मुग़ालता है तुझे, खुशबू के लिये आया हूं
मै तो शाख से कुछ कांटे चुराने आया हूं।
ये अलग बात है ख़ाक हुआ उन शरारों से
जिन चराग़ों को मुहब्बत के लिये जलाया हूं।
बयां करती है ऑखों की लाली औ खु़मारी
तमाम रात तेरी हिज्र औ यादों में जागा हूं।
आदतन किसी सफ़र में मैं यूं निकलता नही
वो तेरी सूरत थी, तेरे घर की तरफ आया हूं।
असबाब बधं चुका लम्बे सफर की तैयारी में
तेरी इक झलक मिल जाये इसलिये ठहरा हूं।
गांव की शाम औ आबोहवा आज भी अच्छी है
शहर में तो यूं कुछ तफरीह के लिये आया हूं।
सुना है तेरी ऑखों में चश्मेहयात बहता है
तमाम तिश्नगी मिट जाये इसलिये आया हूं।
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------
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