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Friday 29 June 2012

श्रीमतभगवतगीता। श्रीमुख से निश्रत गीत

                                                      ओम श्री गणेशाय नमः

                                 

श्रीमतभगवतगीता। श्रीमुख से निश्रत गीत   

आदमी जब मस्ती मे होता है। तरंग मे होता है । आनंद में होता है, या कोई खुशी है, जो समाये नही समाती। तो आदमी गीत गाता है।
वही गीत जव श्रीमुख से निश्रत होता है तो गीता कहाती है। हालाकि श्री तो हमेशा अपनी मस्ती मे ही होते हैं। गीत गाते ही रहते है कोयल की कुहुक मे। झीगुर की सू सूं मे। पेडों की सर सर मे। बच्चों की किलकारियों मे। भक्तो के भजन मे, अनंत अनंत तरह सें पर बात यहां समझाने के प्रयोजन से ही कही गयी है। और यहां बात उस गीत की है जो उन्होने र्धम क्षेत्र कुरुक्षेत्र  मे रणभेरी के संगीत मे गाया गया है  जहां युद्ध के लिये शंखनाद हो रहा है जयकारे लगाये जा रहे हैं। ढोल पखावज म्रदंग बजाये जा रहे है वीर रस के गीत गाये जा रहे हैं योद्धा उत्साह से उमंग से कोलाहल कर रहे है ऐसे वातावरण मे जा गाया गया है अर्जुन से, गीत यानी।
ऐसा अनूठा गीत जो न तो आज तक गाया जा सका है और नही गाया जा सकेगा। कम से कम महाभारत के बाद पांच हजार सालों तक मे तो नही ही गाया जा सका है ऐसा गीत। यानी।
गीता। भगवत गीता।
आज जब हम इस महागीत को गाने के लिये गुनगुनाने के लिये, श्रवण के लिये, रसपान के लिये, मस्ती के लिये इक्ठठा हुए हैं तो चर्चा शुरू हो इसके पहले कुछ बाते साफ हो जायें। कुछ बातें समझ ली जायें तो ठीक होगा।
पहली बात तो यह कि इस चर्चा मे उन लोगों से नम्र निवेदन है कि जिन्हे लगता है उन्हे सब कुछ मालुम है वे इस चर्चा मे इस गीत बंदन मे न भाग ले क्यों कि जिन्हे मालूम ही है तो बात खत्म हो गयी। अब क्या जानना क्या जनाना। लिहाजा वे चर्चा मे कुछ जानने कि नियत से न रुकें।
और अगर जिन्हे यह लगता है कि उन्हे यहां कुछ जानने को मिलेगा वे भी न रुकें क्यों कि यहां कुछ ऐसा नही कहा जायेगा जो उनके लिये नया हो अजाना हो।
और उन व्यक्तियों से भी नम्र निवेदन है जो तर्क वितर्क और सास्त्रर्थ करने कि नियत से आये हैं। क्योकि यह कोई पंडितों की सभा नही है जो किसी सिद्धांत का प्रतिपादन करेगी या खण्डन मण्डन करेगी।
यहां तो मस्तों की महफिल जमेगी जो महज मस्ती मे डोलेंगे नाचेंगे हंसेगे गायेंगे। गीत महागीत।
यानी गीता। भगवत गीता।
एक बात और मस्ती मे डूबने के पहले अगर ‘गीता’ शब्द  के अर्थ को ह्रदयंगम कर लिया जाये तो बात और निस्चित होजायेगी। मस्ती थोडी और गाढी हो कर उभरेगी। नशा और शिर चढ कर बोलेगा।
अगर अर्थ की बात करें तो।
श्री अर्थात ईष्वर मत अर्थात वात सिद्धांत अर्थात ईष्वर का सिद्धांत। भग अर्थात जिसमे छह गुण है। ऐष्वर्य. आनंद, नित्यता विद्वमान हैं ।
अर्थात गीता उस परम ए्रष्वर्यषाली ईष्वर का बाद है। सदा और सर्वरुपता सर्वज्ञता को लिये हुए अनंत आनंद युक्त गीत है। 
एक बात और गीता संसार मे सबसे ज्यादा पढी जाने और सबसे कम समझा जाने वाला गंथ है। यह बहुत बडी विडंबना है। यहां समझने का मतलब समझ लेने जैसा है। समझने का मतलब गीता के स्लोकों का अर्थ भर जान लेने से नही है। उसके व्याकरण को जान लेने से नही है। गीता के स्लोंको को रट लेने महज से नही है। यह ग्रथ महज मंचासीन होकर भाषण देने मात्र के लिये नही है। इसे तो प्राणों  की तरह सासों की तरह पीना पडेगा। भोजन की तरह पचाना पडेगा। रक्त मॉस मज्जा मे बसा लेना पडेगा विचार भाव आदि से एक होना पडेगा तभी गीता के अर्थ खुलते हैं स्वतह मोरपंखी की तरह। या बाग मे स्वतह खिलती कली की तरह।

गीता के प्रथम अध्याय की शुरुआत  अर्जुन के विषाद से भर जाने की कथा है। यह सच है हम सब भी विषाद से भरे हैं भ्रम से व्यथित हैं। पर हमारा मोह हमारा सारा  विषाद गुनगुना है जिसमे अर्जुन की तरह उबाल नही है। ताप नही है अन्यथा कोई न कोई क्रष्ण सी चेतना अब तक हमारा विषाद दूर कर ही दी होती।
इतिहास मे आंकडो मे रुचि लेने वालों की बात करें तो महाभारत के युद्ध मे अडतालिस लाख लोगो ने युद्ध किया। और उसमे से महज दस सेनानी बचे थे। सात पाण्डव की तरफ से और तीन कौरव की तरफ से। यह एक आर्स्चय की बात और उस वक्त सारा युद्ध जमीन पे ही हुआ था न कि आज कल की तरह हवा मे और समुद्र मे। लिहाजा एक ही मैदान मे इतने आदमियों का एक साथ लडने के लिये इकत्रित होना फिर लडना। और फिर इतने ही हांथी घोड़े जैसे जानवर उनकी चिंघाड और  इतने सैनिकों के रहने खाने की व्यवस्था करने वाले खानसामा और बेयरे भी गये होंगे। इसके अलावा बाजे गाजे बजाने वाले वीर रस के गीत गाने वाले। युद्ध मे घायल सैनिकों  का इलाज करने वाले। तम्बू कनात साफ सफाई रोशनी आदि का इंतजाम करने वालों की संख्या जोडी जाये तो करोड के उपर बात जाती है। और फिर इतनी बडी संख्या मे जनता का इकठठा होकर लडना।
यह सब सोंच सोंच कर कल्पना करके एक अजीब सी सिहरन और उत्तेजना होती है कि क्या माहौल  रहा होगा। अगर ऐसे मे अर्जुन जैसा योद्धा भी विषाद से भर जाता है तो कोई बडी बात नही है। ऐसे मे बडे से बडा विचारषील आदमी भी घबरा जायेगा सोंच कर के ही और जब कि इस विषाल जन सैलाब और युद्धोन्मत भीड मे ज्यादातर नातेदार रिस्तेदार हो।
अगर आंकडो की बात करें तो पिछली सताब्दी मे लडे गये दोनो विष्वयुद्धों मे महज कुछ दो चार लाख आदमी ही मारे गये हांगे जिसकी भरपायी हम आज इतने सालों बाद भी नही कर पाये हैं ।
तो इतने विसाल युद्ध के मैदान को देख कर कोई भी व्यथित हो सकता है।

श्लोक प्रथम।
धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेंत्रे समवेता युयुत्सवः
मामका पाण्डवश्रच किमकुर्वंत संजय

र्धम यानी सिद्धांत। कुरु यानी कर्म। कर्म यानी कर्तव्य। कर्म की सारी इमारत र्धम की नीव पे बुलंद होती है। ऐसा कहा जा सकता है। और माना भी जाता है। पर व्यवहार मे ऐसा होता नही है। सिद्धांत कुछ और कहता हे। कर्म कुछ और होता है। और यही सारे द्धंदो का कारण है। अगर र्धम ठीक ठीक समझ मे आ जाये तो धर्म और कर्तव्य मे अंतर नही रह जाता। पर अक्सर कमं करने वाले धर्म को एक तरफ रख कर कहते हैं जो हमने किया वही ठीक वही सिद्धांत। और यही सब कुछ पूरे महाभारत मे हुआ है। पाण्डव जहां सिद्धांत की बात करते नजर आते हैं। अगर पाण्डवों से उनकी मॉ कह देती है तुम सभी पांचों एक ही औरत के साथ पति पत्नी की तरह रहो तो वे किन्तु परन्तु नही करते वे तर्क विर्तक के वितंडा मे नही पडते। उनका धर्म कहता था कि मॉ की आज्ञा माननी चाहिये तो माननी है वह अच्छी है यह बुरी है यह वह जाने। इसी तरह अगर उन्हे जुआं खेलने का न्यौता मिलता है तो वह उस समय के धर्म के अनुसार न नही कह सके बल्कि खेले और औरत को भी दांव पे लगा सके उनके लिये धर्म ही कर्म की कसौटी थी। दूसरी तरफ दुर्योधन कहता है जो हमने किया वह ठीक। जो नही किया वह बेठीक।
मेरे देखे महाभारत की सारी लडाई कर्म और सिद्धांत की लड़ाई है।
कर्म और सिद्धांत दो समानांतर रेखाएं हैं जो कभी मिलती नही। दूर बहुत दूर तक देखने पर मिलती सी नजर तो आती हैं पर मिलती नही हैं। मिल भी नही सकती।
पर दोनो की उपयोगिता बराबर रहती है। अगर सिद्धांत न होतो व्यवहार अराजक हो जायेगा। और अराजकता भयानक होती है। और अगर सिद्धांत को ही आधार बना कर चला जाय तो आदमी लकीर का फकीर बन जायेगा। और अक्सर सिद्धांत की बात व्यवहार मे आके बेमानी हो जाती है। वह दूसरी समस्या, इसी लिये अक्षर सिद्धांतवादी समाज मे असफल हो जाते हे, और व्यवहारी सफल हो जाते हैं।
दूसरी बात ‘मामेकं’ यानी मेरा। ‘पाण्डवं’ यानी दूसरा। ध्रतराष्ट्र की सारी परेशानी मेरे और तेरे की है,और यही परेशानी हमारी  आपकी, और पूरे समाज की है। जब तक हम अपने और पराये की परिभाषा मे सोचते  रहेंगे। तब तक हमारे अंदर धर्मयुद्ध होता रहेगा। यही बात तो सात्र भी कहता है दि अदर इज हेल। दूसरा नर्क है। पत्नी पति के लिये नर्क होती है। पति पत्नी के लिये नर्क होता है। पिता पुत्र के लिये नर्क होता है। पुत्र पिता से नाराज है। बास के लिये मातहत नर्क निर्मित कर रहा है तो मातहत के लिये बास नर्क है। लिहाज हर एक आदमी दूसरे से त्रस्त है। आदमी के इतने सालो का अनुभव कहता है जब तक दूसरा है तब तक उसे सुख नही मिल सकता लिहाजा वह जितना ज्यादा से ज्यादा दूसरे पन को खत्म कर सकता है वह करने की भरसक कोषिष करता है। और यही हमारी लडाई है। यही हमारा महाभारत है।

इसके अलावा एक और बात। भगवत गीता की षुरुआत। ध्रतराष्ट्र के प्रश्न  से होती है। यानी एक अंधे व्यक्ति की जिज्ञासा से षुरु होती है। और अंधे आदमी के पास जिज्ञासा ही होती है। वह सब कुछ जानना चाहता है। उसका न देखपाना ही सब कुछ जानने को प्रेरित करता रहता है। ऑख वाले के पास कोई जिज्ञासा नही होती। वह जानता है कि वह तो देख ही रहा है।
इसीलिये बुद्ध जैसे लोंगों के पास कोई प्रष्न नही होते कोई जिज्ञासाएं नही होती।
अगर देखा जाय तो महाभारत का युद्ध ध्रतराष्ट्र के अंधेपन का की परिणाम है।
और हमारी सारी जिज्ञाासाओं और युद्धों के पीछे भी कहीं न कही हमारा अंधापन ही है। जिस दिन हमे दिव्य चक्षु प्राप्त हो जाता है। सत्य का दर्षन हो जाता है। उस दिन सारा महाभारत थम जाता है। पर अक्षर होता इसके विपरीत है हमारी ऑखे तब कुछ कुछ देख पाती है, जब हम सब कुछ गंवा बैठते हैं। हालांकि एक बात और अगर सब कुछ गंवाने के बाद भी हमारी आखें खुल जाये तो भी वह घाटे का सौदा नही रहेगा। वह तो लाटरी निकलने की तरह होगा। अक्षर सब कुछ गंवाने वाले ही सब कुछ पायें हैं। पर यहां तो हो उल्टा ही है हम सब कुछ गंवा भी देतें हैं और मिलता भी कुछ नही है। न जाने कितने जन्म गंवा चुके और न जाने कितने गंवाने कि तैयारी मे हैं। खैर ...

श्एक बात और, इतनी अदभुत षुरुआत श्रीमुख से ही हो सकती है। अगर हम भगवत गीता का प्रथम अक्षर ‘र्ध’ ले और अंतिम श्लोक  का ‘म’ लें तो शब्द  बनता है ‘र्धम’ अतह यहा यह भाव भी उभरता है कि दुनिया मे जो कुछ भी ज्ञान विज्ञान वेद उपनिषद सत्य अस्त्य है। उस सब का उदगम और विलय इन्ही दो अक्षरों मे निहित है। ये दो अक्षर ठीक ठीक समझ मे आ गये तो पूरी गीता पूरा जीवन पूरा सत्य समझ आ जायेगा और अगर यहीं चूके तो चूक ही गये। तब सारी समझ ना समझी मे ही आजायेगी।
यहां र्धम और र्कम दोनो के साथ क्षेत्र षब्द जुडा है इस षब्द को भी समझ लेना जरुरी है। क्षेत्र के संदर्भ मे  यह
समझ लेना बेहतर होगा कि यहां जो क्षेत्र की बात आयी है उससे अगर कोई जमीनी टुकडे का अर्थ लेता है तो वह पूरी गीता से चूक जायेगा।
गीता के अर्थ की बात तो दूर की है। जीवन मे भी तो यही होता है, आदमी जमीन जाययाद की वजह से र्धम से चूकता आ रहा है। लिहाजा यहां हरियाणा के पास के मैदान कुरुक्षेत्र को केंद्र मे मानना गीता के अर्थ से बहुत दूर चले जाने की बात होगी। यहां लडाई का मैदान तो प्रतीक है बाहय कारक है। कारण बहुत गहरे हैं। भूमि से मानव का आर्कषण अकारण नही है। उसका सबसे बडा कारण ही यह है कि हमारा शरीर भू तत्व की अधिकता से बना है लिहाजा भूमि के प्रति मानव का इतना आकर्षण होना स्वाभाविक ही है महज भूमि ही हमारी सत्ता के बने रहने का सबसे बडा कारण है। अगर हमे किसी तरह से यह पता लग जाये कि सिर्फ भू तत्व के न रहने से भी हमारी सत्ता बनी रहती है ज्यों कि त्यों तो हमारा सारा लगाव भूमि से हट कर र्धम पे आजाये। और यही पूरी की पूरी प्रक्रिया बताने का काम गीता करती है।
हां अगर किसी को जमीन के टुकडे के बारे मे ही जानने पहचानने की ललक है आकाक्षां है तो वह इतिहास के पन्नो मे मगजमारी कर सकता है। किसी पुरातत्व विभाग के चक्कर लगा सकता है। उससे मेरा कोई प्रयोजन नही है। हां अगर तत्व की बात करता है। उन अर्थो की बात की जानी है जिन अर्थों मे गीता उपयोगी हो सकती है तो उसमे मेरी उत्सुकता है। खैर

क्षेत्र का एक अर्थ षरीर से भी होता है। अगर हम इस अर्थ को ग्रहण करते हैं तो भी इस सूत्र का अर्थ होता है कि हमारे सारे कर्म और धर्म का क्षेत्र यह शरीर ही है। और इस शरीर से ही हम इन दोनो को साधते है। और इसी साधने की प्रक्रिया को हम महाभारत कह सकते हैं। और जिस दिन हम इस युद्ध को जीत लिये उस दिन ही हमने गीता को जान लिया। सारा महाभारत देख लिया।

क्रमशः -----------



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