मुसलसल बारीसे ग़म थमती नहीं
ज़िंदगी मेरी इक ठाँव रुकती नहीं
ज़िंदगी मेरी इक ठाँव रुकती नहीं
लब तो उसके कंपकंपाते हैं, मगर
अपने होठों से कुछ वो कहती नहीं
अपने होठों से कुछ वो कहती नहीं
जी तो चाहे है ख़त उसे इक लिखूं
उँगलियाँ थरथराती हैं चलती नहीं
उँगलियाँ थरथराती हैं चलती नहीं
एहसास की छछलाती नदी थी,जो
बर्फ सी जम गयी, अब बहती नहीं
बर्फ सी जम गयी, अब बहती नहीं
कि ज़िंदगी अपनी ज़िद पे अड़ी है
लाख कहा पर वो मेरी सुनती नहीं
मुकेश इलाहाबादी -----------------
लाख कहा पर वो मेरी सुनती नहीं
मुकेश इलाहाबादी -----------------
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