फूलों से आशिकी करते रहे
और खार बन के उगते रहे
बचपन मे बिछड थे जिससे
उम्र भर उसे ही ढूंढते रहे
शोले और शरारे न थे पर
अलाव की तरह जलते रहे
राह मे धूप और किरचें थी
पांव बरहरना हम चलते रहे
तुम्हे क्या मालूम मुकेश बाबू
दर्द सह कर हम हंसते रहे
मुकेश इलाहाबादी ...........
और खार बन के उगते रहे
बचपन मे बिछड थे जिससे
उम्र भर उसे ही ढूंढते रहे
शोले और शरारे न थे पर
अलाव की तरह जलते रहे
राह मे धूप और किरचें थी
पांव बरहरना हम चलते रहे
तुम्हे क्या मालूम मुकेश बाबू
दर्द सह कर हम हंसते रहे
मुकेश इलाहाबादी ...........
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