सहरा की किस्मत संवरने लगी
नदी अपना रुख बदलने लगी
मौसमे खिज्र देखा है ताजिंदगी
तेरे आने से कलियाँ खिलने लगी
उदास थी कफ़स में बुलबुल बहुत
पा के खुला आसमां चहकने लगी
बिखरी हुई थी जो चांदनी अबतक
बाहों मे आ के फिर सिमटने लगी
बर्फ ही बर्फ जमी थी वजूद मे अपने
मुहब्बत की आंच से पिघलने लगी
मुकेश इलाहाबादी -------------------
बहुत खूब श्रीवास्तव जी..............!!
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