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Sunday, 2 September 2012

एक प्रेमी का विरह वर्णन ....


जीवन की नीरव गलियों मे पदचाप  तुम्हारी सुनता हूं
दवार ह्रदय का खोल सखि अब राह तुम्हारी तकता हूं
जीवन तरुवर  सूख  रहा  ज्यादा दिन अब शेष  नही
तुम अंत समय तो आओगी स्वम्न रोज मै बुनता हूं

नेत्र नदी से बहते हैं, बना ह्रदय आग की ज्वाला
हाय विधाता तुमने  मुझको  मात्र विरह दे डाला
जीवन तो छलिया निकला, म्रत्यु भी नही आती
हाय सखी अब गरल वियोग का पिया नही जाता


बचपन की वो कैथा इमली, तुमको याद नही ?
छुपा छुपौवल खेले हम तुम तुमको याद नही?
पाठ गणित का तुमको मै ही था खिखलाता,
तुम मुझको काव्य पढाती, यह भी याद नही?


सांझ की बेला जब मै छत पर पतंग उडाता,
कपडे चुनने का ले बहाना तुम भी आ जाती
तब हर्षित नैन आलिंगन बद्ध प्रेम गीत गाते
कितनी हमने कसमे खायीं यह भी याद नही?


स्म्रिति मे हैं ढेरों बातें क्या क्या याद दिलाउं
सांसें उखडी जाती हैं कलम साथ नही देती
जीवन का है अंत समय अब केवल साध रही
लोक लाज तज आजाओ बस तेरे दर्शन पांउ


मुकेश इलाहाबादी --------------------------

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