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Monday 30 April 2012

आखों में जो नीर है

बैठे ठाले की तरंग ----------------
आखों में जो  नीर  है
बहुत पुरानी  पीर है

घाव न ये भर पायेगा
दिल के अन्दर तीर है

कमजोरों पे है वार करें
कलयुग के सब वीर हैं

इल्म न इनको रत्ती भर
पर कहते हम 'कबीर' हैं

मत्ला-मक्ता, फर्क न जाने
पर सब कहते हम 'मीर' हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------

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