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Sunday, 24 February 2019

जब से आसमान पे पहरे हैं

जब से आसमान पे पहरे हैं
परिंदे भी उड़ान से डरते हैं

अब शेर भालू चिता गीदड़
जंगल नहीं शह्र में रहते हैं

कोइ  दवा काम न आएगी
हमारे ज़ख़्म बहुत गहरे हैं

यहाँ ज़िंदगी कौन जीता है
किसी तरह बसर करते हैं

ईश्क़ रेत् की नदी है हम
इसी में शबोरोज़ बहते हैं

मुकेश इलाहाबादी --------

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