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Sunday 17 August 2014

न कोई कुण्डी न कोई दरवाज़ा पाओगे

न कोई कुण्डी न कोई दरवाज़ा पाओगे
जब भी आओगे मेरा दर खुला पाओगे
आखों में छलकते हुए ग़म के प्याले
दूर तक लहराता समंदर काला पाओगे
सुना है वक़्त हर घाव भर देता है पर
मेरा हर ज़ख्म आज भी हरा पाओगे
भले ही बाहर से दीवारे दरक चुकी हों
मगर घर अंदर से वैसे का वैसा पाओगे
यूँ तो कोई वज़ह नहीं है मुस्कुराने की
फिर भी तुम मुझे हँसता हुआ पाओगे
 

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

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