एक बोर आदमी का रोजनामचा
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Friday, 1 August 2014
बुनियाद में नमी बैठी है
बुनियाद में नमी बैठी है
दीवार सीली दिखती है
चहचहाटें उड़ गईं यहाँ से
तन्हाई गुटरगूं करती है
जिस्म नहीं खाली मकां है
जाँ गैर के दिल में रहती है
दरियाए ईश्क सूख चुका
अब रेत की नदी बहती है
तुम्हारी ग़म ज़दा आखें
आज भी कुछ कहती हैं
मुकेश इलाहाबादी ----
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