तुम्हारी
खामोशी को
अक्सर,
क़तरा - क़तरा बन के
आँखों की कोरों पे
जमे हुए देखा है
जो न गालों पे लुढकते हैं
न सूखते हैं
हाँ! न जाने किस ग़म की
तपिश से वाष्पित हो
बादल बन उमड़ते घुमडते हैं, और अक्सर उनकी
अदृश्य बूंदों से
मैं भीगने लगता हूँ
रात की तन्हाइयों मे
बहुत बहुत देर तक के लिए
खामोशी को
अक्सर,
क़तरा - क़तरा बन के
आँखों की कोरों पे
जमे हुए देखा है
जो न गालों पे लुढकते हैं
न सूखते हैं
हाँ! न जाने किस ग़म की
तपिश से वाष्पित हो
बादल बन उमड़ते घुमडते हैं, और अक्सर उनकी
अदृश्य बूंदों से
मैं भीगने लगता हूँ
रात की तन्हाइयों मे
बहुत बहुत देर तक के लिए
मुकेश इलाहाबादी,,,,,
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