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Wednesday, 27 May 2015

दिन आवारा, बेहया रातें हैं

दिन आवारा, बेहया रातें हैं
रेत की नदी कागजी नावें हैं

इस आग  बरसते मौसम मे 
सुलगते दिन दहकती रातें हैं

हालात मे तब्दीली आयेगी 
छोडिये,  बेकार की बातें हैं

दरार होती तो पट भी जाती 
रिस्तों मे उंची - २  दीवारें हैं

कहीं कांटे हैं,  तो कहीं खाई 
मुकेश बडी मुस्किल राहें हैं

मुकेश इलाहाबादी ----------

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