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Friday 14 November 2014

सुलग रहे हैं हम अपने ही अलाव में

सुलग रहे हैं हम अपने ही अलाव में
या कि बह रहे हैं वक्त के बहाव में
ड़ालियां फूलों के बोझ सेतो नहीं पर
झुक रही रही हैं ये हवा के दबाव में
देखकर ज़्ामाने की रईसी लगता है
बीत रही है ज़िदगी कितने अभाव में
सफरे जिंदगी का लुत्फ ही न लिया
रास्ता कटगया यादों के रखरखाव में
डूबने से हरगिज डरता नही है मुकेश
छोड दिया खुद को चढते दरियाव में
मुकेश इलाहाबादी ........................

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