर लगता है। थोड़ी  देर को रोमांच भर आता है।
जबसे मैने सुना है तब से अक्षर अकेले ही इन पहाडों पे टहल टुहल आता हू। यह सोंचते हुए कि इन अनादि पहाडो पे न जाने कितने जानवरो। आदमियों के कदम पडे हांगे। न जाने कितनी बरसाते और धूप झेली होंगी इन चटटानों ने। न जाने कितने गांव दिहात बसे और उजडे होंगे। न जाने कितने काले कलूटे व गठीले आदिवासी तीर कमान से इन्ही जंगलों पहाड़ों के चप्पे चप्पे को छाना होगा शिकार किया होगा फिर थक,आग जला कर अपने षिकार से पेट भरा होगा महुआ की उतारी शराब पी के रात रात भर नाचा होगा। फिर इन्ही पेड़ों के झुरमुट के पीछे या झोपड़ी मे गुत्थम गुत्था हो के तन मन की आदिम भूख से निजात पायी होगी। सच दृ
मेरी छोनी छोनी सोणी। इन हरे भरे जंगलों व पहाड़ों के बीच मे एक ड़ैम भी है जिसका नीला गहरा पानी दूर तक शांत रहता है। इस गहरे नीले पन मे भी एक गजब का आर्कषण है जादू है जो देर तक व दूर तक बांधे रहता है। रोज तो नही अक्सर इस ड़ैम के किनारे किनारे न जाने कहां तक चलता चला जाता हूं। कभी कभी तो सूरज के उगे रहने पर ही चलना शुरु करता हूं और चांद के उग आने तक चलता ही रहता हूं। पर इस मौन  ड़ैम का छोर नही आता । फिर मै चांद की चांदनी से भीगता तारों से बतियाता । अपने ही आप मे मगन कब वापस आता हूं पता ही नही चलता।
कभी कभी लगता है यह ड़ैम भी मुझसे कुछ कहना चाहता है। जिसे मै सुन नही पा रहा हूं। इसी तरह कई बार मुझे ये पहाड़ भी कुछ कहते से नजर आते है। एक बार तो इन पहाड़ों से बड़ी देर तक बतियाता भी रहा।  हो सकता है तुम इन बातों और अहसासों को न समझ पाओ पर सच कहता हूं। क़ायनात का ज़र्रा ज़र्रा आपसे बतियाने को आतुर रहता है बस जरुरत है आपके हां करने की। आपके कानों को उनकी आवाज सुनने देने की। आपके दिलों को उनके दिलों के धड़कनो से मिल जाने देने की। खैर .....
सजनी। अगर मै तुम्हे बताने लगूं। तो इतनी बाते बताने के लिये है। इतनी बातें कि रात भर मे भी खत्म न हो। तो इस खत मे क्या होंगी।
आजकल। बारिसों का मौसम है। लोगों ने धान लगा रखें है। अब धान की पौध को एक जगह से उखाड दूसरी जगह रोपने का काम हो रहा है। हरे भरे पानी भरे खेतों मे पाति के पांत औरतो आदमियों को बोरे या बांस की बरसाती सा ओढे काम करते और गाते देखना बहुत अच्छा लगता है।
मेरी ड़ाल। क्या कभी तुमने आसमान पे उडते उए पक्षियों की पांतो को देखा है। एक के पीछे एक। कभी ये के आकार मे तो कभी हिंदी के सही के आकर मे। जानती हो जब ये चलते हैं तो एक क्रम से एक नियम से। पता नही इन्हे कौन सिखाता है। हो सकता हो इनके अंदर यह सब ज्ञान नैसर्गिक रुप से जन्म से ही प्राप्त होता हो। उसी तरह जैसे उडने के लिए पंख।
अक्षर मै भी तो उडता रहता हू। विचारों मे सपनो मे।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं। उडने का सपना देखना अति महत्वाकांक्षा का प्रतीक है।
पर मुझे तो नही लगता कि मै कोई अति महत्वाकार्क्षी आदमी होंऊ।
हां ज्यादा से ज्यादा पढ लेना और जान लेने की ख्वाहिष जरुर है। यह ख्वाहिष अगर महत्चाकांक्षा की जद मे आती है तो मुझे अपने आपको महत्वाकाक्षीं कहाने मे कोई गुरेज नही है।
वैसे देखा जाय तो मै अपने आप को एक साधारण इच्क्षा व चेतना का आदमी मानता हू।
पर छोडो इन सब बातों को।
मेरी अच्छी अच्छी प्यारी प्यारी मुहब्बत क्या तुम्हे पता है। मुहब्बत ही वह बूटी है वह खाद पानी है जो इंसान को ज़िदा और जीवंत बनाये रखती है। वही तुम मेरे लिये हो मेरी जीवन की बीर बहूटी। तो मेरी बीर बहूटी तुम्हारी खनखनाती हंसी व तुम्हारे आंखों का शरबती पानी ही तो है जिसे इतनी दूर से भी महज यादों के सहारे पी पी के जी रहा हूं।
सच मुहब्बत ही है जो दुनिया को देखने का अंदाज बदल देती है। क्या कभी तुमने उन लोगों को देखा है जिनके जीवन मे मुहब्बत नही होती । कभी देखना। वह कितने क्रूर और भयावह लगते हैं। इसके अलावा ...
सुना। तुम जानती हो किसी से मुहब्बत होने के पांच कारण बताये गये हैं।
पहला नैर्सगिक प्रेम।
यह प्रेम होने का पहला उपादान माना गया है। इस प्रकार के प्रेम पूर्व जन्म के संबंध कारण होते है।
दूसरा सुंदरता से प्रेम। तीसरा गुण से प्रेम। चौथा व्यवहार से प्रेम। पांचवां साहर्चय से प्रेम।
पर जहंा तक मै समझता हूं। तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम मे पांचों कारण उपादान बनते है। षायद यही कारण है मै तुम्हारे प्रति इतना ज्यादा आर्कषण महासूस करता हूं।
सच मेरी रुह तुमने मुझे जितना मासूम और उजला उजला नेह और प्रेम दिया उसकी गमक आज भी मेरे जेहन मे महमह करती है।
तुम्हारा यह नेह ही तो है जिसने बिछडने के इतने दिनो बाद भी न भूलने दिया।
मरी स्नो, तुम्हे तो मालुम ही है। मैने जिंदगी से कभी भी ज्यादा की ख्वाहिष नही की। पेट भर भोजन तन भर कपडे और तुम। हां इन सबके अलावा अगर कुछ और चाहा था तो वह बस अपनी पसंद की किताबें पढना और धयान करना।
और शांत बैठ प्रक्रिति को निहारना और निहारना। बस।
यहां सभी कुछ है। सिवाय तुम्हारे।
सोणी। सिवाय तुम्हारे जिंदगी महज इकतारा है। जिसे अकेले ही इन वादियों मे वर्षों से बजाता आ रहा हूं। तुन्नक तूना। तुन्नक तूना। जिसमे न कोई सुर है न कोई राग। न कोई रागनी। क्योकि मेरी रागनी तो तुम ही हो। तुम ही हो मेरा संगीत।
हालाकि संगीत का क ख ग भी नही जानता पर इतना जानता हूं कि तुम ही मेरा संगीत हो तुम ही मेरी ज़िंदगी हो तुम ही सब कुछ हो सब कुछ यंहा तक कि जीवन भी मृत्यु भी।
हालाकि संगीत की तरह मै यह भी नही जानता कि मुहब्बत क्या है। पर इतना पता है कि तुम मेरे अंदर सांस सांस में समायी हो। जिसकी रगों में तुम्हारी याद ही लहू बन के दौड़ रहा है।
मेरी जाना।
किसी ने कहा है कि मुहब्बत वह चाह है जिसमे रुह और जिस्म मिलने की ख्वाहिष रखते हैं . 
लिहाजा कभी यह मत सोंचना कि मै तुम्हे अपने गले लगाने की चाहत महज जिस्मानी हवस मिटाने के लिये है। नही यह तो वह आदिम चाह है जिसके पूरा हुए बिना मुहब्बत सिर्फ एक ख्वाब बन के रह जाती है।
वही ख्वाब एक दिन न खत्म होने वाले रेगिस्तान में तब्दील हो जाता है और जिसमे आदमी तड़प के अपने आप को खत्म कर लेता है।
खैर ....
इस वक्त रात बहुत गहरा चुकी है। पर नींद कोशो  दूर।
ऐसा ही होता है। अक्सर जब तुम्हारी याद आने लगती है। घंटो सोंचता रह जाता हूं तुम्हारे बारे मे। पर अक्सर ऐसा भी होता है कि बिना किसी कारण के भी नींद नही आती।
ऐसा क्यों होता है। यह तो पता नही पर ऐसा होता जरुर है मेरे साथ।
तब मै होता हूं और मेरी तन्हाई और सिगरेट। जिसकी तबल इस वक्त काफी महसूस कर रहा हूँ ।
सिगरेट सुलगाना। धीरे धीरे उठते धुएं को देखना। फिर लच्छे लच्छे बना छोड़ना। और अंत मे ठुठके को मसल के तो कभी छिटक कर फेंक देना और फिर होंठों को गोल कर सीटी सी आवाज निकलते हुए किसी उलजलूल काम मे लग जाना। आदत रही है।
हालाकि इस वक्त सिगरेट पीने के बाद क्या करुंगा। कह नही सकता। हो सकता है लिहाफ ओढ कर सों जाऊ। हो सकता है अंधेरे मे यू ही उल्लुओं सा बैठा रहूं। काफी देर। हो सकता है चाय या कॉफी बना धीरे धीरे चुस्कियां लेता रहू। और फिर नयी सिगरेट के स्वाद की कल्पना करता रहूंगा। हो सकता है किसी पढी या अनपढी किताब के पन्नो को उलटता पलटता रहूंगा। काफी देर तक। नींद न आने तक।
मेरी जॉन। तुम मेरी इन आदतो से यह न समझ लेना की मै एक बीमार और खब्ती आदमी हू। हालाकि यह तय जरुर है कि मै इस उम्र मे इस मुकाम पे आके एक खब्ती और बीमार आदमी ही बन गया हूँ ।
खैर पर छोडो मेरी इन बेवकूफियाना हरकतो को। हालाकि इन बेवकूफियों और बेहूदा हरकतो को मैने सूफियाना अंदाज देने की कोषिष की है।
वैसे एक बात बताऊं तुम्हे। मुझे न जाने क्यो सूफी दरवेश  पीर पैगम्बर औलिया लोग आकर्षित करते रहते रहे हैं।
खास कर सूफी लोगो की मस्ती दिल तक उतर जाती है।
पता नही क्यों मुझे सूफियों का लिबास और उनकी वेषभूषा आकर्षित करती है। हो सकता है किसी दिन तुम मुझे भी इसी रुप मे टहलते घुमते देखो। भले ही वह घूमना फिरना घर के ही अंदर हो।
वैसे भी मै कोई फकीर बन जाऊं, साधू बन जाऊं या पागल दिवालिया कुछ भी हो जाऊं। उससे तुम्हे क्या फर्क पडने वाला है तुम तो अपनी दुनिया मे खुश हो और रहोगी। हालाकि अब मेरी भी यही चाहत है। तुम जहां भी रहो खुश रहो।
मै अच्छी तरह महसूस कर रहा हूं। जो तुम महसूस करोगी इस ख़त को पढ़ते हुए।
तुम सोच रही होगी कि आज इस बुढ़ापे मे। इतनी संजीदगी। इतनी इष्काना बाते कर रहा हू। जो उस वक्त कहनी चाहिये थी जब वक्त था। या कि जब हम जवान थे। तो मेरी जानू। क्या करुं चाहा तो बहुत था यह सब उस समय भी कहना पर पता नही क्यों तुम्हारे सामने आते ही मेरे सारे शब्द खो से जाते थे। सारी हिम्मत जवाब दे जाती थी।
वैसे अगर यह बात आज भी लिखने की जगह कहना पडे तो शायद मै न कह पाऊं।
अब इसे तुम मेरी कमजोरी समझो या मजबूरी।
तुम सोंच रही होगी कि एक तो इतने सालों कोई खोज खबर नही कोई बात चीत नही पर अब जब बात शुरू की तो खत्म ही नही होने पे आरही। तो क्या करुं, जाना मेरे अंदर भी पता नही क्यों अजीब अजीब आदतें आती जा रही हैं। जिनके बारे मे मैने अपने हालिया खतम किये उपन्यास मे विस्तार से लिखा है। जानती हो उस उपन्यास को क्या नाम दिया है ‘एक बोर आदमी का रोजनामचा’। मै जानता हूं तुम यह नाम पढ कर हंस रही होगी कि। जो बात सबको मालुम है उसे लिखने की क्या जरुरत थी।
मेरी किलयोपेट्रा, आदमी को अगर समाज मे रहना हो तो समाज के नियम और कानून भी मानने होंगे। चाहे मजबूरी हो या खुषी। लिहाजा मै भी इधर कई महीनों से ऑफिस व परिवार की झंझटों मे फंसा था। लिहाजा चाह कर भी तुमसे नही बतिया पा रहा था। भले ही यह बतियाना आज की तारीख मे आत्मालाप के सिवा कछ भी नही है। पर फिर भी वह भी नही कर पा रहा था।
मैंने सोचा है अब से रोज तुम्हे खत लिखूंगा भले ही एक लाइन लिखूं या एक शब्द । अपने वायदे पे कहां तक टिक पाता हूं यह तो वक्त ही तय करेगा। पर पता नही क्यों जब तुमसे दो दो बातें हो लेती हैं। तो एकषुकून सा जेहन मे उतर आता है।
अच्छा एक बात बताओ कहीं ऐसा तो नही कि तुम मेरी बातों से बोर हो रही हा। पर क्या करुं आदत से लाचार हूं। जैसा की मैने बताया ही है। कि मै एक बीमार और बोर आदमी हूं।
और जब तुमने एक बोर और बीमार आदमी से दिल लगाया है तो उसको सहो।
सखी, क्या तुम्हे याद है वह पहला दिन जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था। बॉब कट बाल। बालों मे कलरफुल स्कार्फ । फूले फूले सेब से गाल। गालों मे पडता गढढा, और गहरे रंग की कलरफुल फ्राक। पैरों मे जूते मोजे से लैस। हल्के और गहराते जाडे की धुंधलकी शाम मे तुम घर के सामने वाले मैदान मे अपनी हमउम्र सहेली के साथ खेल और गा रही थी। दूर मै खडा तुमको एक टक देख रहा था। पर तुम इन सब से बेखबर अपने मे मस्त मगन खेल और गा रही थी। धीरे धीरे सांझ का झुटपुटा बढता गया और अचानक घर से तुम्हे पुकारने की आवाज सुन कर तुम अपनी सहेली के साथ उछलती कूदती अपने घर को चली गयी। और मै वहीं ठगा खडा रह गया था।
तुम्हारी वही मासूमियत तो है जिसकी याद मे मै आज भी ठगा सा खडा हूं।
इन पहाड़ो और घाटियों मे। और अब तो न जाने कितनी घाटियां मेरे सीने मे दफन हैं। अपनी तमाम ऊँचाइयों को लेकर। ठीक उसी तरह जैसे समुद्र की तलहटी मे न जाने कितने पर्वत आज भी समाधिस्थ हैं।
सुमी। हो सकता है तुम्हे मालुम हो कि न हो। पर यह भौगोलिक सत्य है कि हिमालय भी कभी समुद्र की गहराइयों मे खोया था। जो आज अपनी उतुगं चोटियों को फहराते शान से खडा है। खैर ...

मेरी मुहब्बत का हिमालय कब अपनी ध्वजा फहरायेगा। यह तो पता नही पर कई बरसों से यहीं समाधिस्थ हूं। तुम्हारी ही याद के सहारे।
और आगे न जाने कितने बरसों के लिये। शायद युगों युगों के लिये।

तुम्हारा।

1 comment:

  1. na jane kitne baras beet gaye... shayad umr ka ek padav pura kr liya . apne seene me yaaden smete hue.. khud ko ghun lagate hue.... na jane kaun sa pal hmen maut ke hwale kr dega...aur ye sab yaaden ye baten ye khat yun rah jayenge.... jamin jaydad to insan apne bachchon ke hwale kr jata hai.. lekin en beshkimti yadn ka kya.. kaun waris hai inka... kis ko soumpe apni beete lamho ki kasak..ye yaaden ... jo kisi ke pyar ki nishani hai.. yun hi dafan ho jayengi... fir ye sab likha hua log padhenge.. lekin us tak na pahunch payengi ye baten jo esey jan ne k hakdaar hain...ye MAUN PREM hmare saanson ki maala ke toot"te hi khatam ho jayega....

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