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Thursday 28 January 2016

तुम जहाँ कहीं भी हो,

जब,
रिश्तों के
ताने बाने बिखर हों
ज़िंदगी
महज़ तनहाई
और सुबहो शाम की
आवारगी रह गयी हो
आफ़ताब
दूर कहीं उफ़ुक पे
मुँह छुपा
सिसक रहा हो
ऐसे वक़्त मे
मेरी अंजुरी में
इक चाँद उगा
जिसमे
चंदन की खुशबू
और रूहानी ठंडक थी
जिसे पाकर मै
बहुत खुश था
चाँद भी मेरी अंजुरी में
खुश था
मै अंजुरी संभाले संभाले
ज़ीस्त के ऊबड़ खाबड़ रास्ते में
चला जा रहा था
चला जा रहा था
न जाने कब
दहकते आसमान से
एक बाज ने झपट्टा मारा
और मेरी हथेली से
मेरे चाँद को ले कर
उड़ गया
दूर गगन में न जाने कहाँ
तब से भटक रहा हूँ
इस बियाबान में
अपने चाँद के लिए

( सुमी , तुम जहाँ कहीं भी हो,
खबर करना, मै तुम्हे उस बाज़
के पंजो से छुड़ाने आऊंगा ज़रूर
ज़रूर - एक दिन, सुन रही हो न मेरे सुमी )

मुकेश इलाहबदी -------------------------

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