तन्हा मुसाफिर इस वक्त भी सफ़र में था। रात अपने स्याह गेसुओं को फैलाये बह
रही थी। ठुनकती हवा उसके साथ थी। जबकि चॉद और तारे खामोष थे। राह में दूर
दूर तक कोई इंसान न था। वक्त कटी के लिये मुसाफिर ने अपने गले को साधा ओर
गुनगुना उठा।
ये जरुरी नही कारवां में ही चल तू
तू सही, तो अकेला ही चला चल तू
शे'र सुन दूर कहीं पपीहे ने दाद दी। दरख्तों ने भी हिल हिल कर वाह वाह की। मग़र मुसाफिर इन सब से बेपरवाह बढ़ा जा रहा था अपनी अनाम मंज़िल की ओर।
तभी उसके कानों में कहीं दूर से आती स्वर लहरियों ने उसका ध्यान खींचा। आवाज़ में काफी र्दद ओर कशिश थी। मुसाफिर मंत्रबिद्ध सा उसी स्वर लहरियों में खोने लगा तैरने लगा। उसके कदम भी उसी तरफ बढ़ने लगे।
रात तब तक काफी गहरा चुकी थी पर ऐसा लगता था जैसे उजाला कहीं दूर दस्तक दे रहा हो मुसाफिर ने इसे चांदनी की वजह माना और आगे बढता ही गया। उसने रैन बसेरे के लिये निगाह दौड़ाई। दूर दूर तक कहीं कुछ न था सिवाय एक जर्जर मंदिर के उसे लगा स्वर लहरियां वहीं से आ रही हैं। उसने अपने कदमों की चाल बढा दी।
आवाज़ मंदिर से लगे एक पुराने मकान से आ रही थी। थोडी रोशनी भी पुराने किवाड़ की झिर्रियों से बीम की तरह झर रहीं थी।
मुसाफिर ने दस्तक दी।
कुछ देर बाद, लाठी की ठक ठक के साथ बूढ़ी कंपकपाती आवाज़ ने खामोशी तोड़ी
‘इतनी रात गये कौन है, भाई’
‘बाबा, एक मुसाफिर, रात गुजारना चाहता है।’
जर्रजर दरवाजा चरमराहट की अवाज से खुला। बगल से आती मधुर स्वर लहरियां रुक चुकी थी।
लालटेन की रोशनी को मुसाफिर के चेहरे की ओर उठाकर बूढ़े ने गौर से देखा।
कंधे तक झूलते बाल, बडी बड़ी ऑखें चौडी और लम्बी कद काठी। बदन पे लबादा पीठ पर कुछ असबाब लिये एक नौजवान खड़ा था।
बूढे़ ने उसकी दाढी से उसकी जात का अंदाज़ा लगाया। फिर न जाने क्या सोंच कांपती आवाज में कहा ‘बेटा, पहले अंदर तो आओ’
नौजवान मुसाफिर ने अपने कंधे से असबाब उतार कर करियाई पीठ वाले पुराने तख्त पर रख दिया।
‘बेटा, बहुत थके व भूखे नजर आ रहे हो। पहले हाथ मुह धोकर कुछ खा पी लो फिर बात चीत करते हैं।’
‘बाबा, आप लोग बिलकुल परेशान न हों, मेरी तो इस सब की आदत सी हो गयी है।’
‘बेटा, मेहमान भगवान होता है बिना तुम्हे खिलाये हमे चैन नही आयेगा।’
तब तक दो खूबसूरत हाथ मुसाफिर के सामने थाली में खाना और एक लोटा पानी रख कर दरवाजे की ओट में हो गये थे।
नौजवान ने अंदाजा लगाया वह स्वर लहरियां इसी की रही होंगी।
खाने के बाद मुसाफिर ने हुक्के के लिये थोडी आग भी चाही।
बूढा आग के लिये आवाज लगाता इसके पहले ही वे दो खूबसूरत हाथ उपले में आग ले आये थे। उपले में थोडी लपक भी थी। जिसकी रोशनी में उसका उदास पर खूबसूरत चेहरा चमक रहा था।
मुसाफिर को उपला थमाते वक्त दोनो की नजरें एक पल को मिली।
लगा उपले की लपट और भभक उठी हो।
पर उपला देकर वह झट से फिर दरवाजे की ओट में हो गयी।
रात की खामोषी अब फिर पसर गयी तीनों के बीच। बीच बीच में हुक्के की गुडगुड और सांसों की आवाज ही आ जा रही थी।
इस खामोषी को मुसाफिर ने ही तोडा।
‘बाबा। अभी आपकी बेटी ही गा रही थी क्या’
‘हां बेटा समझ लो बेटी ही गा रही थी ’
‘मतलब ये आपकी बेटी नही है।’
‘मतलब यह कि ये मेरी बेटी बेटा और बहू तीनो ही है।’
‘बाबा, मै कुछ समझा नही।’
‘यह मेेरे इकलौते बेटी की बहू है। बाल विधवा है।
बूढे की कांपती आवाज ने जवाब दिया। और चुप हो गया। लगा रात की खोमोषी और गाढी हो गयी है। मगर इस बार उस मौत सी खामोषी को बूढे ने ही तोड़ा।
‘बेटा, तुम कौन मुसाफिर हो अपने बारे में भी कुछ बताओगे’
‘बाबा, मेरा नाम नाम रामरहीम है’
‘बेटा तुम्हारा नाम तो बडा अजीब है नाम से तो न तुम हिन्दू पता लगते हो और न मुसलमान’
‘बाबा, इंसान होना बडी बात है या फिर हिन्दू और मुसलमान होना बडी बात है’
‘बेटा तुम ठीक कहते हो पर दुनिया तो नाम को ही जानती और मानती है। लगता है तुम्हारे मॉ बाप तुम्हारे जात पात से बहुत उपर उठ चुके इंसान रहे होंगे तभी यह नाम दिया है’
‘बाबा मॉ बाप ने दिया होता तो हो सकता है या तो हिन्दू नाम दिया होता या मुसलमानी नाम मगर मुझे यह नाम एक फकीर ने दिया है जो सोच, इल्म और कर्म तीनो में इंसानियत से बहुत उपर उठ चुका था।
‘बात को कुछ तफसील दोगे, बेटा’
मुसाफिर ने हुक्के का एक लम्बा कष खींचा। हुक्के की लौ उपर तक उठी जिसमें उसकी फकीरी आखें दमक उठीं।’
हुक्के के लम्बे कष में ही उसने अपने लफजों को मन ही मन तफसील दिया। तब तक बूढे की ऑखें और औरत के कान उसकी आवाज का इंतजार करते रहे।
कुछ देर बार मौन टूटा।
‘बात बहुत पुरानी है लगभग बीस बाइस साल पहले की। एक फकीर अपनी पूरी मस्ती में अपने इकतारे को बजाता हुआ चला जा रहा था एक नदी के किनारे किनारे अचानक उसके पांव किसी चीज से टकराये। उसने झुक कर देखा वह एक मासूम बच्चे की लाष थी। जो नदी के थपेडों से बह के किनारे लग गयी थी। फकीर को न जाने क्यूं लगा कि लाश मे अभी मुर्दापन नही है। चेहरे में अभी भी जिंदगी की चमक बाकी है। उसने जल्दी जल्दी बच्चे की लाश से कफन हटाया और उसकी नब्ज टटोली नब्ज गायब थी पर षरीर में हरारत थी। उसने अपना इकतारा और गठरी वहीं बगल में रख कर लाश का पूरा मुआयना किया। बच्चे के पैर में दांत के दो निषान देखते ही उसे मामला समझते देर न लगी।
फकीर अनुभवी था वह समझ गया कि किसी हिन्दू बच्चे को सांप ने काटा है इसलिये उसे मरा समझ नदी में बहा दिया गया है।
फकीर ने जल्दी से घाव पर अपना मुह रख दिया और शरीर से जहर चूस चूस कर जल्दी जल्दी थूंकने लगा। ज़हर निकालने के बाद अपनी गठरी से कुछ जडी बूटी निकाला और कुछ फातिहा सा पढ के घाव पर लगा दिया।
बूढा और खूबसूरत औरत सांस रोके कहानी सुन रहे थे।
यूवा फकीर ने एक और लम्बा काश लिया। फिर आगे की कहानी सुनाने लगा
कुछ देर बाद ही बच्चे की नब्ज चलने लगी। फकीर खुष हुआ। वह बच्चे को अपने ठिकाने पर ले आया। और उसकी तामीरदारी में लग गया। कुछ घंटों में ही बालक ने ऑखें खोल दी।
फकीर काफी खुश हुआ उसने अल्ला का शुक्रिया अदा किया।
पर बच्चा फटी फटी ऑखों से कभी फकीर को तो कभी माहौल को देखता। फकीर ने बच्चे से उसके घर और मॉ बाप के बाबत पूंछा । पर षायद हादसे से वह सब कुछ भूल गया था। और अपने बारे में कुछ न बता पा रहा था। लिहाजा फकीर ने उसे अल्ला की शौगात समझ अपने साथ ही रख लिया। और उसका नाम ‘रामरहीम’ रख दिया। राम इसलिये कि वह किसी हिन्दू की औलाद था। और रहीम इसलिये कि एक मुसलमान ने उसे नयी जिंदगी दी थी। पर फकीर ने उस बच्चे को कभी मुसलमान नही बनने दिया। वह कहता कि अगर कभी बच्चे के असली मॉ बाप मिल जायेंगे तो वह क्या मुह दिखायेगा। और उन्हे फकीरों के उपर से एतबार भी उठ जायेगा।
तो बाबा वही बच्चा आपके सामने है।’
बूढा यह कहानी सुन काफी उदास हो गया। बोला ‘मेरा बेटा भी इसी तरह बहुत साल पहले सांप के काटे से मर गया था। जिसे नदी में बहा आया था। अगर जिन्दा होता तो बिलकुल तुम्हारे जैसा होता’
फकीर मुसाफिर ने कहा ‘बाबा हो सकता है मै ही आपका वह बच्चा होंउं’
‘नही तुम मेरे बेटे नही हो सकते हो। उसकी पीठ पर जले का निशाँ था जो उसके बचपन में जलने से पड गया था।’
यह सुनते ही फकीर ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी पीठ बूढे के सामने कर दी।
पीठ का निषान देखते ही बूढा फकीर को गले लगा कर रो पडा ‘बेटा मेरा बेटा’ फकीर भी यह सुन बूढे के गले लग के जोर जोर रोने लगा।
यह सब सुन देख दरवाजे की ओट से जोर से सिसकने की आवाज आयी।
अब तीनो एक दूसरे से गले लग देर तक रोते रहे फफक फफक कर।
बाहर रात भी खुषी से रो रही थी। जबकि दूर कहीं उजाला मुस्कुरा रहा था।
इस बार मुसाफिर जान चुका था कि यह रात का नही दिन का उजाला है।
मुकेष इलाहाबादी
28.06.2011
ये जरुरी नही कारवां में ही चल तू
तू सही, तो अकेला ही चला चल तू
शे'र सुन दूर कहीं पपीहे ने दाद दी। दरख्तों ने भी हिल हिल कर वाह वाह की। मग़र मुसाफिर इन सब से बेपरवाह बढ़ा जा रहा था अपनी अनाम मंज़िल की ओर।
तभी उसके कानों में कहीं दूर से आती स्वर लहरियों ने उसका ध्यान खींचा। आवाज़ में काफी र्दद ओर कशिश थी। मुसाफिर मंत्रबिद्ध सा उसी स्वर लहरियों में खोने लगा तैरने लगा। उसके कदम भी उसी तरफ बढ़ने लगे।
रात तब तक काफी गहरा चुकी थी पर ऐसा लगता था जैसे उजाला कहीं दूर दस्तक दे रहा हो मुसाफिर ने इसे चांदनी की वजह माना और आगे बढता ही गया। उसने रैन बसेरे के लिये निगाह दौड़ाई। दूर दूर तक कहीं कुछ न था सिवाय एक जर्जर मंदिर के उसे लगा स्वर लहरियां वहीं से आ रही हैं। उसने अपने कदमों की चाल बढा दी।
आवाज़ मंदिर से लगे एक पुराने मकान से आ रही थी। थोडी रोशनी भी पुराने किवाड़ की झिर्रियों से बीम की तरह झर रहीं थी।
मुसाफिर ने दस्तक दी।
कुछ देर बाद, लाठी की ठक ठक के साथ बूढ़ी कंपकपाती आवाज़ ने खामोशी तोड़ी
‘इतनी रात गये कौन है, भाई’
‘बाबा, एक मुसाफिर, रात गुजारना चाहता है।’
जर्रजर दरवाजा चरमराहट की अवाज से खुला। बगल से आती मधुर स्वर लहरियां रुक चुकी थी।
लालटेन की रोशनी को मुसाफिर के चेहरे की ओर उठाकर बूढ़े ने गौर से देखा।
कंधे तक झूलते बाल, बडी बड़ी ऑखें चौडी और लम्बी कद काठी। बदन पे लबादा पीठ पर कुछ असबाब लिये एक नौजवान खड़ा था।
बूढे़ ने उसकी दाढी से उसकी जात का अंदाज़ा लगाया। फिर न जाने क्या सोंच कांपती आवाज में कहा ‘बेटा, पहले अंदर तो आओ’
नौजवान मुसाफिर ने अपने कंधे से असबाब उतार कर करियाई पीठ वाले पुराने तख्त पर रख दिया।
‘बेटा, बहुत थके व भूखे नजर आ रहे हो। पहले हाथ मुह धोकर कुछ खा पी लो फिर बात चीत करते हैं।’
‘बाबा, आप लोग बिलकुल परेशान न हों, मेरी तो इस सब की आदत सी हो गयी है।’
‘बेटा, मेहमान भगवान होता है बिना तुम्हे खिलाये हमे चैन नही आयेगा।’
तब तक दो खूबसूरत हाथ मुसाफिर के सामने थाली में खाना और एक लोटा पानी रख कर दरवाजे की ओट में हो गये थे।
नौजवान ने अंदाजा लगाया वह स्वर लहरियां इसी की रही होंगी।
खाने के बाद मुसाफिर ने हुक्के के लिये थोडी आग भी चाही।
बूढा आग के लिये आवाज लगाता इसके पहले ही वे दो खूबसूरत हाथ उपले में आग ले आये थे। उपले में थोडी लपक भी थी। जिसकी रोशनी में उसका उदास पर खूबसूरत चेहरा चमक रहा था।
मुसाफिर को उपला थमाते वक्त दोनो की नजरें एक पल को मिली।
लगा उपले की लपट और भभक उठी हो।
पर उपला देकर वह झट से फिर दरवाजे की ओट में हो गयी।
रात की खामोषी अब फिर पसर गयी तीनों के बीच। बीच बीच में हुक्के की गुडगुड और सांसों की आवाज ही आ जा रही थी।
इस खामोषी को मुसाफिर ने ही तोडा।
‘बाबा। अभी आपकी बेटी ही गा रही थी क्या’
‘हां बेटा समझ लो बेटी ही गा रही थी ’
‘मतलब ये आपकी बेटी नही है।’
‘मतलब यह कि ये मेरी बेटी बेटा और बहू तीनो ही है।’
‘बाबा, मै कुछ समझा नही।’
‘यह मेेरे इकलौते बेटी की बहू है। बाल विधवा है।
बूढे की कांपती आवाज ने जवाब दिया। और चुप हो गया। लगा रात की खोमोषी और गाढी हो गयी है। मगर इस बार उस मौत सी खामोषी को बूढे ने ही तोड़ा।
‘बेटा, तुम कौन मुसाफिर हो अपने बारे में भी कुछ बताओगे’
‘बाबा, मेरा नाम नाम रामरहीम है’
‘बेटा तुम्हारा नाम तो बडा अजीब है नाम से तो न तुम हिन्दू पता लगते हो और न मुसलमान’
‘बाबा, इंसान होना बडी बात है या फिर हिन्दू और मुसलमान होना बडी बात है’
‘बेटा तुम ठीक कहते हो पर दुनिया तो नाम को ही जानती और मानती है। लगता है तुम्हारे मॉ बाप तुम्हारे जात पात से बहुत उपर उठ चुके इंसान रहे होंगे तभी यह नाम दिया है’
‘बाबा मॉ बाप ने दिया होता तो हो सकता है या तो हिन्दू नाम दिया होता या मुसलमानी नाम मगर मुझे यह नाम एक फकीर ने दिया है जो सोच, इल्म और कर्म तीनो में इंसानियत से बहुत उपर उठ चुका था।
‘बात को कुछ तफसील दोगे, बेटा’
मुसाफिर ने हुक्के का एक लम्बा कष खींचा। हुक्के की लौ उपर तक उठी जिसमें उसकी फकीरी आखें दमक उठीं।’
हुक्के के लम्बे कष में ही उसने अपने लफजों को मन ही मन तफसील दिया। तब तक बूढे की ऑखें और औरत के कान उसकी आवाज का इंतजार करते रहे।
कुछ देर बार मौन टूटा।
‘बात बहुत पुरानी है लगभग बीस बाइस साल पहले की। एक फकीर अपनी पूरी मस्ती में अपने इकतारे को बजाता हुआ चला जा रहा था एक नदी के किनारे किनारे अचानक उसके पांव किसी चीज से टकराये। उसने झुक कर देखा वह एक मासूम बच्चे की लाष थी। जो नदी के थपेडों से बह के किनारे लग गयी थी। फकीर को न जाने क्यूं लगा कि लाश मे अभी मुर्दापन नही है। चेहरे में अभी भी जिंदगी की चमक बाकी है। उसने जल्दी जल्दी बच्चे की लाश से कफन हटाया और उसकी नब्ज टटोली नब्ज गायब थी पर षरीर में हरारत थी। उसने अपना इकतारा और गठरी वहीं बगल में रख कर लाश का पूरा मुआयना किया। बच्चे के पैर में दांत के दो निषान देखते ही उसे मामला समझते देर न लगी।
फकीर अनुभवी था वह समझ गया कि किसी हिन्दू बच्चे को सांप ने काटा है इसलिये उसे मरा समझ नदी में बहा दिया गया है।
फकीर ने जल्दी से घाव पर अपना मुह रख दिया और शरीर से जहर चूस चूस कर जल्दी जल्दी थूंकने लगा। ज़हर निकालने के बाद अपनी गठरी से कुछ जडी बूटी निकाला और कुछ फातिहा सा पढ के घाव पर लगा दिया।
बूढा और खूबसूरत औरत सांस रोके कहानी सुन रहे थे।
यूवा फकीर ने एक और लम्बा काश लिया। फिर आगे की कहानी सुनाने लगा
कुछ देर बाद ही बच्चे की नब्ज चलने लगी। फकीर खुष हुआ। वह बच्चे को अपने ठिकाने पर ले आया। और उसकी तामीरदारी में लग गया। कुछ घंटों में ही बालक ने ऑखें खोल दी।
फकीर काफी खुश हुआ उसने अल्ला का शुक्रिया अदा किया।
पर बच्चा फटी फटी ऑखों से कभी फकीर को तो कभी माहौल को देखता। फकीर ने बच्चे से उसके घर और मॉ बाप के बाबत पूंछा । पर षायद हादसे से वह सब कुछ भूल गया था। और अपने बारे में कुछ न बता पा रहा था। लिहाजा फकीर ने उसे अल्ला की शौगात समझ अपने साथ ही रख लिया। और उसका नाम ‘रामरहीम’ रख दिया। राम इसलिये कि वह किसी हिन्दू की औलाद था। और रहीम इसलिये कि एक मुसलमान ने उसे नयी जिंदगी दी थी। पर फकीर ने उस बच्चे को कभी मुसलमान नही बनने दिया। वह कहता कि अगर कभी बच्चे के असली मॉ बाप मिल जायेंगे तो वह क्या मुह दिखायेगा। और उन्हे फकीरों के उपर से एतबार भी उठ जायेगा।
तो बाबा वही बच्चा आपके सामने है।’
बूढा यह कहानी सुन काफी उदास हो गया। बोला ‘मेरा बेटा भी इसी तरह बहुत साल पहले सांप के काटे से मर गया था। जिसे नदी में बहा आया था। अगर जिन्दा होता तो बिलकुल तुम्हारे जैसा होता’
फकीर मुसाफिर ने कहा ‘बाबा हो सकता है मै ही आपका वह बच्चा होंउं’
‘नही तुम मेरे बेटे नही हो सकते हो। उसकी पीठ पर जले का निशाँ था जो उसके बचपन में जलने से पड गया था।’
यह सुनते ही फकीर ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी पीठ बूढे के सामने कर दी।
पीठ का निषान देखते ही बूढा फकीर को गले लगा कर रो पडा ‘बेटा मेरा बेटा’ फकीर भी यह सुन बूढे के गले लग के जोर जोर रोने लगा।
यह सब सुन देख दरवाजे की ओट से जोर से सिसकने की आवाज आयी।
अब तीनो एक दूसरे से गले लग देर तक रोते रहे फफक फफक कर।
बाहर रात भी खुषी से रो रही थी। जबकि दूर कहीं उजाला मुस्कुरा रहा था।
इस बार मुसाफिर जान चुका था कि यह रात का नही दिन का उजाला है।
मुकेष इलाहाबादी
28.06.2011
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