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Thursday, 8 January 2015

सुमी, दिनों का हिसाब न भी रखूं तो

सुमी,
दिनों का हिसाब न भी रखूं तो न जाने कितने महीने न जाने कितने साल बीत चुके हैं तुमसे मिले हुये, तुमसे बतियाये हुये तुम्हे छू के देखे हुये तुम्हारी खनखनाती हंसी सुने हुये। बस अब तो लगता है जैसे ये युगों युगों पुरानी बातें हो शायद सतयुग की या किसी और युग की और अगर इतनी पुरानी नही तो भी कई कई जनमों पुरानी तो लगती ही है। और अगर तुम इसे भी नही मानती हो तो इतना वक्त तो गुजर चुका है कि हम और तुम जिंदगी के राह मे एक लम्बा मीलों लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं जहां आते आते सारी यादें मिट जाती हैं अगर मिटती नहीं तो इतनी धुंधली ज़रूर हो जाती हैं की पहचानना मुस्किल हो जाता है, मगर तुम्हारी यादें तो पत्थर पे खींची लकीरें हैं जो शायद ही कभी मिटे और मिटना भी चाहेंगी तो मिटने न दूंगा मै।
खैर --- ये तो सच है सुमी कि हर इंसान, ज़िंदगी के सफर में है। अपनी अपनी तरह। कोई तन्हा तो कोई कारवां के साथ तो कोई अपने महबूब के साथ। मग़र है सभी एक बड़े से कारवां के हिस्से किसी न किसी बात की जुस्तजूं में। कारवां के हर राही के पास अपने अपने असबाब हैं, जिसमें ढे़र सारी उम्मीदें, ग़म, ख़ुशी, उल्फ़त, ज़ुल्मत और न जाने क्या क्या बांध रख्खे हैं।
जब कभी ये राही किसी सरायखाने में रात गुजारते हैं या किसी दरख़्त के नीचे बैठ छांह में सुस्ताते हैं। अपनेे इन असबाबों को टटोलते हैं। जिसमें न जाने कितने किस्से, कहानी, अफ़साने, ग़ज़ल और नज़्म जादूगर के पिटारे सा निकलते चले आते हैैं। जो किसी एक राही का ही नही और भी रहगुज़र के लिये मरहम या वक़्त कटी का साधन बनते हैं।
और शायद ऐसा ही मेरे साथ है। तुम्हारी यादें तुम्हारी हंसी तुम्हारा गुस्सा तुम्हारा प्यार मेरे लिये एक ऐसा अफसाना है एक ऐसा नग़मा है जिसे हर वक्त कभी ख्याल में तो कभी बेखयाली में गुनगुनाता रहता हूं । जो इस बेमुरउव्वत ज़माने के दिये ज़ख्मों को पूरी तरह से भर तो नही पाता मग़र तुम्हारी यादों के नग़में मेरे दर्द को कुछ हद तक कम जरुर कर देते हैं। और इतना कम इतना कम कि अक्सरहॉ मै अपने जख्मों को भूल सा जाता हूं।
सच, सुमी तुम्हारी यादों के अफसानें ही हैं जो जिंदगी के धूप मे घनी छांव और बरसात में छतरी की तरह तन जाते हैं और मेरा सफर बहुत कुछ आसान कर जाते हैं।
शायद यही वजह है जब भी दर्दे ज़ीस्त बढता है तेरे ख़त निकाल के पढ लेता हूं या फिर तेरी यादों की चादर तान बगैर तारों की रात काट लेता हूं।
और न जाने कब तक काटता रहूंगा ये तवील रात।
खैर ये तो ज़िदगी का सफर है। काटना तो पडेगा ही चाहे हंस के काटो या रोके। फिलहाल सफर के सम्दर्भ में दो चार लाइनें लिखी हैं। जो तुम्हे भेज रहा हूं इस उम्मीद से कि मेरी सुमी को पसंद आयेंगी।

सफर कि इतनी तैयारी न कर,चल तू
धूप सरपे आये इसके पहले,निकल तू

धूप, हवा और पानी कुछ न कर पायेगें
सफर में इरादा बुलंद रख, फिर चल तू

अब उंट, घोड़े, बैलगाडी की न कर बातें
चल रेल व हवाईजहाज मे सफर कर तू

सफ़र कैसा भी हो तन्हा न काट पायेगा
कम सेकम एक साथी, साथ के चल तू

ये ज़रुरी नही कारवां में ही चल तू
तू सही है तो अकेला ही चला चल तू

एक तनहा मुसाफिर ------
मुकेश इलाहाबादी

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