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Saturday, 17 August 2013

इतना घना कुहासा है


इतना घना कुहासा है
दर्द औ गम का साया है

कितने पंछी प्यासे हैं ?
ताल पोखरा सूखा है

बेवज़ह दरिया ढूंढ रहे
मीलों तक तो सहरा है

थका मुसाफिर सोच रहा
न तरुवर न छाया है

वक़्त कभी तो बदलेगा?
दिल को यही दिलासा है

मुकेश इलाहाबादी -----

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