परती धरती और पहली बारिस
बारिस की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और चमेली की खुषबू को संध्या अपने नथूनों में ही नही महसूस कर रही थी बल्कि अपनी संदीली काया के रोम रोम में सिहरन सा महसूस कर रही थी। बेहद तपन के बाद बारिष के मौसम की तरह वह अपने अंदर आये इस बदलाव से वह अंजान नही थी। पर उम्र के इस उत्तरायण में इस क़दर भावुक मन होना वह स्वीकार नही कर पा रही थी और अस्विकार भी।
फिलहाल, संध्या अपने मन के सारे विक्षोभों को परे धकेल, अपने आप को पूरी तरह मन के हवाले कर देना चाह रही थी। और फूलों की तरह किसी डाली से लगी रह कर डोलना व तितली की तरह उडना चाह रही थी। इस हल्की हल्की बारिस की बूंदों की सिहरन, मन के अंतरतम तल तक महसूस कर लेना चाहती थी। दिल तक। इस अंजानी खुषी व षीतल छुअन ने पेड़ पौधों लताओं व गुल्मों को हौले हौले तो कभी जोर से हिलते पत्तों के संगीत में डूब जाना ही चाहती थी। बाहर गुलमोहर की पत्तियों से छन छन करती बूदें स्वर लहरियों में खो जाना चाहती थी। ऐसे में संध्या सोच रही थी कि जीवन की इस संध्या में कोैन सा बसंत हरहरा रहा है। और हरहरा रहा है तो उसमे डूबना कितना उचित है पर वह इन सब बातो से बेपरवाह हो जाना चाहती है। बस इस वक्त तो बादल सा बरसने का ही मन कर रहा था। वह अपने को रोक नही पायी। बूंद बूंद बरसने से।
डेक मे एक सूफियाना गाना लगा। न जाने कब ड्रेसिंगटेबल तक पहुंच दोनो हाथों को पीछे ले जा बालों का जूडा बानती हुयी अपने आप को देखने लगी। गौर से। मांग के अगल बगल व कनपटी के दो चार बालों को छोड दिया जाये तो अभी भी सारे के सारे काले व घने बाल किसी भी औरत के लिये ईष्या का कारण बन जाते है। उसके चंद चांदी से बाल भी इस उम्र को और पका व निखरा ही बना रहे थे। चेहरे पर अभी भी नमक व गमक मोती से चमक रहे थे।
स्ंाध्या को लग रहा था आज जिंदगी मे पहली बार अपने आप को आइने में देखा है। कभी देखने का मौका ही न आया जिस उमर में लडकियां अपने खिलाव व उभारों को देख देख खुष होती हैं उस उमर मे ही तो रीतेष ने डोरे डाल दिये। पहली बार जव उसने प्यार का इजहार किया तब तक तो वह उसका मतलब भी ठीक से न समझ पाने की उम्र में थी। तब वह कितना घबरा गयी थी। हडबडाहट में उसने यह बात जा कर मर्ॉ से कह आयी थी। कि रीतेष मुझसे षादी करने को कह रहा है। उस दिन तो लोगेां ने रीतेष की बातों को मजाक में लिया पर एक दिन जब यह खबर मिली कि रीतेष ने नदी में छलांग लगा दी है कि अगर संध्या से षादी नही हुयी तो वह मर जायेगा। तब वह अंदर ही अंदर दहल गयी थी। उसे तो समझ ही न आ रहा था उसे क्या करना चाहिये। हालाकि उसकी साथ की सहेलियां उससे चुहल करती कि तेरे को कोई तो इतना चाहता है जो जान भी दे सकता है। यह सब सुन सुन कर उसकी चिडिया जैसी जान सूख जाती। वह समझ ही न पाती कि इस पर वह किस तरह रिएक्ट करे।
जब इस प्रकार की कई हरकतें रीतेष करने लगे अपनी पढाई लिखाई छोड गुमषुम से रहने लगे तो उसके घरवालों ने अपने एकलौते बेटे की खातिर उसके यहां रिष्ता लेकर आये जिसे पहले तो उसकी मॉ ने मना कर दिया। जिसका सबसे बडा कारण रीतेष का उनकी जात का न होना तो था इसके अलावा संध्या की उमर भी बहुत कम होना था। पहले तो उन्होने कहा कि अभी नही पहले बच्ची को पढ लिख तो लेने दीजिये पर बहुत समझाने पर चार साल बाद ही रीतेष के साथ हाथ पीले कर दिये गये। मॉ ने यह सोच कर भी हामी भर दी थी कि चलो अगर घर बैठे बैठाये अच्छे खाषे घर का रिष्ता आ रहा है। लडका इकलौता है अच्छी खाषी जायजाद है। लडका भी देखने सुनने में ठीक ठाक है। तो ऐसे मे न करके बाद में वह अकेले कहां कहां वर खोजती फिरेगी। हां कर दिया था।
षादी के वक्त उम्र ही क्या थी। उन्नीस साल। आज कल तो इस उम्र में लडकियां जींस टाप्स पहन कालेज में मटकती रहती है। अपने ब्वायफ्रेड के साथ धौल धप्पा करती हंसती खिलखिलाती। बिंदास चिडिया जैसी। हालाकि उस दौर में इतना खुलापन नही था। फिर भी लडकियां सलवार सूट में कालेज आना जाना षुरु कर चुकी थीं। पुरुष सहपाठियों से हल्के फुल्के मेलजोल को थोडे बहुत विरोध से सहमति मिल ही जाती थी। पर उसे तो इन सब बातों को मौका ही कब मिला।
मांग मे सिन्दूर भर कर कालेज जाना और कालेज मे भी रीतेष का साथ होना। चौबिसों घ्ंाटों के साथ मे रीतेष भी खुष रहता। उसे लगता जैसे बच्चे को उसके पसंद का खिलौना मिल गया हो। और वह उससे दिनरात खेल रहा हो। वह उसके इस प्रेम को देखती और खुष होती। धीरे धीरे उसे लगा यही तो प्रेम है। वह रीतेष के साथ हंसती खिलखिलाती। पर कहीं न कहीं मन मे उसे रीतापन सा व्याप्त रहता लेकिन वह इस बात को मन से झटक देती उसे लगता हो सकता है वह ही ठीक से न समझ पाती हो अपने आपको।
संध्या विचारों में और गहरे उतर पाती कि बीबी की आवज से वह चौक गयी। घडी की तरफ देखा षाम के पांच बज चुके थे। बीबी ‘मॉ’ की चाय का वक्त हो चुका था। उसी के लिये आवाज दे रही थी।
संध्या ने जल्दी जल्दी एक कप चाय बीबी के लिये दूध वाली बना कर दे आयी और फिर अपने लिये एक कप बिन दूध की नीबू वाली काली चाय बना के फिर से अपनी खिडकी के पास आ कर बैठ गयी। खिडकी के षेड से पानी की बूंदे थम थम के गिर रही थी।
मन ही मन वह भी तो बूंद बूंद रिस रही रही है अपनी यादों में अपने सूने पन में अपनी उन इच्क्षाओं को लेकर जिसे वह कभी समझ ही नही पायी कि वे क्या इच्क्षाऐ हैं।
हो सकता है इसका मौका ही न आया हो। उसी तरह जिस तरह उसने कंुवारे पन के प्रेम को जाना ही नही।
खैर संध्या अपने माज़ी मे डूबती उसके पहले ही मोबाइल मे एस एम एस फलैष की चमक देखते ही उसके चेहरे पे भी चमक आ गयी। जिसे वह चाह के भी नही रोक पाती। हालाकि उसे खूद पे भी आर्ष्चय होता कि ऐसा क्यूं।
मगर यह सब सोचना भी वह बाद के लिये मुल्तवी करके मोबाइल के एस एम एस को पढने लगी।
‘इक सपना ..... किसी अपने से मिलना
इक इत्तिफाक ... आपका हमारी जिंदगी में आना
इक हकीकत ... आपसे दोस्ती होना
इक तमन्ना ..... इस दोस्ती को ज़िदगी भर निभाना
गुड़ इवनिंग .....
संध्या के चेहरे पे मुस्कुराहट फैल गयी।
औरत एक नदी है।
स्ंाध्या ने कुछ देर तक तो खिड़की के बाहर उडते परिंदो को देखा, उनकी चहचह सुना, तितलियों को फूलों पे मंड़राते देखा, बारजे से टपकती बारिस की बूंदो को देखा। फिर होैले से बाहर के सारे द्रष्य छोड गुनगुनाती हुयी ड्रेसिंग टेबल के सामने खडी हो गयी।
अपने आप को सी एफ एल की दूधिया चांदनी में देखने लगी। अपने ही चेहरे को देख कर षरमा गयी। उसे लग ही नही रहा था यह वही संध्या है।
उसे लगता वह आजकल रोज रोज बदलती जा रही है। चेहरे पे रोज रोज निखार आ रहा है। इस उम्र में अपने अंदर के परिवर्तन को देख देख खुद न समझ पा रही थी। यह भावनाएं मन के किस कोने में दबी ढ़की थी जो अब उभर रही हेै।
जैसे जलने के पहले ही बुझ गयी थी उपले की आग थोडा कुरेदते ही फिर से लहलहाने के लियो व्याकुल हो रही हो।
लेकिन इस आकुलता व्याकुलता में भी उतावला पन कहीं न था अगर हो भी तो वह किसी मैदानी इलाके में मंथर गति से बहती नदी की तरह अंदर ही अंदर से हरहरा रही थी।
क्या कोई मैदानी इलाके की मंथर गति से बहती नदी को देख कर अंदाजा लगा सकता हेै कि यह पहाडी नदी अपने उदगम पे कितनी षुभ्र, और उज्जवल थी जिसे इस मैदान पे आने आने तक न जाने कितने पत्थर दिलों को चीरना पडा होगा न जाने कितनी चटटानों पर षिर पटकना पडा होगा, न जाने कितने अवरोधों को पार करना पडा होगा न जाने कितने पेड पौधेां व झुरमुटों को अपने अंदर ही अंदर बह जाने दिया होगा। न जाने कितनी बार अपने आप को मैली होने से बचाना पडा होगा। तब जा कर मैदान में आकर मंथर गति से बह पा रही है। पर अभी भी तो लोग सतह ही देख रहे हैं क्या किसी ने देखा कि उसके अंदर भी लहरे अभी भी मचल रही हैं अभी भी उसके अंदर गति करने का माददा है अभी भी वह नदी ही है जो हरहरा सकती है अपनी पूरी स्निग्धता व भव्यता के साथ। पर नही कोई भी तो नही है जो उसके अंदर की हिलोरों को महसूस करता जो भी मिलता वह बस नहा के अपने आपको तरोताजा करने की नियत से ही पांव पखारने की कोषिष की। खैर अब तो वह किसी की भी परवाह नही करती। परवाह करने का यह मतलब नही, वह किसी को दुख देना चाहती है। हालाकि वह किसी को दुखी कर भी नही सकती। यह उसकी फितरत में ही नही है।
फिलहाल जलजले के बाद उसने अपने जीवन व बच्चों के बारे मे जो जो भी सोचा वह हो जाने के बाद, सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद जब कि महज जलजले की स्म्रतियां ही षेष है। वह अपने जीवन को अपने तरीके से जी रही है। होैले हौले बहते हुए। अपने अंदर की लहरों को देखते हुए।
फिलहाल जबकि बच्चे अच्छे से विदेषों मे जाकर षेटेल हो चुके हैं अपने अपने परिवार व बिजनेष में खुष रहने लगे।
तब जाकर उसने अपने आपको अपने तक सीमित कर लिया। अब तो उसने अपनी सारी दुनिया अपने कमरे मे ही सजा ली है।
मॉ को समय समय से नाष्ता खाना व दवाई दे कर उनका टी वी चला देती और फिर वह अपने कमरे मे अपने आपको कैद कर लेती। फिर बहती मंथर गति से हौले हौले। बस तब वह बस बहती बहती ओर बह रही होती है। अपने अकेलेपन में अपने माज़ी में अपनी कल्पनाओं में अपनी कविताओं और पंेटिग्स में। कभी कभी मन बहलाव के लिये नेट पे बैठ बच्चेंा से चैट कर लेती और हालचाल भी ले लेती। और फिर कभी खिडकी पे बैठ हरसिंगार की पत्तियों के पीछे से झांकती लम्बी खाली सपाट सडक को देखती। जिसमें इक्का दुक्का रहगुजर ही कभी कभी दिखाई पडते।
उस दिन वह जब पेंटिग करते करते उब गयी तब नेट पर किसी साहित्यिक अंर्तजाल पे जाकर किसी नयी रचना को पढ़ना चाह रही थी कि एक कहानी का षीर्षक देख नजरे रुक गयी। ‘पहाड़ और नदी’ जिसमें नायक नायिका से कहता है।
‘सरिता ! तुम अब एक ऐसी नदी हो जो मैली हो चुकी हैं जिसमें डुबकी लगाने का मतलब यह हेै कि अपने आप को मैला करना’
तब नायिका बिफर कर कहती है।
‘हां हां अब तो मै मैली हो ही गयी हूं पर इसे मैली करने में भी तो तुम्हारा ही हाथ रहा है। हां यह ठीक है कि तुम्हारे पहाड जेैसे व्यक्तित्व के आगे मेरी जैसी पहाडी नदी का क्या अस्तित्व। तुम्हारे अंदर तो न जाने कितनी नदियां बहती रहती हैं। पर यह भी जान लो अगर तुम्हारे पत्थर से दिल में मै न बहती तो तुम पत्थर ही रहते जिसमे कोई आर्कषण न होता। वह तो हमारी जैसी नदी के बहने से ही तुम इतने जीवंत हो तुम्हारे सीने पे जो इतनी हरियाली है वह हमारी जैसी नदी की ही वजह से है। वर्ना तुम तो पत्थर हो जिसमें कोई आर्कषण नही होता अगर हरियाली न होती तो कोई तुम्हे पूछता नही। और फिर अगर मैली हुयी भी हूं तो उसका कारण तुम्ही हो। क्या तुमको नही मालूम कि जब षुरु में मै कितनी पावन व पवित्र थी यह मै नही तुम ही कहा करते थे। पर अगर इसे तुमने अपने ही सीने में बहने दिया होता अपने ही अंदर लहराया दुलराया होता तो मुझे क्या जरुरत थी तुम्हारी बाहों से निकल कहीं और बहने की। तब तुम्ही तो पत्थर बने रहते थे जिसे तुम अपनी तटस्थता और और ज्ञान मान तने रहते थे। क्या तुमने कभी मेरी कोमल भावनाओं को समझ मेरे संग कलकल किया कभी भी मेरे अंदर जंगल से बह आये झाडियों और गुल्मो को बहने से क्यों नही रोका । तब क्यों बह जाने दिया और तब तुमने क्यों नही उन्हे रोका जो मेरी खूबसूरती से प्रभावित हो अपने गंदे पांव पखारतने की कोषिष करते तब तो तुम मौन बने थे। आज तुम्ही मुझे दोष दे रहे हो। ठीक है तुम पुरुष हो। कठोरता व स्थिरता तुम्हारा प्रक्रितिगत स्वभाव है कोमलता और बहना मेरा। पर यह जान लो चाहे मै जितनी मैली हो जाउं पर एक न एक दिन सागर में विलीन हो कर पूर्णत्व को पा ही लंूगी पर तुम तब भी इसी तरह इसी जगह खडे रहोगे धूप व ताप सहते हुये किसी और नदी को
दोषी ठहराते हुये।’
यह कहानी पढ कर बहुत देर तक वह रोती रही। और फिर रहा न गया तो उस कहानी के लेखक को मेल कर ही दिया।
प्रभात जी,
अभी अभी, नेट पर आपकी कहानी ‘पहाड़ और नदी’ पढी। खाषी भावुक व मन को छू लेनी वाली कहानी लिखी है। किसी पुरुष के द्वारा स्त्री के पक्ष में लिखी यह कहानी अंर्तमन तक हिला गयी। एक अच्छी रचना के लिये आप बधाई के पात्र है।
लेकिन क्या बात है इसके बाद आप की कोई रचना नही आयी।
यदि हो तो वह कहां व कैसे उपलब्ध हो सकती है।
स्ंाध्या
दूसरे ही दिन एक छोटा सा जवाब मेल बाक्स में नमूदार हुआ।
संध्या जी,
आपको मेरी कहानी अच्छी लगी। जान कर प्रसन्नता हुयी।
रही आपके प्रष्न की कि मेरी दूसरी रचनाएं क्यों नही आयी।
इस संदर्भ में मात्र इतना ही कहना चाहूंगा कि लेखन मेरा व्यवसाय या मिषन नही।
षौक है। लिहाजा जब तक कोई विचार अंदर तक हिलाता या भिगोता नही तब तक मेरी कलम चलती नही। लिखने के लिये लिखना आदत नही।
पर ऐसा नही कि इसके बाद लिखा नही थोडा बहुत जो भी लिखा उसे अपने तक ही सहेजे हूं। वेैसे भी मुझे छपास की कोई बहुत ज्यादा ललक कभी रही नही।
लेखन मेरे लिये एक रेचन की तरह है जिसके बाद मै अपने को हल्का कर लेता हूं। या कह सकती हैं स्रजन मेरा स्वांतह सुखाय कर्म है।
फिलहाल मै आप को अपनी एक और कहानी भेज रहा हूं।
यदि आपको पसंद आती है तो यह मेरा सोैभाग्य होगा।
प्रभात
उसके बाद से रचनाआंे और पत्रों का एक सिलसिला ही निकल पडा।
उसके बाद फोन पे बातों ने नदी के लिये एक नये और अंजानी मंजिल का रास्ता खुलता गया जो उसकी नदी की मंथर गति में होैले हौले गतिषीलता देता जा रहा था।
अचानक उसे खयाल आया एस एम एस का तो उसने जवाब ही नही दिया। पर इस वक्त वह इस मेल का जवाब देने की जगह बात करना ही उचित समझा।
संध्या की नाजुक उंगलियां मोबाइल के मुलायम की पैड़ पर खेलने लगीं।
बाहर अभी भी हरसिंगार की पत्तियों से व खिडकी के षेड़ से बूंदे गिर रही थी। जो नियॉन बल्ब की दूधिया रोषनी में चमक रहे थे।
संध्या की हंसी उसमे जलतरंग सा बज रही थी।
पहाडी बरसाती काली रात आज भी कालिमा से व्याप्त थी पर न जाने क्यूं उसे आज उतनी भयावह न लग रही थी। उस कालेपन में एक कोमलता व गहराई अनुभव कर रही थी। मन हौले होेेैले मस्ती में डूबना चाह रहा था दो चार दिनों में ही आये अपने अंदर के इस परिवर्तन को वह समझ तो रही थी। रोकना भी चाह रही थी पर न जाने मन देह व दिल दोनेा जीवन भर की आदत व तपस्या का संग साथ छोड रहे थे। पर वह उसी भाव में तो बहना चाह रही थी। मन की एक एक लहर को गिनना व जीना चाह रही थी। लिहाजा रात का खाना मॉ को खिला के खुद खा के अपना पसंदीदा टी वी सीरियल भी देखना छोड नेट पे आ बैठी षायद कोई नयी मेल आयी हो। मेल बाक्स ढेर सारी जंक और बेकार मेलों से भरा पडा था जिसे वह एक एक कर डिलिट करती जा रही थी। उसी मे वह मेल भी थी जिसमे उसने अपने बारे में लिखा था।
संध्या जी,
तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिष और बारिष व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।
उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखा है। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां ंजंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। षेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस षावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।
ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैेला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी षिकवा षिकायत के अपने उपर नुकीली पत्त्यिांे का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोषनी से ही कुछ जल कण चुरा लेते हैं। और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं। ंऔर सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नषा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नषीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह। ी
प्रभात
नोट ...आपको तुम लिखने के लिये क्षमाप्रार्थी हूं। पर इस खत में आप से अपनापन नही आ रहा था। इसलिये यह गुस्ताखी की है। उम्मीद है आप मॉफ करेंगी।
इस खत को पढ कर कितना उदास हो गयी थी काफी देर तक रोती रही थी।
संध्या ने खत को आज भी पूरा का पूरा पढ गयी। ?
उदासी एक बार फिर उसके वजूद में पूरा का पूरा घिर आयी।
बाहर काली रात अब और काली हो चुकी थी। बारिष की बूंदे तेज और तेज हो कर खिडकी के षेड से अब बंूद बंूद की जगह धार से बहने लगी थी। हर सिंगार का पेड भी पानी से तरबतर हो रहा था खुले आकाष के नीचे।
संध्या के अंदर भी कुछ बह रहा था। पहले धीरे धीरे फिर जोर जोर ...
पापा के न रहने पर भी मॉ ने षादी मे कोई कोर कषर न छोडी थी वह नही चाहती थीं को बेटी को कहीं से यह अहसास हो कि उसके पापा नही है। और उधर रीतेष के घर वालों ने भी तो कोई कोर कषर न छोडी थी अपने हिसाब से जो भी अच्छे से अच्छा बन पडा किया। करते भी क्यूं न उनके एकलौते लडके का ब्याह जो हो रहा था। और बहू भी तो चॉद जैसी थी। सबसे बडी बात लडके को पसंद थी। सब कुछ कितना षौक से हुआ था। वह भी उस खुषी मे षामिल थी। उसे भी सब कुद अच्छा अच्छा लग रहा था।
दो चार दिनों मे ही तो उसने ससुराल के हर एक का मन मोह लिया था। जो भी आता उसकी तारीफ किये बगैर न रहता। सभी उसके रुप और गुण दोनो की तारीफ करते न अघाते।
और करते भी क्यों नही क्या नही था उसके पास सुंदर तो थी ही पढने लिखने मे भी अच्छी थी गाना बजाना उसे आता था। स्वभाव भी उसका सबके प्रति प्रेमपूर्ण था। रीतेष तो उसके प्रेम में पागल थे ही। पीछे पीछे उसके डोलते रहती। जहां वह जाती वहीं वह भी रहती। साथ सोना साथ जागना साथ साथ कालेज जाना। बी ए के अतिंम वर्ष में ही तो विवाह हो गया था। फिर एम ए मे दोनो ने एक साथ ही दाखिला लिया था। अब तो कालेज भी एक साथ जाना आना होता।
रीतेष सितार अच्छा बजाते जब वह बजाते तो वह गाया करती। दोनो की जोडी अच्छा समां बांधती। दोनेा कबूतर कबूतरी से हर दम गुटर गूं गुटर गूं करते रहते। हालाकि इतने ढेर सारे सुखों के बीच में भी संध्या के दिल में कहीं न कहीं एक खलिष की हल्की हल्की लहर कभी न कभी नदी की तलहटी से उपर आ ही जाती उसे लगता कि क्या यही प्रेम है क्या इसी के लिये लडकियां परेषान रहती है। वह अक्सर अपने आप से पूछती पर उत्तर न मिलता। तो वह फिर रीतेष की बाहों में अपना गौराया सा चेहरा दुपका के सो रहती।
झील सी गहरी ऑखों का मीठा मीठा पानी कसैला हो गया।
झील सी गहरी
ऑखों का
मीठा पानी
चेहरे के नमक से
घुलमिल कर
बरसा
और पानी
कसैला कसैला
सा हो गया
नदी गोमुख से निकल पहाडों पे कल कल कर रही थी अपनी पूरी भव्यता और सुंदरता के साथ।
संध्या की झील सी ऑखें हर समय झील से लहराती रहती। रीतेष ही नही जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। जो कोई भी देखता बिना रीझे न रहता। हर कोई कहता।
रीतेष की बहू बहुत सुन्दर है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा गाती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बोलती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बतियाती है। रीतेष की बहू तो की बोली बानी तो बिलकुल कोयल सी है। रीतेष की बहू पढने लिखने भी बहुत होषयार है। रीतेष की बहू रीतेष की बहू। जिसे देखो वही रीतेष की बहू के गुणगान में लगे रहते। वह भी मस्त और मगन कोयल सी कुहुकती व चिडिया सी फुदुकती रहती। खुष खुष। पर उसे यह तनिक भी अहसास न हो रहा था कि उसकी जितनी भी तारीफ होती है उतना ही मन का कोई कोना रीतेष के अंदर टूटता है। उसे लगता कि षायद संध्या के आगे तो उसका वजूद चुकता जा रहा है। वह उसकी दीप्ति के आगे छिपता जा रहा है।
अंर्तमुखी रीतेष के व्यवहार ने संध्या को यह अहसास ही न होने दिया कि इनफियारिटी कॉम्पलेक्स की कोई गांठ रीतेष के अंदर बन रही है। वह तो उनकी चुप्पी को उनका स्वभाव समझती और उन्हे ज्यादा से ज्यादा खुष रखने की कोषिष करती।
वह उन्हे जितना खुष रखने की कोषिष करती रीतेष उतने ही गुमसुम्म हो जाते और चुप हो जाते पहले तो दो चार दिन में फिर से सामान्य हो जाते पर उनका यह गुमषुम पना अंदर ही अंदर क्या गुल खिला रहा है। जब तक उसे पता लगता लगता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब तक जीवन का बसंत कब बारिस के मौसम मे बदलता गया जो धीरे धीरे तूफान में बदला अैार तूफान एक ऐसे जलजले में बदल गया जिसमें सब कुछ बह गया। जिसे संवारते संवारते आज इस किनारे पे आ लगी है। जहां साथ देने को सिर्फ है तो मॉ है जो उसकी जननी है।
पर फिलहाल यह सब सोचते सोचते उसे भी काफी देर हो चुकी थी। बाहर धुंधलकी बरसाती षाम कब काली अंधियारी रात में बदल गयी उसे पता ही न लगता अगर मॉ ने चाय व दवाई के लिये आवाज न दी होती।
...
रीतेष के जिस घुन्नेपन को वह उसका स्वभाव समझती उसके पीछे कितना घिनौना चेहरा छुपा है उसे धीरे धीरे पता लगता गया। पहले तो उसकी और मीना और उसके मेल जोल को मोैसेरे भाई बहनों का स्नेह समझती कोई ज्यादा ध्यान ही न दिया पर बाद में उसे पता लगा कि उनलोगों को रिस्तो की पवित्रता का कोई अहसास नही है। वे दोनेा तो भाई बहन के इस पवित्र रिस्ते के पीछे इना घिनौना खेल खेल रहे थे कि सुन के ही उसे उबकाई आ गयी। जिस दिन पहली बार इस बात का पता लगा वह विष्वास ही न कर पायी कि दुनिया में एसा भी हो सकता है और उसी के साथ हो सकता है ।
रीतेष और मीना को एक साथ आपत्तिजनक अवस्था में उसने खुद देखा। उस दिन उसके षरीर में फिर गंदे कीडे रेंगने लगे जिनसे निजात पाने के लिये वह कितना रोयी थी कितना तडपी थी यह उसकी आत्मा ही जान सकती है या वह खुदा जिसने उसे बनाया है।
इतने बडे आघात को वह महज इस लिये सह गयी कि अब तक वह फूल सी बच्ची व एक बेट की मॉ बन गयी थी। अब सवाल सिर्फ उसकी जिंदगी का ही नही रह गया था इन बच्चों का भी जीवन उसके व रीतेष के साथ जुड गया था।
और फिर वह पिता के न रहने का दर्द अच्छी तरह से जानती थी। इसलिये वह कोई ऐसा कदम नही उठाना चाहती थी कि उसकी बेटी को बाप को प्यार न नसीब हो। इस लिये उसने अपने सीने पे पत्थर रख कर भी रीतेष व मीना के घिनौने संबंध को स्वीकार कर लिया था। पर अब जब भी रीतेष उसे छूते तो वह तडप उठती लगता कि रीतेष के हाथ नही गंदगी से लिथडे हाथ हेैं जो गंदे कीडों सा षरीर पे रेंग रहे हैं पर वह उन गंदे कीडों को भी बरदास्त कर गयी। जब रीतेष ने रो रो के मॉफी मांगी थी और मॉफ न करने पर मर जाने की धमकी दी थी। । पर उसका मासूम मन तब भी नही समझ पा रहा था कि यह कसम भी उसी तरह की झूठी कसम है जिसे उसने षाादी के पहले खायी थी।
संध्या रोती जा रही थी और इन सब बातों को सोचती जा रही थी। उसके अंदर की एक एक लहर बह रही थी।
रीतेष माफी मांगने के बाद बहुत दिनो तक षर्मिंदा न रह सके कुछ दिन बाद उनकी मीना के साथ फिर वही रासलीला षुरु हो गयी। बस फर्क इतना था कि अब यह खेल थोडा ज्यादा ही लुका छिपा के खेला जाता पर यह लुकाव छिपाव भी ज्यादा दिन न चला उजागर हो ही गया।
लिहाजा इस बार संध्या ने कुछ कहा तो नही। बस रीतेष को अपने पास न फटकने देती।
वह उनके साथ रह के भी न रहती । उनको चुपचाप खाना दे देती। सारा काम कर देती जैसे वह उनकी नौकर हो।
वह बिलकुल टूट चुकी थी पर सास का स्नेह व ससुर का वरदहस्त ही था जो उसे सम्हाले हुआ था। वर्ना फूल की यह डाली तो टूट ही गयी थी।
सोचते सोचते संध्या की आंखें सावन भादों बन बरसन लगी। बाहर बादल भी पूरी जोर से बरस व गरज रहा हो मानो वह भी इस वक्त संध्या के दुख से दुखी हो गया हो।
वह न जाने कितनी देर और रोती रहती अगर मोबाइल की घ्ंाटी न बजी होती। उसने झट ऑखें पोछी और, हैंडसेट की लाइट में प्रभात का नाम चमक रहा था।
मौसम अपना मिजाज रोज रोज बदल रहा है। दो दिन पहले तपन थी कल बादल छाये थे और आज बारिस।
ऐसे ही संध्या का मन भी रोज रोज बदल रहा था। वह अपने अंदर आये इस बदलाव से पूरी तरह वाकिफ थी। पर बेबस थी इस बार उसकी इच्छा षक्ति काम न दे रही थी। ऐसा नही था इतने दिन की एकाकी यात्रा में कोई ऐसा रहगुजर न मिला हो जिसके साथ बैठना बोलना अच्छा न लगा हो। पर हर बार दो चार मुलाकातों में ही अपने घिनौने हाथ पैर पसारने षरु कर देते। देह में घिनौने कीड़े रंेगने लगते। जो मन तन को गंदा ओर वीभत्सता से भर देते और वह घोर वित्रषणा से भर उठती। पता नही षायद वही वित्रषणा रही हो या कि कोई ओर अन्जाना कारण उसके अंदर गांठ के रुप में पलता बढता गया जो आज इस रुप में उभर आया है। जब वह किसी भी व्यक्ति और वस्तु को छूना उसे गंवारा नही होता। हर चीज व वस्तु जब तक दो तीन बार धो के साफ नही कर लेती उसे लगता यह चीज गन्दी है। हर चीज वह धो पोछ के ही इस्तेमाल करती है। उसकी इसी आदत से निजी जीवन भी बुरी तरह से बाधित होता गया। और वह धीरे धीरे और और एकाकी होती गयी। इधर दो तीन सालों में जब से बच्चे अपने अपने स्थानों में गये, तबसे तो घर में ही कैद हो के रह गयी है। जहां सिर्फ वह है और मॉ। मॉ का काम धाम करके बस दिन भर साफ सफाई में ही लगे रहना उसका षगल बन गया उसे लगता हर एक चीज मैली है गन्दी जिसे छू कर वह भी गन्दी हो जायेगी। कभी कभी तो उसे भिण्डी जैसी सब्जी में भी किसी पुरुष की उंगलियां नजर आती जो उसे छूना और ड़सना चाहती है। इस परेषानी को डाक्टर ओ सी ड़ी कहते हैं जिसका इलाज भी कराया पर कोई खाष रिजल्ट नही आया। अब तो इलाज कराना भी छोड दिया है। इसे भी एकाकी पन की तरह स्वीकार्य कर लिया है।
देह में चिपके कीडों को पहली बार तब महसूस किया था।
महज आठ व नोै साल की खूबसूरत गुडिया । हर वक्त फूल किस खिली खिली। जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। तारीफ किये बिना न रह जाता कह ही उठता संध्या अभी इतनी सुंदर है तो बडी होकर तो किसी राजकुमारी से कम नही लगेगी। यही फूल सी राजकुमारी बंगले के अहाते में खेल रही है। अकेले ही एक पैर पे उचक उचक के अपने आप में ही मगन है। पास ही उससे कुछ बड़ा पर मोट और गबदू सा लडका भी खडा है । बाबर। वह चुपचाप बडी देर तक तो फूल सी बच्ची को देखता रहा फिर पता नही क्या मन में आया कि उसने उसे अपने दोनो हाथों में दबोच के पास के ही गढढे में कूद गया। फूल बेहद डर गयी बाबर उसे दोनेा हाथों से पकडे था। वह घबराहट में रो भी न पा रही थी। पर पता नही कैसे वहां से उठ के भागी और जा कर आई की गोद में दुबक गयी। सबके बहुत पूछने पर भी वह कुछ न बोली उसके साथ क्या हुआ। पर रात सपने मे उसे लगा जैसे उसे बाबर नही किसी बडे से कीडे ने पकड लिया हो। वह सपने में ही घबरा गयी।
षायद तब से ही उसे हर चीज लिजलिजी व गंदी सी लगती कोई भी उसे छूता तो लगता कोई कीडा छू रहा हो।
उसके बाद तो न जाने कितनी बार नजरों के कीडे काटते चले आ रहे है उनसे बचते बचते आज एक उम्र गुजर गयी पर अभी भी कीडों से निजात नही मिली लगता है थोडा सा लपरवाह हुयी और इन कीडों ने देह में रेंगना षुरु किया।
यह सब सोचते सोचते न जाने कब संध्या की खूबसूरत झील से अॅाखें भर आयीं जिसके ऑसुओं को समाज के इन गंदे कीडों ने कसैला कसैला कर दिया था।
र्दद ही र्दद का साया है
र्दद ही र्दद का साया है
कितना घना कुहासा है
प्रभात की गजल का यह षेर संध्या कई बार मन ही मन दोहरा चुकी है। हालाकि यह सच है कि कभी उसकी जिंदगी के लिये यह बात सही रही होगी पर आज उम्र के इस मुहाने पे यह बात पूरी तरह से नही कहा जा सकता है। अब तो सब कुछ निपट चुका है। बच्चे सेटल हो चुके हैं उनकी षादी हो चुकी है अपने अपने घर मे खुष हैं प्रसन्न हैं। जिंदगी एक ढर्रे पे चल रही रही है। यह अलग बात है कि तन्हाई मे आज भी वह खलिष जो वह रीतेष के साथ रहने पर भी महसूस करती थी वह आज भी है और अब तो कुछ गाढी हो के उभर आयी है। या हो सकता है की गाढी तो पहले से ही रही हो पर इतनी षिददत से सोचने का मौका न मिला हो।
संध्या ने रोजमर्रा के काम समाप्त किया। मॉ को दवाई और दलिया खिला दिया जो लेटी लेटी झपकी लेने लगी तो वह भी अपने लिये नीबू की चाय बना के खिडकी पास ही कुर्षी लगा के बैठ गयी। बाहर गुलमोहर रोज सा अपने आप मे हौले हौले हिल रहा था। काली लम्बी सूनसान सड़क दूर तक पसरी थी जो कभी कदार एक आध मुसाफिर के आवागमन से कुछ देर को गुलजार होती और फिर उसी सन्नाटे मे पसर जाती। संध्या की जिदगी भी तो किसी पॉष कालोनी की दोपहर की सूनसान सडक ही तो है। जहां दिन मे एक दो बार बच्चों के फोन कॉल या फिर मॉ की दवाई और दर्द की कराहों के सिवाय कोई हलन चलन नही है।
गुलमोहर के पेड के साथ साथ उसका साया भी हौले हौले हिल रहा था। इस हलन चलन को देखते देखते संध्या को अपने बदन पे फिर से कीडे रंगते महसूस होने लगे। वह बेचैन होने लगी। कीडे एक बार फिर उसकी स्म्रतियों मे रेंगने लगे।
रीतेष अपनी आदतो मे सुघार करना ही नही चाहते थे। कई बार लडाई झगडा और समझौता हुआ पर कुड दिन बाद फिर वही हरकते वह उब चुकी थी काफी अंदर तक टूट चुकी थी। हालाकि सासू मॉ और ससुर का उसके प्रति प्रेम बना था और वे खुद अपने बेटे को ही गलत कहते थे। पर इन सब बातों से उसे तसल्ली नही हो रही थी।
अंत मे उसने इस रिस्ते से भी समझौता कर लिया था अपने बच्चों की खातिर पर रीतेष दिनो दिन और ज्यादा घुन्ने होते जा रहे थे। इसी बीच जब उसके काम और मेहनत से खुष हो के युनिर्वसिटी ने उसे अपने डिपार्टमेंट को हेड बना दिया तो इस बात ने रीतेष के अंदर की हीन भावना को और मजबूत कर दिया जिसकी पूर्ती वह दूसरी औरतों को अपनी ओर आकर्षित करके अपनी मर्दानगी का सबूत देने और अपने आप को बेहतर साबित करने की नाकाम कोष्षि करते ।
रीतेष केे एक और औरत से उनके सम्बंध हो गये थे। इस बात ने उसे पूरी तरह से झकझोर दिया और फिर जो होना था वही हुआ।
वह अपने बच्चों को ले के अपने घर चली आयी।
पिताजी के जाने के बाद भी मॉ उतनी टूटी न थी जितनी वह आज उसके वापस आ जाने से हुयी थी। पर मॉ बहुत मजबूत कलेजे की थी उसने उसे ढाढस बंधाया और अपने काम काज मे लग गयी। और उसने भी अपने को मॉ की तरह अपने को नौकरी और बच्चों के बीच खपा दिया सुबह से षाम तक सोचने की फुरसत ही न मिलती जिंदगी नौकरी और बच्चों के बीच डोल रही थी।
देह मे रेंगते कीडे इस अंतहीन दर्द के साये मे जाने कहां लुक छिप गये थे। पर .....
देव साहब लम्बा चौडा भव्य षानदार व्यक्तित्व कालेज के प्रिसिपल जिन्हे वह पिता तुल्य समझती जिनके आचरण और व्यवहार मे भी वही भव्यता छायी रहती पर इस भव्यता और आर्दष की परतें धीरे धीरे उतरती गयीं किसी पुराने बर्तन की कलई जैसे।
संध्या उस कालेज के स्टाफ की षान थी स्अूडेंटस के बीच भी काफी लोकर्पिय थी अपनी खूबसूरती के कारण अपनी विदवता के कारण अपने व्यवहार के कारण पर उसके सारे गुण ते उसकी खूबसूरती दबा देती। हर प्रोफेसर हर स्अूडेंट उसके नजदीक आने के चाह रखता पर उसकी कोमलता मे भी छुपे ध्रण निस्चय को देख के कोई हिम्म्त नही करता था अपनी सीमा रेखा के बाहर आने का।
उन सब लोगो की तरह देव साहब भी उसके आकर्षण से अछूते न रहे और एक दिन अपनी असलियत दिखा ही दी। एक दिन जब एकांत पाकर प्रधय निवेदन करते हुए छूने की कोषिष की तो वा संयम से काम लेती हुयी बहाना बना के आफिस के बाहर आयी और फिर दोबारा कालेज लौट के नही गयी गया तो उसका इस्तीफी ही गया। बाद मे उन्होने बहुत मनाने अैर सफाई देने की कोषिष की पर संध्या टस से मस न हुयी।
पर इस हादसे के बाद उसके अन्दर पुरुष जाति की नफरत के कीडे एक बार फिर कुलबुलाने लगे और दिन रात षरीर मे रंेगने लगे। नौकरी छूटने की चिंता बच्चों का भविष्य और मरदों की करतूतें उसे अंदर तक तोड डाल रही थी।
पर उसने अपने को एक बार फिर संभाला इत्तफाक से उसे एक दूसरे कालेज मे दूसरे षहर मे फिर उसी स्टेटस की जॉब मिल गयी।
उसने बच्चों को लिया और फिर एक नयी मंजिल की ओर चल दी।
मगर इन सब हादसों का नतीजा हुआ उसके मन की कोमल धरती सूखती गयी सूखती गयी उसकी खूबसूरत आखों के आंसुओं की तरह।
जमाने के कामुक कीडों ने न जाने तो कितनी बार उसे काटना चाहा छूना चाहा नोचना चाहा पर न जाने कौन उसकी अंदरुनी ताकत थी कि वह किसी न किसी तरह बच ही जाती पर वह इन कडीें के मानसिक डंकोे से न बच पायी और उसका ओ सी डी बढता ही गया दिनो दिन और अब हर चीज मे गंदगी ढूंडती अपने हाथ दिन मे कई कई बार धोती कभी डिटाल से तो कभी गरम पानी से और कोई उसको छू लेता तो वह उसके जाने के बाद या घर आने के बाद तुरंत कपडे धोती और नहाती ताकि उसके कीडे पानी मे बह जायें और वह फिर साफ सुथरी हो जाये पर वह जितना ही अपने आप को सफ सुथरा रखने की कोषिष करते ये कीडे अैार और और तेजी से रेगने लगते। उसकी इस आदतों से बच्चे भी परेषान होने लगे थे।
पर वह मजबूर थी अपने आप को समझाने मे।
एक ओर जहां उसकी यह ओ एस डी की बीमारी बढती जा रही थी वहीं उसके मन की धरती भी सूखती जा रही थी पपडियाती जा रही थी।
संध्या अपनी इन स्म्रतियों मे जाने कितनी देर तक डूबी रहती अगर उसे मॉ की आवाज न सुनायी देती पानी देने के लिये।
इधर वह मॉ को पानी देने के लिये उठी उधर बाहर सूनी सडक पर धूल का गर्म गुबार उड रहा था जिसके कारण गुलमोहर की पत्तियां और हिल रही थी। और उसका साया भी हिल रहा था।
पता नही यह गुलमोहर का साया था या संध्या के दर्द का साया था ?
सूनसान जंगल मे चुपचाप बहती रही।
सूनसान जंगल मे गुपचुप बहती रही
वह नदी थी रास्ता खुद चुनती रही
जीवन के जंगल मे चुपचाप बहती रही बहती रही। रात बीतती रही दिन गुजरते रहे।
मॉ के पर्वत जैसे व्यक्तित्व और साये से जब निकली तो उसका जीवन किसी नयी नदी सा ही तो षुभ्र और उज्जवल था मन मे भावनाओं की लहरें कुलाचें मारने लगी थीं जो षायद पिता के न रहने की कमी से मन मे अंदरी ही अंदर हरहरा रही थीं पर उपर से षांत थी। रीतेष ने भी तो अपनी भूजाओं मे बांध बहने दिया था अपनी तरह से उफनते दिया था बहने दिया था और तब वह कितनी मगन थी कितनी खुष थी। लेकिन जिंदगी की राह मे न जाने कितनी बडी बडी चटटाने न जाने कितने बडे बडे रोडे आये जिनसे तो कई बार लगा भी कि अब वह कहां जाये क्या करे पर वह तो नदी थी अपना रास्ता खुद बनाना जानती थी। अपनी तरलता से कभी उन चटटानों के बगल से खुद को बह जाने दिया और जो छोटे मोटे कंकड पत्थर आये उन्हे बहा के दूर कहीं फंेक दया। वह निर्बाध रुप से बहती रही बहती रही।
वह नये षहर मे आके एक बार फिर अपने को सेटल कर लिया बच्चे स्कूल जाने लगे जिंदगी ढरें पे चलने लगी। वह सुबह से षाम तक अपने को कभी कालेज के काम मे तो कभी घर के काम मे उलझाये रखती।
दीन बीतते रहे जिंदगी बहती रही हौले हौले गुपचुप गुपचुप।
बेटी ने अपनी पढाई पूरी की नौकरी की और अपने एक कुलीग से षादी करके विदष षेटल हो गयी। एक दो सालों मे बेटा भी वही जा के षेटल हो गया वहीं षादी कर ली।
हालाकि वह अपने प्रेम विवाह का हश्र देख चुकी थी फिर भी उसने बच्चों के निर्णय मे कोई आपत्ती नही जतायी। उसका विचार है कि हर एक को अपना जीवन अपने तरीके से जीने का पूरा अधिकार मिलना चाहिये।
आज दोनो बच्चे अपने अपने परिवार मे खुष हैं प्रसन्न है।
दिन बीते साल बीते मॉ रिटायर हो के उसके पास चली आयी । और जाती भी कहां मॉ का उसके सिवाय और कोई था भी तो नही वही तो इकालौती संतान थी।
मॉ और बेटी दो लोंग बस। घर मे कोई ज्यादा काम होता नही दोनो मॉ बेटी अपने लिये मिल जुल के पका लेते और काम काज कर लेते न कोई किच किच न कोई परेषानी हॉ। सिवाय इस बात के भी की इस पकती उम्र मे भी कुछ पके और कुछ उससे कम उम्र के लोग भी उसे अकेला जान के पास आने की कोषिष करते । कई बार उसे भी लगा कि वह कुछ टूट रही है पर जब भी मर्द उसके नजदीक आता तो उसके षरीर मे कीडे रेंगने लगते और इस तरह से रेंगने लगते कि वह घबरा के उस व्यक्ति से दूर हो जाती और फिर अपने एकाकी राह मे मंधर गति से बहने लगती बिना किसी हलन बिना किसी चलन।
फिर नदी गुनगुनायी एहसास की
यूं तो जिंदगी की नदी मे तूफान और भंवर आते ही रहे हैं। पर इधर वालेंटरी रिटायरमेंट के बाद से और बच्चों के सेटल हो जाने के बाद उसकी जिंदगी किसी जंगल की षांत नदी सा बह रही थी बिना किसी हलन बिना किसी चलन। ओर न जाने कितने दिन चलती ही रहती। गर प्रभात से परिचय न होता। हालाकि षुरुआती खतोकिताबत से उसे ये उम्मीद नही थी कि यह सिलसिला इस हद तक बढे जायेगा कि उसके दिल की सूखी और दरककी हुयी धरती पे फिर से एहसासों के बादल बरसेंगे फिर से कुछ भावनाओं के उम्मीदों की कोपल फूटेंगी।
संध्या आज भी अपने रुटीन के काम काज से निपट के खिडकी के पास बैठ निहार रही थी सामने की साफ सुधरी पर सूनी सडक को और निहार रही थी पर इस सूनी सडक को देख कर आज वह अपनी जिंदगी की इस एकाकी यात्रा को नही याद कर रही थी। बल्कि आज वह बाहर लॉन मे लगे मोगरा और जूही के फूलों की मीठी मीठी गमक मे खो जाना चाहती थी।
अपने अंदर के एहसासों की नदी मे डूब जाना चाहती थी जो उसकी बरसों की परती पडी धरती पे जिंदगी के सारे कटु अनुभवों की कठोर चटटानो को तोाड के बह जाना चाहते हैं एक नदी की तरह एहसासों की गुनगुनाती नदी की तरह।
किसी पहाडी नदी सा उचछंखरल तो नही पर मैदान मे बहती एक षांत पवित्र नदी की तरह।
संध्या इन्ही ख्वाबों और खयालों मे डूबी हुयी थी कि मोबाइब पे एक बार फिर प्रभात का नाम फलैष हुआ मोबाइल की धंटी बजी और उसके अंदर जलतरग बज उठी। एक बार फिर षायद पहली बार एहसास की गुनगुनी नही बह उठी बरसों की परती पडी धरती पे ।
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