दिन के उजाले मे सो जाऊं
रात का घना साया हो जाऊं
आज तक लावा बन के बहा
कह दो तो दरिया हो जाऊं
उम्र भर मुहब्बत बोता रहा
सोचता हूँ कांटे भी बो जाऊं
सभी तो ग़मज़दा मिलते हैं
किस्से जा के दुखड़ा रो जाऊं
बहुत मैली हो गयी है चादर,
मै भी गंगा में जा, धो जाऊं ?
मुकेश इलाहाबादी -----------
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