निगोड़ा ! जब भी आता है खुशबू बन के आता है
तन और मन अन्दर तक महका महका जाता है
सोचती हूँ साँसों मे भर के उसको छुपा लूं सीने मे
ज़ुल्फ़ छेड़ कर बहारों संग निगोड़ा भाग जाता है
आएगा इस बार तो बाँध लूंगी उसको आँचल मे,,
देखती हूँ फिर कैसे दामन छुड़ा के भाग जाता है ?
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------
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