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Tuesday 30 September 2014

माना दीवारें बतियाती नहीं


दीवारें धूप छाँह झेलती तो हैं 
हमारा दुःख दर्द सुनती तो हैं
सीढ़ियां मंज़िल नहीं होती
मगर उम्मीदे मंज़िल तो हैं
तसव्वुर से जी नहीं भरता
ख्वाब से रातें कटती तो हैं
चाहे कितनी भी लम्बी हो
शब -ऐ -हिज़्र कटती तो है
लोग मसल देते हैं फिर भी
कलियाँ रोज़ खिलती तो हैं

मुकेश इलाहाबादी -----------

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