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Friday 15 June 2018

आँखों के इस खारे समंदर को क्या कहूँ

आँखों के इस खारे समंदर को क्या कहूँ
तू ही बता बिगड़े मुक़ददर को क्या कहूँ

इधर सिलता हूँ तो, उधर दरक जाती है
मुफलिसी की इस चददर को क्या कहूँ

गर दीवारों की नमी को सीलन कहते हो
तो कमरे के उधड़े पलस्तर को क्या कहूँ 

मुझे तो फूलों ने भी चोट दी है अक्सर
तेरी बेरुखी के इस पत्थर को क्या कहूँ

अगर तेरी ये शोख़ अदाएँ खंज़र हैं तो
तेरी मीठी बातों के नश्तर को क्या कहूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

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