Pages

Sunday 17 June 2012

ख़त तुम्हारे गंगा में बहा डाले हैं




ख़त तुम्हारे गंगा में बहा डाले हैं
ख्वाब  हमने  सारे जला डाले  हैं

सब के सब पेड़ शहर के कट गए 
सभी परिंदे गुम्बदों में डेरा डाले हैं 

बोलने  बतियाने  की  आज़ादी रहे
इस लिए  अपने  शर  कटा  डाले हैं


तुम  होते  तो  और बेहतर गुज़रती
तुम बिनभी दिन अच्छे बिता डाले हैं

उसने अपने दामन के फूल दिखाए
हमने भी अपने ज़ख्म गिना डाले हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

No comments:

Post a Comment