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Friday 28 August 2015

जडों की तलाष मे

                           अक्सर
                           जब कभी
                           मन उदास होता है
                           किंर्कतव्यविमूढ होता है
                           या कि उहापोह मे फंसा होता है
                           या कि कुछ न करने को जी चाहता है
                           या कि उठने  और
                           फिर बैठने को जी चाहता है
                           हथेलियां कोहनी से मुड
                           चेहरे को ढक लेती हैं
                           उंगलियां आंखो को
                           और
                           उडने लगता हूं
                           देष से परदेष तक
                           आकाष से पाताल तक
                           पूरब से पष्चिम तक
                           इस जंहा से उस जहां तक
                           यहां से वहां तक
                           कंहा से कंहा तक
                           न जाने कहां तक
                           तब याद आते हैं
                           बीते दिन
                           बीते पल
                           बिछडे दोस्त
                           षहर की सडकें
                           मुहल्ले की गलियां
                           कालेज की बेलौस छोरियां
                           गुजरा बचपन
                           मॉ की ममता
                           पिता की डांट
                           खाली खटिया
                           गिल्ली डंडा
                           कटी पतंग
                           रीते हॉथ
                           और इनके साथ
                           याद आता है
                           बहुत कुछ      
                           जो गुजर गया है
                           न लौटने के लिये
                                             
जडों की तलाष मे
03.12.2003
  जब कभी केई भी कोई व्यक्ति अपनी जडो की खोज मे निकलता है। तो, निष्चय ही उसके जेहन मे तीन परिवार नमूदार होते हैं। ददिहाल,ननिहाल और ससुराल। इन परिवारो की जडे जितनी गहराई से देष काल व समाज से जुडी होंगी, व्यक्ति का विकास उतना ही मजबूत,विषाल और स्थायित्व लिये होता है। अपवाद हो सकते हैं। पर मै नही।

मै भी जब कभी अपनी जडो की तलाष मे निकला तो एक रोचक तथ्य सामने आया कि मुझसे जुडे तीनो परिवारो का ज्ञात इतिहास  मात्र दो या तीन पीढी का रहा है। और तीनो परिवार अपनी अपनी जड से उखड नई जमीन मे अपना अष्तित्व खडा करने की जददोजहद मे लगे हैं। उसके पहले की जडें काल और पस्थितियों मे खेा गयी। इसके अलावा एक और रोचक तथ्य सामने आता है । कि तीनो परिवार के प्रथम ज्ञात पुरुष अपनी अपनी सौतेली मॉ के अत्याचार से उब  के स्वतः अपनी जमीन से उखड, नई जमीन की तलाष मे निकल पडे थे।

कहानीे ननिहाल से षुरु होती है।

3.1.1963
इलाहाबाद। पूष का महीना। जाडे की रात। कडाके की ठंड। षहर  का पुराना एतिहासिक मुहल्ला।  अतर सुइया। कहा जाता है कि किसी समय यहीं पर अत्रि मुनी व अनुसूइया देवी का आश्रम इसी जमीन पर था। गंगा नदी भी इसी जगह बहती थी। जो अब यहां से अपनी जमीन बदलती हुई लगभग बारह किलोमीटर दूर झूंसी मे बहती है। एतिहासिक प्रमाण के रुप मे कहा जाय तो आज भी इसी मुहल्ले मे मेरे घर या कहें ननिहाल के ठीक पीछे अनुसुइया देवी का एक प्राचीन मंदिर प्रतिस्ठित है। तो, इसी पुराने  मुहल्ल्ेा का  पुराना मकान। मकान न0 288 अतर सुइया। अपने मायके पहली जच्चगी के लिये आयी मुन्न्ीा देवी अपनी मौसी पार्वती देवी व द्यर की औरतो से प्रसव र्दद की सूचना देती है। जल्दी जल्दी पुष्तैनी दाई जिसे सभी लोग वहां की भाषा मे चमाइन कहते थे। बुलाई गयी। चमाइन के सधे हांथ जच्चगी करने लगे पर बच्चा काफी कोषिषेा के बाद भी बाहर न आ पा रहा था। उधर मुन्न्ीा देवी का र्दद से हाल बुरा होता जा रहा था। चमाइन भी द्यबडाने लगी। बोली ‘बच्चा पेट मे उलट गया है। उसे अस्पताल ले जाना होगा। जल्दी जल्दी रिक्षा बुलाया गया। एक रिक्षा पे मुन्न्ीा देवी के साथ मैासी पार्वती देवी व दूसरे पे परिवार के अन्य सदस्य लदे फंदे चले जा रहे हैं। रिक्षा द्यर के सामने की मेन सडक से रानी मंडंी, कोतवाली, नखाष कोना होता हुआ षहर के पुराने व व्यसत हस्पताल  डफरिन पे जा रुका। तब तक मुन्न्ीा देवी की तबियत काफी खराब हो चुकी थी।  डाक्टरो ने, आनन फानन मे डिलेवरी कराई। लडका हुआ। रात के लगभग दो बजे। अष्विनि नज्ञत्र व मेष रषि मे।

उधर रात अपनी आखरी प्रहर मे थी।  ठ्रंड अपनी चरम पर। पूरा षहर षांत गहरी नी्रद ले रहा था। हां सडक किनारे कछ आवारा कुत्त्ेा ठंड के कारण रो रहे थे।

लडका होने की खबर पा नानी पार्वती देवी ने चैन की सांस ली।हल्के चेचक के दागेां से भरे गंेहुवन चेहरे पेे मुष्कुराहट आगयी। बालक के नाना संगमलाल ने राहत की सांस ली और बीडी सुलगाने अस्पताल के बरामदे के दूसरे कोने चले गये।द्यर के अन्य सदस्य वहीं असपताल के बरामदे मे चादर डाल, कम्बल अेाढ लेट गये। सुबह के इंतजार मे।

पुर्वी ज्ञितिज मे सिंदूरी बाल सूरज के उगते ही नाना संगम लाल व पार्वती देवी ख्ुाषी ख्ुाषी द्यर पहुचे । द्यर का हर सदस्य उत्सुक्ता से उन्हे निहार रहा है। क्या हुआ। संगम लाल चहके ‘लडका भवा है पूरे हस्पताल मे चमकत बा’ नानी पार्वती देवी ने मुहॅ बनाया ‘जीजा का भी लागत है कि रतौंधी होय लाग। लडकवा बहुत  कमजोर है । एही लाने उकरे करिया रंग मे खून बाहर तक दिखाई पडत है। औ कहथीं लडकवा चमकत हैं।’ सभी लोग हंसने लगे इस मजाक से। सभी लोग खुष हुए। लडका होने की सूचना से। बालक के पिता षहर के बाहर थे परदेष मे। नौकरी के चलते। संगम लाल ने धोती के नेफे मे ख्ुांसी बीडी निकाली और रात भर की थकान को मिटाने के लिये अपने कच्चे कमरे की तरफ चल दिये। मौसेरी नानी र्पावती देवी नहाने धोने चल दी। सगी नानी भागवती देवी जच्चा के लिये मेवे के लडडू बनाने की तैयारियां मे जुट गयी। दूसरे सभी सदस्य अपने अपने काम मे लग गये।

लेागो को क्या मालूम था। यही कमजोर हाथ पैर वाला बालक जिंदगी के साथ दो दो हाथ करता रहेगा । कडाके की ठंड हो या गर्मी, बिना किसी समस्या के झेलेगा।  पूरी ताकत से । ताकि ज्रिदगी भी षरमा जाये। और चमकेगा अतर सुइया की गलियो मे। रानी मंडी की रीढ सी सीधी सडक मे और समाज मे।

जच्चा बच्चा द्यर आगये, अस्पताल से। कच्चे कमरे मे षौरी की खाट डाली गयी।

कच्चा कमरा द्यर का खास कमरा। सबसे बडा कमरा। इसी कमरे मे सारी औरतों की षौरी ब्यौरी की जाती । षादी ब्याह मे केाहबर भी यहीं बनाया जाता। जाडे की रात द्यर भर  इक्टठा होता। आग तापते हुए बहस मुबाहिसा करता। विविधभारती का लेाकप्रिय कार्यक्रम हवामहल सुनता। गरीबों का मेवा मूंगफली गुड व नमकीन चटनी के साथ खायी जाती।  सभी अपना दुख सुख कहते सुनते। भूली बिसरी बाते याद कर हंसते हंसाते। दुख भरी राते भी यहीं आंखो ही आंखो मे काटी जाती। द्यर के सारे बच्चे, कुंआरी लडकिया तथा एक आध मेहमान या बुर्जुग जिसे द्यर का कोई कोना खाली न मिलता वह भी इसी कमरे मे एक दूसरे से सटी चारपाइयों मे बिछे गददे व बिछौनो मे सो रहता । दीपावली पे कमरे की एक दिवाल केा लीप पोत के बडी सी रंगोली बनाई जाती। लखौरी इंटो व कच्ची मिटटी का यह कच्चा कमरा हर दूसरे तीसरे गोबर से लीपा पोता जाता। भगवान की बडी बडी फोटुओ, पुराने व नये कैलेंडरों व आलेा से अटा पटा यह कमरा द्यर भर की रौनक रहता। सफेद चूना,गोबर,एक के उपर एक लदे रजाई गददो व आदिम महक से भरे इस कच्चे कमरे मे एक अजीबसा अपना पन बसा रहता। जो भी एक बार इस कमरे मे आजाता उसे इसकी याद भुलाये न भूलती।

बाहर की गर्मी सर्दी से बेखबर नवजात बालक इसी कमरे मे मॉ के साथ  लेटा है। नानी सगी तो नही पर सगी से भी ज्यादा सगी पार्वती नानी जिन्हे बच्चे लइया नानी कहते। क्योंकि वही तो हैं जो बच्चो का ख्याल रखती हैं। रोज स्कूल से पढा के लौटते वक्त कुछ न कुछ ले के ही लौटती है। चाहे लइया ही क्यों न हों। लिहाजा वह बच्चों की लइया नानी ही हो गयीे। वही लइया नानी, कच्चे कमरे के बाहर मुष्तैदी से बैठी हैं। ताकि कोई भी आदमी बाहर से आकर सीधे कमरे मे न चला जाये। बच्चे देखने के पहले हाथ पैर अच्छे से धेाये फिर कमरे मे जाये। फिर भी बच्चा और जच्चा को दूर से ही देखने की इजाजत होती। कि जब तक छठी बरही नही हो जाती तब तक दाई के अलावा कोई भी बच्चे व जच्चे को छू नही सकता। छोटे बच्चो को तो इस कमरे से दूर ही रखा गया है।

पुरोहित राजाराम षास्त्राी बुलाये जा चुके हैं। पत्रा देख के बताया। बच्चा मूल नज्ञत्र मे हुआ है। मूल षांति करानी पडेगी। बालक के पिता अंबरनाथ यानी भोला बाबू को पोस्टर्काड लिखकर खबर करवा दी गयी थी। रसोंई से मेवे के लडडू की खुषबू आ रही है।

त्रिभुवन मामा यानी छोटे मामा पैर वाली सिलाई की मषीन पे झुके हैंे। बच्चे के लिये झबला,कमीज,लंगोटी बना रहे हैं। नानी पार्वती देवी छठी की तैयारियों मे लगी हैं। द्यर मे उत्सव का माहैाल है। सोंहर गायी जा रही है। पकवान बन रहे हैं। मेहमानो का आना जाना लगा है। पिता अम्बर नाथ इटावा से आ चुके है। उनके काले और सामान्यतः भावविहीन चेहरे पे भी कुछ कुछ हंसी विराजमान है। पंडित राजाराम षास्त्री सत्यनारायण कथा की तैयारियां मे लगे है। नौग्रह बना रहे हैं। पर ज्योतिष के जानकार होने के बाद भी उन्हे क्या पता है कि नवजात षिषु के जीवन मे सदैव षनी का ही प्रभाव रहेगा। कितना भी मूल षांतीं करादें पर बालक को तो दुख के सूरज मे ही तपते रहना है।

मूल षांती व छटी का उत्सव धूम धाम से मना। ख्ूाब सोहर गायी गयी। खाना पीना हुआ। लेन देन हुआ। सभी ख्ुाष थे। सभी प्रसन्न थे।

ददिहाल पक्ष से किसी ने पूछा बच्चे का नाम क्या रखा गया। मौसी उमा देवी ने कहा आप लोग ही बताइयंे। वहीे पास मे खादी की टोपी कमीज व पैंट पहने सम्माननीय मेहमान व अंग्रेजी के लेक्चरार बालक के फूफा श्राी अनंत प्रसाद ने नाम सुझाया। मुकेष। मौसी उमा देवी ने बच्चे के देखा व नाम से उसकी कुछ तुलना सी करने लगीं। तभी नानी पर्ा्रवती देवी ने कहा नाम तो अच्छा है। तब और सभी लोगो ने अनुमोदन कर दिया।मुन्न्ीा देवी ने प्रेम से बालक को देखा। छोटी बुआ ने अपने जीजा के सुझाये नाम को स्वीकार किये जाने से खुष हो। बच्चे को अपने गोद मे ले म्ुाकेष बाबू कह कह के खिलाने लगी। चलो नामकरण संस्कार भी आज ही हो गया किसी ने पीछे से कहा।

अभी कल के उत्सव की थकान उतरी भी न थी। कुछ मेहमान तो अभी भी रुके  थे। द्यर मे चारो तरफ अस्त व्यसत माहौल है। कहीं जूठे बर्तन पडे है। तो कहीं रास्ते मे कुर्षिया पडी है। कुछ लोग अभी भी बिस्तरो  मे द्युसे कल की थकान को उतार रहे हैं और उतरते जाडे की सुबह मे गर्म रजाई का मोह नही त्याग पा रहे है। तो कुछ लोग नहाने धोने की फिराक मे है। कि कब नल ; बाथरुमद्ध और टटटी द्यर खाली हो। भोला बाबू ने बम का गोला दागा। मुन्न्ीा देवी से बोले ‘अपना बक्सा तैयार करो आज दोपहर की बस से चलना है। यह सुनते ही राधा देवी ही नही द्यर के सभी सदस्यो को जैसे सांप सूद्यं गया। सब चुप। दमाद को कौन समझाये। छोटे मामा त्रिभुवन मामा ने समझाने की कोषिष की । कहा। बच्चा छोटा है। काफी कमजोर भी है। कुछ दिन और रहने दो । पर भेाला बाबू को तो जैसे भूत ही चढ गया था। वह अपनी बीबी बच्चो को उसी दिन विदा कराने का संकल्प ले चुके थे। जब काफी समझाने बुझाने से भी नही माने तो। छोटे मामा ने राधादेवी व बच्चे का बक्सा व सारा सामान आंगन मे लाके पटक दिया। बोले अभी ले जाइये। दोपहर तक का भी क्यों इतजार करना।
हंसी खुषी की सुबह द्यरेलू कलह मे डूब गयी।
सभी चुप और षांत।

मुन्न्ीा देवी दुधमुहे एक माह के बच्चे को चिपकाये चिपकाये रोते कलपते रिक्षे से चली जा रही हैं। कीडगंज। तंबाकू वाली गली वाले मकान मे । जहां उनका ससुराल कार्फी असे से किराये मे रह रहा है। वहां एक दिन रह के कानपुर जेठ के यहां गयी दो तीन दिन वहां रुक के छोटे जेठ के यहां फिर वहां भी एक दो दिन रुक के  इटावा के लिये चल दीं। जहां भेाला बाबू तबादला की वजह से कुछ दिन पहले ही आये थे। मानो मुन्न्ीा देवी बच्चे को लेके द्यर द्यर भटक रहीें थी। एक मुकम्मल द्यर की तलाष मे जगह की तलाष मेे। पर उन्हे क्या पता था कि उन्हे तो कम से कम बुढापे मे ही सही पर अपने द्यर की पक्की छत मिल तो जायेगी। किन्तु यह दुधमुहा कमजारे बालक जिंदगी भर एक अदद द्यर की तलाष मे लगा रहेगा।भटकता रहेगा। पर उसे अपना एक अदद पक्का व षुकून से भरा द्यर न मिल पायेगा।

इटावा का मकान। इटावा की द्यटनाये। जेहन मे कुछ भी नही। खाली सलेट। छह महीने के बच्चे का क्या याद रह सकता है। उसके लिये तो वर्तमान ही सब कुछ होता है। मॉ बाप व और लोगो से सुनी सुनायी बातो से कुछ रेखायें जेहन मे उकेर आती है। वही कुछ आडे तिरछे व धुंधलेपन के साथ उभरती हैं।

इटावा। छोटा षहर किसी कस्बे से कुछ बडा। नौरंगाबाद मुहल्ला। र्दजी्र मास्टर खयाली राम का मकान। मेन सडक से हट के। गली के अंदर। दो खंडो का। पुराने तरीके का। द्यर मे दो आंगन एक कुआं। अपना निजी। आस पास के द्यर मुसलमानो के ।

अंबरनाथ श्रीवास्तव उर्फ भेाला बाबू। टाइपिस्ट विक्रीकर विभाग उत्तर प्रदेष। तबादला होकर इटावा आये। कुछ दिनो के बाद ही मास्टर खयाली राम के यंहा किरायेदार के रुप मे आगये। तब से वहीं रह रहे हैं। आज भी अपने कमजोर काले पुत्र व पत्नी के साथ आये तो  तांगा आकर वहीं रुका। पतली दुबली बिलकुल गेारी मास्टर खयाली राम की पत्नी व द्यर के अन्य सदस्य आये। बहू से मिलने बच्चे से मिलने।
लगता ही नही दो अलग अलग परिवार हैं। एक किरायदार है और एक मकान मालिक। मास्टर खयाली राम लगभग रोज ही बच्चे के लिये एक आध छोटा सा झबला या कमीज सिल लाते और प्रेम से मुन्न्ीा देवी को देते कहते बच्चे को पहना देना। त्रप्त हो बच्चे को एैसे देखते मानेा वह किरायेदार का पुत्र नहोकर उन्ही का पोता हो।

भोला बाबू षाम का खाना खाते और निकल पडते चौराहे की तरफ पान की दुकान पे, पान खाते। देष की मौजूदा राजनीत व स्थितियो की जानकारी लेते बहस करते या फिर किसी के चबूतरे पै बैठ चौपड खेलते देखते। उस वक्त तक टी वी लोगो के घरो तो क्या भारत मे भी न आया था। हां रेडियो या मरफी व फिलिप्स के ट्रांजिस्टर जरुर इक्का दुक्का घरों मे बचने लगे थे। लिहाजा उन दिनो मध्यम वर्गीय छोटे षहरो का आदमी चैापड,ताष व षतरंज खेलकर या बतकही करके षाम काटता व अपना मनोरंजन करता था। लिहाजा भेाला बाबू भी इन्ही तरीको से षाम काटते व रात नौ साढे नौबजे लौटते। कसबे या छोट से षहर के हिसाब सेे काफी रात ढले लौटते। पर चाहे रात जितनी देर से द्यूम के आये दरवाजा मास्टर खयाली राम ही खोलते बिना किसी षिकायत के व परेषानी के। भोला बाबू कुछ संकोच भी करते तो अपने पन से कहते अगर मुन्ना .दृउनका लडका. देर से आयेगा तो क्या वह दरवाजा न खोलेंगे।

इसी प्रेम व, विष्वास के चलते भोला बाबू ने प्रष्ताव रखा कि ‘बाबू जी अगर आप इजाजत दें तो द्यर मे बिजली लगवा लिया जायेे। मास्टर खयाली राम सहर्ष तैयार हो गये। सातवे दषक तक षहरो मे भी हर जगह बिजली नही पहुची थी। और जंहा षहरो मे आभी गयी थी वहां लोगो ने अपने द्यरों मे कनेक्षन नही लिये थे। उन्हे दिया और लालटेन मे ही सुविधा लगती। द्यर मे बिजली के तारो को लगते देख बुढिया मकान मालकिन मुन्न्ीा देवी से बोली ‘का बहू बिजली लग जायी तो दरो दरो तेल डालबे पडो’। मुन्न्ीा देवी यह सुन हंसे बिना न रह सकी। षाम जब बटन दबाते ही बल्ब जला और कमरे मे उजाला फेेल गया तो बुढिया ताली बजा बजा के खुष होने लगी। मास्टर खयाली राम ने कहा चलो मुकेष बाबू के आने से हमारे द्यर मे बिजली तो आगयी। उजाला तो आया।

दो परिवार एक मकान। एक मकान मालिक। एक किराये दार। पर दोनेा रहते एक ही द्यर, एक ही परिवार से। छोटे छोटे दुख। छोटे छोटे सुख। छोटी छोटी चीजे भी साझा होती।

मास्टर खयाली राम के बडे लडके मुन्ना उर्फ धानेष्वर सिंह उर्फ डी सिंह। भोला बाबू के छोटे भाई ही बन गये, उनकी पत्नी मुन्न्ीा देवी की देवरानी। यही संबंध जिंदगी भर चला। नौरंगा बाद का, इटावा का वह मकान छोडने के सालों बाद भी।
धन्य हैं ऐसे मकान मालिक। धन्य हैं एैसे किरायेदार।

तबादला हुआ। कानपुर।
इटावा छूटा। द्यर छूटा। मास्टर खयाली राम का। दुख हुआ। लोग छूटे अपने जैसे, सगे जैसे । पर खुषी भी थी। कानपुर तो अपनो का षहर है। दादा पिता जैसे। बडी भाभी मॉ जैसी। उनका बडा सा रेलवे का क्वार्टर। छोटे बाबू यानी छोटे दादा और छोटी भाभी। बाबू गोविंद राम सगे बडे साढू। वहां सभी तो अपने है। सगे है। क्या चिंता है। लहकते हुए। खुषी खुषी भोला बाबू का कारवां इटावा से कानपुर की तरफ चल दिया।
कारवां रुका। दादा यानी भेाला बाबू के सबसे बडे भाई व बालक के ताउ के द्यर। रेलवे क्वार्टर मे, कलक्टर गंज के।
दादा के साथ रहते अभी एक महीना भी नही बीता। छोटी बातो को लेकर टुन्न फुन्न होने लगी। दादा के रहते इटावा सी आजादी भी न थी... भोला बाबू को। जेठानी के साथ रहने से मुन्न्ीा देवी को भी काम धाम ज्यादा ही करना पडता। इसके अलावा खाने का खर्चा देने के बाद भी इस बात का अहसान कि मकान का किराया तो बच ही रहा है।
भोला बाबू परेषान रहने लगे। मुन्न्ीा देवी भी अलग मकान लेने की जिद करती। पर भोला बाबू सोचते और जोडते द्यटाते कि कानपुर बडा षहर महंगा षहर। छोटे से छोटा मकान भी किराये पे लिया तेा तीस चालिस रुपया महीना से कम मे न मिलेगा। और अगर नब्बे रुपये तनख्वाह मे से चालिस रुपये भी किराये मे दे देंगे तो फिर खाना कपडा नाते दारी रिष्तेदारी आना जाना कहां से होगा। दादा के यहां तो चलो कम से कम इन सब चीजो से तो बचे है। पर रोज रोज की किच किच भी कहां तक बरदास्त हो। यही सब सोचते बिचारते । एक दिन बडे साढू श्राी गोविंदराम जी ने कहा अगर तुम्हे ज्यादा परेषानी हो तो आओ चलो आचार्या नगर मे मेरे साथ रहो। वहीं पास मे कोई मकान किराये पे सस्ता सा दिलवा देंगे।

बालक के भाग्य ने या भोला बाबू की परिस्थितियो ने एक और मकान बदला। कारवां आचार्या नगर आगया।

दिन खुषी खुषी कटने लगे। भले गरीबी अमीरी से ही सही। बाबू गोविंद राम पुलिस विभाग मे नौकर,बडे बाबू। एक चालाक व दुनियादार आदमी। खाने पीने व पहनने के षौकीन। रोज कोई न कोई आसामी बडे बाबू को बोतल देजाता। दोनो साढू भाई पीते पिलाते व सो रहते। पर एक दिन भोला बाबू ने सोचा यह तो ठीक नही । हराम की ही सही पर रोज रोज पीना ठीक नही। और फिर आज हराम की मिल रही है। हमेषा तो नही मिलेगी। एक बार आदत पड गयी तो छुडाना भी कठिन होगा।

इत्तफाकन मौका मिला। भोला बाबू ने अपना तबादला फतेहपुर करा लिया।
एक और ठिकाना बदला।
छोटा षहर। सस्ता षहर। भेाला बाबू को राष आ गया। यहां भी कई मकान बदले। कुछ अपनी वजह से कुछ मकान मालिक की वजह से।

अब तक भोला बाबू दो लडको के बाप बन चुके थे। मुकेष और ब्रजेष।
यहीं दोनो की पढाई षुरु हुई।  नगर महा पालिका स्कूल से। कुछ दिनो कानवेंट स्कूल मे भी पढाया।
बच्चेां की पढाई ठीक ठाक चल रही थी। ग्रहस्थी की गाडी भी ठीक ठाक चलने लगी। पर मूल नक्षत्र बालक की जिंदगी से उतरा ही कहां था। षनी भी तो चैन नही लेने दे रहा था।

कभी होली है। कभी दिवाली है। कभी षादी है। कभी ब्याह है। तो कभी हारी बिमारी है। गरज ये कि कोई न कोई कारण ऐसा आही जाता कि मुन्न्ीा देवी को मायके जाना पडता। और एक बार गयी तो कम से कम दो तीन महीने की छुटटी।

नानी पार्वती देवी ने देखा कि बच्चे की पढाई कायदे से नही हो रही है। तो वे उसे अपने साथ अपने नगर पालिका स्कूल सदियापुर लेजाने लगीं। जंहा वे टीचर थी।

नानी व नाती साथ साथ स्कूल आते। साथ साथ स्कूल जाते। अभी बालक क ख ग सीख भी न पाया था। भोला बाबू का तबादला इटावा से फतेहपुर हो गया। भोला बाबू खुष चलो फतेहपुर से कानपुर व इलाहाबाद दोना पास हैं। बीच मे जब चाहो आओ जब चाहो जाओ।

भेाला बाबू फतेहपुुर आ गयेे।मसवानी मुहल्ले मे किराये का मकान लिया। डेरा डाला। जिसे वे लोग आज भी भुजंवा वाला मकान कहके याद करते हैं। उसी मकान की पहली मंजिल मे  एक कमरे मे वे एक बार फिर रहने लगे अपने दोनो बच्चो व पत्नी के साथ। पर न जाने क्यों उनकी उस भुजवे से न पटी । जल्दी ही दूसरे मकान चंदियाना मे रहने चले आये। और इसके बाद भी वहीं कई मकान बदले। इसी बीच उन्होने यानी भेाला बाबू ने अपने बच्चों का नाम मसवानी के नगर पालिका मे लिखाया फिर कुछ दिन बाद नवभारती नामक अंगेजी स्कूल मे। उन्ही दिनो बाबू गोविंद राम का भी तबादला फतेहपुर मे हो गया लिहाजा एक बार फिर दोनो साढू साथ साथ एक ही षहर मे रहने लगे। खाने पीने लगे। अगर कहा जाये तो पीने की आदत भेाला बाबू यानी मेरे पिताजी ने उन्ही के साथ रह कर सीखी।

बाबू गोविंद राम विधुर हो गये थे। उनकी पत्नी रामा देवी यानी मुन्नी देवी की सगी बडी बहन व बालक की मौसी पांच बच्चों को छोड कम ही उमर मे स्वर्ग सिधार गयीं थी। उनके दो छेटे बच्चे ननिहाल अतरसुइया मे रह रहे थे और बडे बच्चे ददिहाल मे। और वह अकेले फतेहपुर मे।

अभी साल भर भी फतेहपुर मे रहते हुए न बीता था कि एक बार फिर मुन्नी देवी अपने दोनो बच्चो को लेकर इलाहाबाद आगयी फिर कई सालो तक वहीं रहीं।ं

इन वर्षो मे
मुन्नी देवी ने एक और बच्ची षालिनी को जनम दिया।
बालक का नाम कभी रमा देवी सकूल के नर्सरी विभाग मे तो कभी मीरापुर के नगरपालिका मे लिखाया जाता पर बात बनी नही। लिहाजा उसे खत्री पाठषाला मे डाल दिया गया जहां। ममेरा छोटा भाई कल्लू, सगा छोटा भाई ब्रजेष व मौसेरा भाई गुडडू भी पढता था। अब इसी स्कूल मे चारो भाई फुदकते उछलते कूदते पढने लगे।
टीन की बकसिया मे अपनी अपनी किताब व कापियां लिये स्कूल आने जाने लगे।
ग्ुाडडू,ब्रजेष,कल्लू,मुकेष चार भाई।
साथ साथ रहते हंसते खेलते।
गुडडू बाबू सबसे बडे सबसे ज्यादा नटखट। पतंग उडाने व मीठी चीजो के बेहद षाकीन। ब्रजेष बाबू चुप पर धुन के पक्के। कल्लू बाबू सबसे सुंदर व सबके दुलारे व चारो मे सबसे छोटे। मुकेष बाबू इन चारो मे सबसे काले,सबसे कमजोर। अपनी मर्जी कुछ नही। अपनी अपनी कोई विषेषता कुछ नही। बस जो दूसरे करे वही उन्हे भी करना हैं। जो दूसरे कहदे वही करना है। मॉ अपने बच्चे को अच्छी तरह से जानती है। मुन्नी देवी सभी बच्चो की आदतो व रुचियो को देख के बोली कि मुकेष तेा नकलची है। अपनी अकल कुछ नही करता जो कुछ दूसरा कह दे बस वही करना है। यह बात उस बालक के उस उमर मे ही जेहन कर गयी। और षायद यही कारण रहा है कि बालक उस दिन के बाद सदैव अपनी पहचान बनाने मे लगा रहा।

इन्ही दिनो बच्चे को डबल निमोनिया हो गया। कमजोर षरीर और कमजोर हो गया। बचने की कोई उम्मीद न रही। बालक की मॉ और नाना डाक्टर झा के क्लीनिक व दवाखना के चक्कर लगा लगा के थक गये। यहां तक कि एक दिन डाक्टर ने जवाब दे दिया। सभी निराष हो गये। पर रात भर सांस चलती रही सुबह फिर मुन्नी देवी बालक को ले के डाक्टर के पास गयी। डाक्टर चकित। अरे अभी तक बच्चे की सांस चल रही है। उसके बाद उन्होने एक दवाई दिया। कहा यह काफी गरम दवा अगर यह फायदा कर गयी तो बहूुत अच्छा पर यह कुछ न कुछ साइड इफेक्ट जरुर देगी।


दवा राम बाण बनी।
या, बालक की जीवट की आत्म षक्ती काम आयी
या, मॉ की ममता ने बचाया ।
कुछ भी कहा जा सकता है ।
कुछ भी समझा जा सकता है।
पर हकीकत है कि बालक बच गया।
बालक फिर से खेलने लगा। खाने लगा। पढने लगा। ननिहाल मे।

ननिहाल की बातों को बचपन की घटनाओं,बातो केा याद किया जाय तो तमाम बाते याद आती है। एक एक कर। पूरी तरह न सही धुधली ही सही। पर अक्सर याद आती है। आती ही रहेंगी। उन याद आने वाली चीजों मेे बहुत सी चीजे अभी भी वैसी हैं बहुत सी चीजे बदल गयी है। उनमे।

न बदलने वाली चीजे।ं
चौराहे के दाहिनी ओर से कल्याणी देवी मुहल्ल्ेा की ओर जाने वाला नाला। नाले के बगल,ठीक चौराहे पे पीपल का पेड। पेड के नीचे लाल रंग की दक्षिण मुखी हनुमान जी की मूर्ती। बांये तरफ मीरापुर, सदियापुर की ओर जाती सडक। सडक के बायीं ओर पुलिस थाना। थाने के चहर दिवारी से लगी सडक की तरफ बनी मजार। जो रात के समय उधर से गुजरने पर हम बच्चांे को बहुत डराती थी। थाने के पीछे रामलीला मैदान। पूरब की तरफ कल्याणी देवी का मंदिर। उसके सामने पार्क। पार्क मे गांधी जी की मूर्ती। कुछ बदमाष बच्चों ने जिसकी नाक, कान व सिर तोड दिया था। पता नही अभी तक उसकी मरम्मत हुई या नही।

बदलने वाली चीजें
मुस्तफा पहलवान का मकान। उससे लगा हाता। मोदी दूध वाले की दुकान। ष्यामा लकडी वाले की टाल। हनुमान मिठाई वाले की दुकान। खत्री पाठषाला का टीला। थाने के बगल का सरकारी अस्पताल। बगल मे भुंजवा की कच्ची दुकान। और न जाने कितनी कितनी चीजें।

जो चीजें बदल गयी हैं। जो चीजे अभी भी उसी तरह है। उन सभी चीजों से जुडी बातो को घटनाओं के बारे मे बात करने के पहले कुछ जरुरी बातें।

जन्म ननिहाल मे। पढाई ननिहाल मे। बचपना ननिहाल मे। किषेार वय बीती ननिहाल मे। जवानी भी आयी ननिहाल मे ही रहते। झंासी के चार साल के प्रवाास केा छेाड के । बालक मुकेष के जीवन के अठठाइस वर्ष ननिहाल मे ही बीते।

ननिहाल यानी 288 अतरसुइया, रानी मण्डी इलाहाबाद। एक पुराना आधा कच्चा, आधा पक्का मकान। संयुक्त परिवार का एक जीता जागता उदाहरण।

ननिहाल की कहानी भी कम रोचक नही।

भागवती,पार्वती,रुपवती तीनो सगी बहने। तीन नदियां । इत्तफाकन इलाहाबाद मे ही ब्याही गयी। और तीनो को परिस्थितियो ने मिलाया 288 अतर सुइया मे। मानो संगम हो गया हो गया हो गंगा जमुना सरस्वती का।

बडी बहन - भागवती - पति- संगम लाल - निवसाी- ग्राम लेहरा फाफामउ - प्रयाग
मझली बहन- पार्वती देवी - पति - अनंत प्रसाद- निवासी - अतर सुइया -  प्रयाग
छोटी बहन - रुपवती - पति - हजारी लाल- निवासी - अज्ञात- प्रयाग

स्ुाना है। सांवली सलोनी, धीर गंभीर पतली दुबली भागवती देवी काफी खुष थी। जब वह ब्याह के लेहरा आयी थी। और खुष भी क्यों न होती। ससुराल मे सैकडों बीद्ये की जमींदारी। बडा और खूब बडा सा मकान। दर्जनो गाय, भैस दरवाजे बंधती। कई कई नौकर चाकर आगे पीछे टहल बजाते । पति संगम लाल भी तो सैकडों मे एक थे। लम्बाई छह फुट। खूब गोरा रंग। इकहरा पर बंधा बधा षरीर । द्यनी मुछे। सधरणतःषातं पर जिददी स्वभाव। भागवती देवी जब अपने ओसारे से झाकती तेा अपने भाग पे रीझ रीझ जातीं।
आजादी की लडाई लगभग अपने अंतिम मुकाम पर थी। अंग्रेज भी मन बना चुके थे कि अब तो इंडिया छोटना ही बेहतर होगा। पर इन सब बातो से लेहरा निवासी इस कायस्थ जमिंदार परिवार को क्या करना था।

और च्ूंकि। आजादी अभी मिली न थी। जमिंदारी प्रथा भी टूटी न थी। लिहाजा जमिंदार पुत्र बाबू संगम लाल केा क्या चिंता। चिठठी पत्री लायक तो उर्दू फारसी गांव मे ही पढ लिया था। लिहाजा सुबह षाम द्यर मे खाना खाना। देापहर भर खेत खलिहान द्यूमना। षिकार करना। द्योडा चलाना। और मजे से रहना। बस इसी मजे मजे मे दो पुत्र व एक पुत्री के पिता भी बन गये थे। पर अभी भी भविष्य के लिये न किसी नौकरी की चिंता न व्यापार की। अपढ भागवती देवी मे भी कहां इतनी अकल की वही कुछ भविष्य की सेाचती। वह तो पूरी तरह से वर्तमान को सब कुछ मान उसी मे मगन रहती।

पर बेचारी भागवती  देवी को क्या मालुम था कि उनकी सौतेली सॉस के मन मे क्या चल रहा है। और बाबू संगम लाल भी अपने सौतेले भाइयो व मॉ को ही सब कुछ समझते थे। उन्हे भी अपनी सौतेली मॉ के मन का मैल कभी न दिखा था।

मन का मेैल दिखा। पर उस दिन। जब एक दिन।
काले काले बादल खेत के उपर उडते तो नजर आते पर बिना बरसे आगे बढ जाते। अमावष अभी दो दिन दूर थी। पर गांव की रात काली और काली नजर आने लगी थी। संगम लाल इन सब से बेखबर अपनी धुन मे कहीं से चले आ रहे थे।

अभी ओसारे मे ही थे कि देखा। उनके जमिंदार पिता नंगी खाट पे पैर लटकाये बैठे हैं। दोनेा कुहनी द्युटनो पे व मुह हथेलियों से छिपा हुआ। बेटे ने बाप को कभी इस तरह चिंतित न देखा था। लडके ने देखा। पूछा ‘ बाबू का बात है। काहे चिंतित अहा।’ बाप ने कहा ‘ कुछ नाही संगम लाल तू जा आपन काम करा।’ ‘नाही हम ना जाब पहिले कारन बतावा’ लडके ने कारन जानने के लिये बल दिया। बाप ने गहरी सांस ली । काले मेद्यों केा देखा । कहा
‘कुछ नाही संगम लाल तोहार माई कलह करे है।’
‘काहे’
‘उनके दिमाग मे आहे कि तोहरे वजह से उनके लडकन माने तोहरे सौतेले भाइयन का जमीन मा हिस्सा कम मिले’
‘बस इत्ती से बात के लाने अम्मा नाराज है। तो समझा तोहार चिंता खतम होइयी’
बाबू कुछ समझते न समझते कि संगम लाल यह कह द्यर के अंदर हो गये।
रात कटी। सुबह हुई।
संगम लाल ने इक्का बंधवाया। जरुरत भर का सामान रखा। अपनी पत्नी,बडी लडकी रम्मो को व दोनो लडको त्रिलोकी नाथ व त्रिभुवन नाथ को इक्के पे बिठाया और चल दिया। बाबू व अम्मा पूछते ही रह गये संगम लाल क्या बात है।
संगम लाल चल दिये। बिना कुछ सोचे। बिना कुछ विचारे। कहां जाना है। क्या करना कछ निष्चित नही। सब कुड अनिष्चित।
इक्का गांव के बाहर आगया। इक्केवान ने पूछा ‘बाबू केहर चली’। संगम लाल अचकचाये। कुछ समझ पाते कह पाते। तभी, इस संकट की द्यडी मे। भागवती देवी ने उन्हे उबारा। धीरे से कहा ‘चला पहिले पार्वती के हिया चला। हुअंई कुछ सोचा विचारा जाईं।’ बात जंची। इक्केवान को इषारा किया। इक्का षहर इलाहाबाद की ओर मुड गया।

इक्का हिचकोले खाता चला जारहा है।
बच्चे खुष हैं, मौसी के यहां जा रहे है। भागवती असमंजस मे है समझ नही पा रही कि अचानक पति ने इतना बडा र्निणय कैसे ले लिया। संगम लाल क्या सेाच रहे थे। कहा नही जा सकता। द्यर का इक्कावान सौतेली मॉ को गाली दे रहा था। साथ ही संगम लाल मालिक को गुस्सा थूक धैर्य से काम लेने की सलाह दे रहा था।

इक्का रुका। मझली बहन पार्वती देवी के द्यर के सामने। 288 अतर सुइया के सामने।

अचानक इस तरह बडी बहन को परिवार सहित आया देख छोटी बहन समझ हर नही पा रही कि वह ऐसे मौके पे खुष हो या दुखी । पर परिस्थिति को समझते हुए बहन बहनोई का स्वागत सत्कार किया। दुख सुख पूछा। पान पत्ता पूछा।

गाढे समय बहन बहनोई काम आये।
पार्वती देवी और पति अनंत प्रसाद ने कुछ राय मष्विरा किया। बोले ‘जीजा काहे परेषान हौ। इतना बडा द्यर किस काम आयेगा। हम लोगो के न आल औलाद क्या करना है। तुम लोग यहीं रहो। हम लोगो को भी अच्छा लगेगा। चार बच्चे द्यर मे रहेंगे।’

चलो छत की समस्या तो फिलहाल आसानी से हल हो गयी। पर।
खाना पीना कपडा लत्ता, रोजी रोटी घ्
साढू अनंत प्रसाद प्रेस मे कम्पोजीटर - थोडी कमाई
बाबू संगम लाल - कम पढे लिखे - किसी भी काम धंधा से अनुभव हीन।
क्या किया जाय। क्या न किया जाये। अजब समस्या।
इस समस्या का भी समाधान हुआ। संगम लाल के एक पटटीदार वकील ठहरे। नामी वकील। सुझाव दिया तुम कचहरी मे मुंषीगीरी क्यों नही करते। चलो किसी वकील के यंहा लगवा देंगे।
नई राह खुली। नया सबेरा हुआ। नयी जिंदगी चल निकली। पैसा कम मिलता पर षुकून तो था।

वक्त अपनी रफतार से चल निकला। कोई खास परिर्वतन नही। सिवाय इसके कि भागवती देवी और दो पुत्रियों की मॉ बन गयीें। मुन्न्ीा देवी, उमा देवी। पर पार्वती देवी के कोई संतान न हुई। षायद ईष्वर ने उनके लिये कुछ और सेाच रखा था।

पंाचो बच्चे। तीन लडकियां- रमा देवी, मुन्न्ीा देवी, उमा देवी। लडके- त्रिलोकी नाथ, त्रिभुवन नाथ। अपनी मौसी के आंगन मे खेलने लगे। बडे होने लगे।

एक और महत्वपुर्ण द्यटना द्यटी।

कई साल पहले 288, अतर सुइया के सामने इक्का रुका था। पर उस दिन साइकिल रिक्षा रुका।
बच्चो ने सूचना दी। पार्वती देवी बाहर आयीं। देखा एक रिक्से पे चार पंाच काले कलूटे, पतले दुबले फटे पुराने कपडे लत्ते पहने बैठे थे। और उसी मे उनकी गहरे सांवले रंग की पतली दुबली पिचके बालेा वाली मॉ बैठी थी।

पार्वती देवी को अपनी छोटी बहन को व भंाजी भांजो को पहचानते देर न लगी। जल्दी जल्दी उनका सब का थेाडा बहुत सामान रिक्से से उतारा गया।

सभी द्यर के अंदर आये। छोटी बहन की हालत देख दोनेा बडी बहने भागवती व पार्वती रोने लगी। छोटी बहल रुपवती तो पहले से ही रो रही थी। बच्चे भी सहम से गये थे।
तीनो बहने ख्ुाव रोयी खुब रोयी, रो लेेने से दिल हल्का हुआ। कथा व्याथा बताई गयी। सुनी गयी।

हजारी बाबू- पांच बच्चो के बाप। बेरोजगारी से तंग आ मिलेटरी मे भरती हो गये। और वहां गये तो न कोई चिठठी न कोई पत्री। न कोई चितां बच्चे क्या खा रहे
होंगे क्या पहन रहे होंगे। कैसे रह रहे होगे कैसे नही रह रहे होंगे।

किसी तरह द्यर के सामान बेच बेच के कई महीने द्यर का राषन पानी बडा लडका हीरा लाल चलाता रहा पर जब कुछ न बचा तो उसे छोटे से बच्चे के समझ मे आया कि अब तो सिर्फ पार्वती मौसी के यहां चले षायद कुछ समाधान निकले।

और इस तरह उस छोटे से हीरा लाल ने अपनी माई छोटा भाई मोती तीनो बहनो  सुषीला, रज्जो व बिटटो को रिक्से मे लादा व पहुंच गया। मौसी के यंहा।

एक बार फिर। पार्वती देवी और अनंत प्रसाद ने मंत्रणा की। निर्णय लिया। कहा।
रुपवती को उपर वाले कोठे मे टिका दिया जाय। और यहीं रहें आगे देखा जायेगा।
उपर वाला कच्चा कोठा। लीपा पोता गया। मिटटी छायी छोपी गयी। झाडू बुहारी की गयी। रहने लायक किया गया।
और रहने लगी छोटी बहन रुपवती अपने बाल बच्चो के साथ।
तीनो बहने रहने लगी । साथ साथ।
सभी के दुख अपने थे। सभी के सुख अपने थे। सभी के कपडे साझे थे। सभी का खाना साझा था। कम था पर अपना पन था।
देष आजाद हुआ। हवा बदली समय बदला। षासन बदला। न बदला तो इस द्यर का भाग्य न बदला।
पर बदलाव आया। हजारी प्रसाद ने अपनी साली पार्वती देवी को जो थेाडा बहुत उर्दू जानती थी। उनका नाम स्कूुल मे लिखा दिया। पढने के लिये। बाबू अनंत प्रसाद काफी नाराज। दरवाजे पर डंडा ले के बैठ गये। आने दो पार्वती को देखे कैसे पढने जाती है। कहीं भले द्यर की लडकियां इस तरह मूड काढे बाहर निकलती है। पर हजारी बाबू ने न जाने क्या द्युटटी पिलायी कि अनंत प्रसाद राजी हो गये। और पार्वती देवी। तांगे मे बैठ स्कूल पढने जाने लगी।
तांगे पे तांगे वाले के सिवा सारी सवारियां जनानी ही रहतीं। तांगे के चारों ओर परदे लगे रहते। अभी तक औरतों ने अपने पैर तो मजबूरी या विरोध मे बाहर निकाल लिये थे। पर परदे नही उतार सकी थी। खैर.....
चलो द्यर मे औरतो लडकियो की पढाई की षुरुआत तो हुई।
पर हालात बद से बदतर होते गये।
बाबू अनंत प्रसाद बीमार हो गये। वैद आये। हकीम आये। ख्ूाब दवा दारु की गयी। बीमारी के चलते ही तीन खण्डो के मकान का एक खण्ड बेच दिया गया। डाक्टर महावीर प्रसाद सक्सेना को। षहर के नामी होम्योपैथ डाक्टर को। सारा पैसा बीमारी ने लील लिया। और मौत ने लील लिया भरी जवानी मे बाबू अनंत प्रसाद को।

बच गयी निःसंतान पार्वती देवी। षायद ईष्वर ने इसी लिये उनकी बहनेा को अपने बाल बच्चे सहित भेज दिया था।

धन्य थी पार्वती देवी भी। अपनी बहनो के बच्चो को ही अपने सगे बच्चो से ज्यादा प्यार दिया। दुलार दिया। अपना धन दिया। दौलत दिया। और उसी मे खुष रहीं।

पढाई लिखाई अब काम आयी। पार्वती देवी को हजारी बाबू ने ही दौड धूप के  प्राइमरी स्कूल मे मास्टरी दिलवा दी । वहां सभी औरते ही टीचर थी। वह सदिया पुर मुहल्ले के छोटे से स्कूल मे जाने लगी।

लेागो ने कहा चलो अच्छा है। इसी बहाने समय कटेगा व दो पैसे भी आयेंगे और किसी का मुह भी नही ताकना पडेगा।
इसी बीच एक और द्यटना द्यटी। हैजा आया। हजारी बाबू की एक लडकी को ले गया। बिटटो को।
दूसरी द्यटना द्यटी। चेचक माई आयी। सारा द्यर उसके कोप से दहल गया। कोई न बचा। ठीक तो सभी हो गये। पर मुॅह पे सभी के छोटे छोटे चेचक के निषान बाकी रह गये। छोटे छोटे गडढों के रुप मे जिसमे न जाने कितने साझे व अकेले के दुख व सुख भरे जाने थे।

इन सब हादसो को भी झेलता हुआ। परिवार जी रहा था। बच्चे बडे हो रहे थे।
हजारी बाबू भी फौज से आये। कई कई काम धंधा किया और छोडा। पर जम के कुछ न किया।

लिहाजा उनके परिवार का खाना उपर कोठे पे बनने लगा अलग। पार्वती देवी भागवती देवी के साथ ही रहती। पर होली दिवाली तीज त्यौहार खाना पीना एक ही चूल्हे मे होता।

धीरे धीरे रमा देवी बडी पुत्री संगम लाल की। संेालह की होने को आयी। समय के हिसाब से विवाह योग्य तो कब की हो गयी थी।
रिष्ता ढूंढा जाने लगा। लडके देखे जाने लगे।

संगम लाल व हजारी बाबू षादी तो तय करे के आगये। रईस के यहां । पर अपने यहां क्या है। न सोचा न विचारा।
ईष्वर बडा दयालू है। हर एक की मदद करता है।
संगम लाल की भी गांव ही छूटा था। संबंध तो नही। लडकी का विवाह है। गांव से गल्ला पानी आया। नौकर चाकर आये। हाथ बटाने नाते रिष्ते दार आये। कुछ सुविधा बनी। पत्नी भागवती देवी ने अपना पिटारा खोला। गहने बेचे कुछ रेहन रखा। कुछ उधार लिया।
रमा देवी की षादी हो गयी धूम धाम से। बाबू गोविंदा राम से।
बाबू संगम लाल उसी तरह मुंषीगीरी करते रहे। मूडी आदमी कभी जाते कभी न जाते। आमदनी भी ज्यादा न थी।

अर्थिक तंगी मुह बाने लगी। कर्जदार चिल्लाने लगे। अजब समस्या। बडे लडके अभी बी ए कर रहे थे। छोटे त्रिभुवन तो हाइस्कूल मे ही थे।

क्या किया जाये क्या न किया जाये। द्यर की माली हालत दामाद गोविंद राम की नजरो से छुपी न रह सकी। एक दिन उन्हो ने खुद अर्जी लिखी। दस्तखत कराया त्रिभुवन बाबू से और कह सुन के कचहरी मे लगवा दिया। बतौर पेषकार। हालाकी उमर एक दो साल कम थी। पर कह सुन के उन्होने सब कुछ ठीक करा लिया।

आमदनी का नया और निष्चित जरिया बना। परिवार ने चैन की सांस ली। कर्ज उतरने लगा। जल्दी जल्दी।

त्रिलोकी नाथ ने बी ए किया। वकालत किया। अभी नौकरी लगी न थी की विवाह हो गया। बडे खानदान मे। लक्ष्मी देवी से।
मुन्नी देवी ने आठ पास किया। विवाह हो गया। बाबू अम्बर नाथ से।
कन्या दान किया पार्वती देवी ने।
मुन्नी देवी ब्याह के आयींे। ससुराल। कीडगंज तमाकू वाली गली। यहां भी भरापूरा पूरा संयुक्त परिवार। दो जेठ। दो नंनंद। एक षादी षुदा। एक कुंवारी। सास। दो जेठानियां। सभी कुछ तो था। गर नही था तो ससुर और अपना निजी मकान। ससुर जी का मानना था जर जोरु जमीन झगडे की जड होती है। लिहाजा उन्होने कोई मकान नही बनवाया। ताजिंदगी। और न ही उनके पिता ने।

अभी नई दुलहन की मेहंदी भी नही छूटी थी। बडी जेठानी ने कहा बहूरानी अब तुम द्यर बार सम्हालो और वह चल दी अपने द्यर कानपुर। उन्ही की देख्ीा देखा छोटी देवरानी भी कानपुर चल दी। अपनी ग्रहस्थी मे। द्यर मे रह गयी बूढी सास। छोटी अनब्याही बहन और दोनेा पति पत्नी।

भोला बाबू अपनी छोटी सी तन्ख्वाह मे कतर ब्यौत करते द्यर चलाने लगे।
क्ुछ दिनो बाद। दोनेा इटावा चले आये। बूढी सास बारी बारी से तीनो लडकेा के पास रहने लगी। छोटी बहन भी ब्याह के अपने द्यर चली गयी।
म्ुान्न्ीा देवी कभी पति के साथ रहती तो कभी मायके। उनके साथ रहते उनके दोनेा लडके मुकेष, ब्रजेष।
बालक पढ रहा है। बालक बढ रहा है। बालक पल रहा है। ननिहाल में। अतर सुइया मे। तीर्थ राज प्रयाग मे। इलाहाबाद मे।
इलाहाबाद।
पंडो का षहर। वकीलो का षहर। बाबुओं का षहर। साहित्यकारो का षहर। नेताओ का षहर। पढने वालो का षहर। पढाने वालो का षहरा। लेखको का षहर। प्रकाषको का षहर।ठलुओ का षहर। बतकही करने वालो का षहर।
होली मे हुडदंग व मस्ती मे डूब जाने वालो का षहर
दषहरा मे रोषनी से नहा जाने व राम मय हो जाने वालो का षहर
दिवाली मे पटाखेा,जुआं व खील बतासो मे रम जाने वालो का षहर
मुहर्रम मे हाय हुसैन हम न हुए की आवजो से गुंजाने वालो का षहर
ऐसे माहौल मे रहना, पलना,बढना कितना रोचक था। कितना आनंददायक था। यह तो वही बता सकता है। जिसने उस माहौल को देखा हो। जाना हो। महषुषा हो। जिया हो।

मुकेष पांचवी मे है। ब्रजेष चार क्लास मे।छोटी बहन षालिनी अभी तीन साल की ही है। स्कूल नही जाती।

भेाला बाबू। एक और तबादला।
फतेहपुर से झांसी।
नया षहर। नये लोग। नया माहौल। कहीं कुछ पुराना या जाना पहचाना नही।  अजाने षहर मे भेाला बाबू को पता लगा कि डी सिंह यानी धानेष्वर सिंह। यानी मास्टर खयाली राम के बडे पुत्र। पुराने परचित व इटावा मकान के मकान मालिक के लडके। यहीं रह रहे है।

स्ीापरी बाजार मे। रेलवे कॉलोनी मे। परिवार सहित।
दोनो दोस्त एक बार फिर मिले। खुष हुए। पुरानी बाते याद की गयी। नयी बाते कही गयी, सुनी गयी। कौन मर गया कौन अभी जिंदा है जाना गया बताया गया। पुराने सूखे पडे संबंध फिर हरियाए।
डी सिंह बोले ‘भाई साहब पहले बताइये आप कहां ठहरे है।’ भोला बाबू मुस्कुराये ‘आफिस मे’
‘आफिस मे कोई गेस्ट हाउस वगैरह है क्या’
‘गेस्ट हाउस तेा नही है’
‘फिर’
‘अरे भाई अकेले आदमी की ग्रहस्थी कितनी। एक अटैची,दो चार जोडी कपडे,दाडी बनाने का सामान,एक चादर और क्या।’
‘खाना पीना’
‘होटल मे’
‘पर ऐसे कब तक चलेगा’
‘मकान ढूंढ रहा हूं। कोई ठीक ठाक मकान मिलते ही षिफट हो जाउंगा तुम्हारी निगाह मे कोई हो तो बताअेा’
‘मकान तो मिल ही जायेगा पर अभी तो आप अपना सामान उठाइये और चलिये’
‘कहां’
‘घर और कहां’
भोला बाबू के मना करने के बावजूद डी सिंह उन्हे अपने घर ले आये।
दो तीन दिन मे ही मकान मिल गया। मसीहा गंज मे। सीपरी बाजार मे। रेलवे कालोनी के पास। डी सिहं के घर के पास।
मसीहा गंज ।
झांसी। सीपरी बाजार एरिया मे बसा मोहल्ला। जहां किसी जमाने मे अंगेजो के छोटे मोटे आफिसरान व एंग्लो इंडियन व कछ इसाई लोग रहते थे। कुछ काले इसाइ तो अभी भी रहते आ रहे है।सन सैंतालिस मे देष आजाद हुआ। अंगेज व एंगलो इंडियन भारत छोड के चले गये। देष विभाजित हुआ। कुछ पंजाबी पाकिस्तान छोड यहां आ गये। और इसी मुहल्ले मे बस गये।

एंगलो इंडियन व अंग्रेजेा के खाली मकानो को इन विस्थापित पंजाबियों को दे दिये गये।
इन्ही मकानो मे से एक मकान मे मिस्टर ढींगरा का मकान । जिसके पिछवाडे को उन्होने सुविधा रख रखाव की सहुलियत से निष्चिंतता के अलावा कुछ आंथिर्क लाभ के लोभ से किराये पर दे दिया गया था। भोला बाबू को।

दहेज मे मिली नेवाड की पलंग। दुलहन को दिया जाने वाला सुहाग का टीन का बक्सा। अम्मा कल्ली देवी दवारा दिया गया एक और टीन का बक्सा। टेबल फेैेन व कुछ जरुरियात के सामान। मुन्न्ीा देवी। मुकेष,ब्रजेष व तीन साल की छोटी सी षालिनी। लदे फंदे इलाहाबाद से झांसी आ गये। भोला बाबू के साथ। षायद जून का दूसरा सप्ताह रहा होगा।
धूप तेज। गर्मी बेइंतहां।
पहाडी इलाका। दिन मे पथरीली जमीन आग उगलती । रात ठंडाती।
बच्चो ने पहाड न देखा था। वे कूतुहल से पहाडी की चोटी को देखते जो उनके घर  से साफ साफ दिखाई पडती। वे पहाड पे चढने का सपना देखते। पर पहाड पर ले कौन जाये।
यहां की एक और बात बच्चो को अजीब लगती। घर घर के सामने खुदे गडढे कुछ पक्के कुछ कच्चे। बाद मे पता लगा इनमे नल लगे है। पानी कम आता है। पानी का प्रेषर नही रहता। लिहाजा लोग अपने नलो मे आने वाले एक एक बूंद तक को भर लेना चाहते थे। उस समय तक मोटर से पानी खींचने का चलन न था।
तीन नदियो के संगम के किनारे रहने वाले बच्चो व मुन्न्ीा देवी ने पानी की किल्लत नही देखी थी।
लोग कहते पानी समय से भर लेा नही तेा नल चला जायेगा। तो इन बच्चेा को आर्ष्चय होता नल तो लोहे का होता है। अपने आप कैसे चला जाता है।

षालिनी तो छोटी ही थी। अंजान। पर मुकेष ब्रजेष को यहां बिलकुल अच्छा न लगता बार बार याद आता। अतस सुइया। नानी का घर।

हमउम्र ममेरे मौसेरे भाइयो के साथ साथ खेलना। लइया नानी के दवारा लायी लइया,लडडू व छोटी मोटी खाने की चीजें। गर्मीं के दिनो मे बाल्टियां भर भर के छत को ठंडा करना। फिर गीली छत पर लोट लगाना।घंटो पानी मे भीग भीग कर नहाना। छत पर पूरे परिवार के साथ सोना। नानी का कहानी सुनाना।
भेाला बाबू परिवार ले के आये। तो डी सिंह मिलने आये। परिवार सहित।
भेाला बाबे का पांच लोगो का परिवार। मिया बीबी। दो लडके। एक लडकी। लडकी सबसे छोटी।
डी सिंह का भी पांच लोगो का परिवार। मिया बीबी। दो लडके। एक लडकी। लडकी सबसे छोटी।
दोनो परिवार अब  लगभग  रोज ही एक दूसरे के घर आने लगा जाने लगा। मानो इटावा का छूटा साथ फिर जुड गया हो। दो परिवार एक हो गये। बस रहाइस अलग अलग थी।
जुलाई आयी। स्कूल मे नाम लिखाया गया।
मुकेष। छठी क्लास। सरस्वती इंटर कालेज की सीपरी बाजार साखा में।
ब्रजेष व षालिनी। पास के पा्रइमरी स्कुूल मे।
धीरे धीरे जीवन की लाइन एक सामान्य मध्यम वर्गीय तरीके से चलने लगी।
बच्चे सुबह सकूल जाते। दोपहर मे खाना व आराम । षाम घरे के सामने के छोटे से मैदान मे खेलना। धीरे धीरे दो एक दोस्त भी बन ही गये।
भेाला बाबू सुबह अपनी पुरानी हिन्द सायकिल से आफिस जाते आते। खाना कच्चे कोयले की अंगीठी मे बनता। कभी कभी मिटटी के तेल से जलने वाले स्टोव पे भी खाना बनाया जाता। सुबह दाल चावल रोटी सब्जी पूरा खाना बनता। रात को पराठा सब्जी।

पढाई मे मुकेष बाबू षुरु से कोई खास अच्छे नही रहे।पर किसी तरह पास हो जाते कभी ग्रेस मार्क से। तो कभी करीबी न्रबरो से। हां कभी सालाना इम्तहान मे फेल नही हुए। ग्यारहवी क्लास तक।
झांसी। सरस्वती ईटर कालेज मे ही।
छठी पढा .... पास हुए
सातवी पढा .... पास हुए
आठवी पढा ... पास हुए
स्कूल कालेजो मे गर्मी की छुटिटया हुई हर साल की तरह इस बार भी सभी मुन्नी देवी अपने तीनो बच्चो के साथ। इलाहाबाद चली आयी गर्मियों की छुटिटयां मनाने।
बच्चे खुष। बच्चो को ननिहाल मे अच्छा षुरु से ही अच्छा लगता रहा है।

गर्मी की छुटिटयां खतम होती इस के पहले ही भेाला बाबू आये। खुषी ले के आये। खुषी थी,उनका तबादला इस बार इलाहाबाद हो गया था।
इस खबर से सभी खुष थे। भोला बाबू,मुन्न्ीा देवी ब्रजेष मुकेष षालिनी तो छोटी ही थी।

एक बार फिर निवाड वाली पलंग खोली गयी। टीन के दोनो बक्सो मे कपडे लत्ते भरे गये छोटा मोटा अंगड खंगड वहीं छोडा गया ।बुंदेलख्ंाड एक्सप्रेस से कारवां इलाहाबाद आ गया।

अब भेाला बाबू भी अतर सुइया के मकान मे रहने लगे। कुछ दिनो बाद उन्होने अलग किराये का मकान लेना चाहा। तो त्रिभुवन बाबू ने ही मना कर दिया।
बोले ‘जो पैसा मकान के किराये पे खर्च करोगे उसी को बचाओ कभी काम ही आयेगे। वैसे अभी यह मकान इतना छोटा नही पड रहा कि चार पांच लेाग न आ सके।’

रानी मण्डी की रीढ सी सीधी  सडक । सडक अतर सुइया चौराहे पे आके चार भागों मे बट जाती है। एक सडक अटाला मुसलमान बाहुल्य बस्ती की तरफ चली जाती है। दूसरी उसके सामने वाली सडक कल्याणी देवी मुहल्ले की तरफ चली जाती है।हिन्दू बाहुल्य मुहल्ले की तरफ। सीधी जाने वाली सडक थाने से बांये मुड मीरापुर सदिया पुर चली जाती है। इसी चौराहे से सटे  आर्य समाज रानी मण्डी हाल से तीसरा मकान।  288, अतर सुइया का पुराना मकान।

सडक से सटा चबूतरा । चबूतरे से सटा सफेद चूने से पुता मकान। आगे की तरफ दो कमरे। दाहिने कमरे के बगल मे गलियारा। गलियारे के बगल मे टटटी घर व स्नान घर।स्नान घर मे दरवाजे की जगह तो है पर दरवाजा नही। गलियारे के सामने आंगन आंगन के दाहिनी ओर एक पक्का कमरा। जो पहले कभी रसोई के रुपे मे इस्तेमाल होता था। आंगन के बांये तरफ रसोंई। खुली हुई। आंगन के पार बरामदा । बरामदे के दाहिनी ओर उपर जाने की सीढियां। उसके बगल मे एक छोटा कमरा जिसे ‘पटहवा’ कहा जाता। पटहवा के पीछे कोठरी। घर का स्टोर रुम। जिसमे सारा राषन पानी व बर्तन भाडे व बक्से वगैरह रखे जाते। बरामदे के पार मे कच्चा कमरा। घर का खास कमरा।

भेाला बाबू व मुन्नी देवी को पटहवा दे दिया गया। रहने के लिये। वैसे कोई भी आदमी कहीं भी सो सकता था। रह सकता था। पर कुछ जगहे जरुर कुछ लोगो के नाम से जानी जाती। जैसे बाहर का एक कमरा लइया नानी का कमरा था। उसी कमरे को भगवान वाला कमरा भी कहा जाता। पुरानी रसोइं को तोड कर बना नया कमरा त्रिभुवन मामा का कमरा कहलाता। पहली मंजिल पे बना नया कमरा मोती मामा का कमरा कहलाता।

यही अधपक्का मकान अब तक कई परिवारो को अपने अंदर पनाह दे चुका था। 1963 तक इसमे रहने वाले स्थायी सदस्यो की संख्या लगभग पच्चीस तो रही ही होगी।

इलाहाबाद। तीज त्यौहार मे ही नही अपना रगं और मिजाज बदलता है। यहां के हर महीने का भी अपना अलग मिजाज है। अलग रंग है।
जरा नजारा तो देखिये।

दिसंबर जनवरी। माघ पूस का महीना। गंगा स्नान का महीना। कल्पबास का महीना।कई हफते पहले से ही  गंगा किनारे मीलो फैेले रेतीले मैदान मे उग आता है एक षहर। तम्बुओ का टंेटो का। एक अस्थाई षहर। जिसमे षहर,देष परदेष सभी जगह से श्रद्धालू आ आ कर रुकते है। कुछ पुण्य बटोरने। कुछ पा लेने।महीने भर कडकडाते चिल्ले जाडे मे खुले आकाष मे कथरी गुदरी लपेटे ठंड सहते बस एक ही आषा एक ही इक्षा बस गंगा स्नान हो जाये।
कहीं प्रवचन हो रहे है। कहीें घंटे घडियाल बज रहे हैं। कहीं अखंड र्कीतन हो रहा है। कही तरह तरह की प्रर्दषिनियां लगी है। चाट पकौडे ,खाने पीने की टेम्परेरी दुकाने खुली है। चौबिसों द्यंटा लोगों का आना जाना लगा है। माने गंगा द्याट पर एक नया षहर बसा दिया जाता हेा।

लइया नानी भी कल्पबास करती है। एक महीने गंगा किनारे ही कुटिया मे। सुबह तीन बजे उठना। गंगा नहाना। पूजा करना। बिना कुछ खाये पिये वहां से कुछ दूर इक्का से कुछ दूर रिक्सा से व कुछ दूर पैदल चल कर सदिया पुर स्कूल आना फिर यहां से जाकर फिर गंगा नहाना। पूजा करना और अपने ही हाथो खाना बनाना खाना। कठिन तपस्या। पर बिना किसी परेषानी के बिना किसी थकान के वे यह सब करती थी। पता नही कहां से इतनी ताकत पातीं।

कभी कभी हम सभी बच्चे व घर वाले भी उनकी गंगा किनारे वाली कुटिया मे जाते थे। गंगा स्नाना करते। वहीं गंगा किनारे रेत मे मीलो पैदल चलते। मेला देखते। कुटिया मे बैठ घर की बनी पूडी सब्जी खायी जाती। जलेबी का मजा लिया जाता। दुनियावी परेषानियो से दूर वे बचपन के अलग ही सुहाने दिन थे।

जनवरी खत्म। माघ मेला खत्म। जाडा खत्म। चिल्ला जाडा।

फरवरी। फागुन की बहार अभी दूर ही है।  पर बसंतपंचमी  से ही होली का डंडा चौराहे चौराहे या होलिका स्थल पे गाड दिये गये है।
नखास कोना,चौक,कटरा सभी जगह के बाजार व दुकाने रंग, पिचकारी व होली के समानो से लैस  हो रहे है। मुसलमानी बस्तियों मे पिचकारियां बन रही है। रगं की पुडिया व पैकेट बनाये बेचे व खरीदे जा रहे है।

मार्च। अजब माहौल होता है। एक तरफ यू पी बोर्ड के बाबू,अफसर चपरासी,स्कूल के टीचर व स्टूडेंट सभी र्बोड की व सालाना परीक्षा की तैयारियों मे लगा है। तो दूसरी तरफ लोग होली की मस्ती मे डूबने लगे हैे।

होली है। सारा इलाहाबाद रंगा है। चौक,नखास कोहना, जानसेन गंज,बहादुर गंज मे होलिहार हुडदंगा रहे है। लडको के झुंड के झुंड जुलूस बनाये बाजे गाजे के साथ निकल रहे है। सारे श्षहर मे रात से ही होली जलने के समय से ही लाउडस्पीकर मे गाने बजने लगे है। लोग थिरक रहे हैं। नाच रहे है। छतो के उपर से लडकिया औरतें झाक रही है। लडके उन्हे देख देख गुब्बारे व रंग फेंक रहे है। लडकियां हंसती हुई छिप जाती हैं। हर आदमी अपनी  मस्ती मे है। मस्ती रंग की। मस्ती भांग की ।मस्ती कच्ची पक्की दारु की। मस्ती मौसम की। मस्ती त्यौहार की।
दुनियावी परंषानियां पता नही कहां बिला जाती थी उन दिनो।

अप्रैल। आधा अप्रैल बीतते न बीतते स्कूलो के यू पी बोर्ड के इम्तहान खत्म हो चुके होते हैं। सालाना इम्तहान के खत्म होने की खुषी बच्चो के चेहरे पे सहज देख्ीा जा सकती है। तो अभिभावक व स्कूल टीचर लोग भी कम राहत की सांस नही लेते।
मौसम भी कुछ कुछ गर्माना षुरु कर देता है। दोपहर को सडके व कमरे तपने लगती हैं। बाजार व खरीददारी कम होने लगती है।
जो लोग होली मे रंग व पिचकारी बेचते थे उन्हे अब तरबुज ककडी व खरबूज की ढेरियां लगाये देखा जा सकता है।

मई, जून। सडी गर्मी। चिपचिपी। धुप इतनी कि दोपहर को घर के बाहर निकले नही कि चमडी जल जाये। छाहोै चाहत छाहं। दोपहर को सडके सूनसान हो जाती हैं। स्कूल कालेज मे सन्नाटा पसरा रहता है। सारा षहर सोया सोया सा रहता है।

जुलाई। बरसात का महीना। अभी फुहारे षुरु भी नही हुई है। सात जुलाई। सभी स्कूल खुल गये है। छाटे बडे सभी बच्चे नये स्कुल मे या नये क्लास मे जाने के लिये परेषान है। खुष है। मॉ बाप बच्चो के एडमीसन के लिये दौड धूप कर रहे है। किताब कापियो की दुकाने भीड ये भरी है। प्रकाषक व मुद्रक व्यस्त है। खुष है। अजब हलचल है।

अगस्त है। इसी महीने 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस मनाया जायेगा। इसी महीने रक्षा बंधन का त्यौहार भी है। नाग पंचमी है। पूरे षहर मे आस पास से संपेरे आने लगे है। उनकी बीन की धुन व नागो के जोड जगह जगह देखे जा सकते हैं। नाग पंचमी के ही दिन जमना नदी के किनारे बलुआघाट मे मेला लगेगा। रोषन बाग गुडिया तालाब पे गुडिया का मेला लगेगा। लडकियां अपनी बनायी गुडिया ले के आती हैं। लडके उसे पीटते हैं। यह क्यो होता है। पता नही। कब से होता है। पता नही। पर गुडिया तालाब इस दिन के अलावा साल के बाकी दिनो मे तो गंदगी से भरा रहता है।

सितंबर। जिंदगी अभी सामान्य तरीके से चलना षुरु ही की है। पर उधर पजावा,पथरचटटी व अन्य रामलीला कमेटियो की मीटिंग षुरु हो गयी है। अगले ही महीने तो दषहरा है। इलाहाबाद का  खास त्यौहार। जो धीरे धीेरे इसकी पहचान बनता जा रहा है। अपनी तैयारियो के कारण। अपने विषेष उत्साह व तरीके से मनाये जाने के कारण।

अक्टूबर। गुलाबी जाडा। लोग बाग सुबह से ही सूरज के उगते ही छतो मे आने लगते हैे। धूप का आनंद लेने। औरते कपडे सुखाती है। किषेर और कुछ वयस्क भी पतंग उडा रहे है। बुजुर्ग धूप सेंकते सा अखबार पढते बैठे हैं।

इसके अलावा पूरा षहर दषहरे की तैयारी मे मषगूल है। कहीे भगवान की चौकियां सजाई जा रही है।
अतरसुइया पजावा रामलीला कमेटी के क्षेत्र मे आता है। पजावा रामलीला कमेटी की रामलीला अतरसुइया मे थाने के पीछे बने रामलीला मैदान मे होती है। नौ रात्र के नो दिनो यह कमेटी अपने राम लक्षमण व सीता जी की मूर्तियो केा। खुल्दाबाद के षिवाले के पास से सजा कर चौकी मे बिठा पूरी सज धज व बाजे गाजे के साथ बरात के रुप मे नखास कोहना। रानी मण्डी से होते हुए अतर सुइया के रामलीला मैदान मे पहुचती है।

रामलला की सवारी 288, अतर सुइया के सामने से भी गुजरती है। सभी बच्चो केा कितना ज्यादा उत्साह रहता है।

नवम्बर। दीवाली की चहल पहल। चौक, सिविल लाइन,कटरा,दारागंज के बाजार जो दषहरे मे रोषनी से नहा रहे थे। अब वहां की दुकाने खील बतासो से भरी पडी है। काषी आर्नामेंट व ज्वैलरी की दुकाने बिजली की रोषनी से सजी है। सडक के किनारे तखतो पर पटाखो की दुकाने सज रही है।

दिसंबर। कुहरे व जाडे से अटापटा इलाहाबाद। कुछ कुछ अलसाया व हौले हौले अपनी दिनर्चया मे मगन इलाहाबाद।

कहानी षुरु होने के वक्त
विधवा निःसंतान पार्वती देवीे अपनी देानो बहनो केा ले के रह रही है। 288, अतर सुइया इलाहाबाद मे।
बडी बहन... भागवती देवी। पति संगम लाल।
उनके लडके ... त्रिलोकी नाथ,त्रिभुवन नाथ
लडकियां ... रमा देवी,मुन्नी देवी,उमा देवी
छोटी बहन .... रुपवती देवी। पति हजारी लाल।
उनके लडके .... हीरा लाल,मोती लाल
लडकियां... सुषीला देवी, राजरानी उर्फ रज्जेा
भागवती देवी सगी नानी जल्दी ही स्वर्ग सिधार गयींे।
बडी लडकी रमा देवी भी जल्दी ही दो लडकियां व तीन बच्चो केा छोड स्वर्ग सिधार गयीं। जिनकी छोटी लडकी रेनू व छोटे लडके नारायन श्रीवास्तव उर्फ गुडडू भी मामा त्रिभुवन नाथ ले आये और वे भी यंही पढने लगे रहने लगे।
त्रिलोकी नाथ एल एल बी पढने के बाद। एकाउंटस आफिसर बन बी एच एल भोपाल अपनी पत्नी लक्ष्मी देवी के साथ चले गये।
उमा देवी की अपने पति से बनी नही लिहाजा वे भी अपने मायके अतर सुइया मे ही रहने लगी।
सुषीला देवी अपने पति बाबू अगम प्रसाद के साथ कटरे मे ठीक ठाक जीवन यापन कर रहीे थी।
हीरा लाल ने षादी ही नही की। षायद उन्होने षराब के साथ ही निकाह कर लिया था। चलो अच्छा ही रहा। कुछ और जिंदगिया बरबाद होने से बच गयी। यह अलग बात है कि उन्होने अपनी षादी तो नही की पर र्दजनो षादिया करवाई है।
मोती लाल...  डी ए वी इंटर कालेल मे स्कूल मास्टर । कम ही उमर मे एक दो साल की लडकी संचिता उर्फ बबली व आठ दस माह के  बालक बबलू को व जवान पत्नी रेखा को छोड गये।
मोती लाल के मरने का गम हजारी लाल ज्यादा दिन न सह पाये मात्र दस महीने बाद ही गुजर गये
इन्ही सब हालातों और हादसों के बीच वक्त अपनी रफतार से आगे बढता जा रहा है।
पर 288 अता सुइया का परिवार अपनी उसी सुस्त रफतार से बढरहा है। रफता रफता। कहीं कोई हडबडी नही कहीं कोई जल्दी नही।

और इसी तरह रफता रफता बढ रहा था इलाहाबाद।
नखाष कोहना,अटाला,दरियादाद,रोषन बाग --- मुसलमान बाहुल्य बस्ती
अतर सुइया,मीरापुर,जीरोरेाड,करेलाबाग ----- हिंदू बाहुल्य बस्ती
सभी बस्तियां आस पास। एक दूसरे से सटी व जुडी। एक दूसरे से हिली मिली।
देष धर्म व जाति के नाम पे मर मिटने वाली बस्तियां।
होेली।--- मुसलमानी बस्ती पिचकारी बना रही है। रंग का ठेला लगा रहे है। द्यर द्यर टोपियां सिली जा रही हैं। बेची जा रही है। बीडी बनाने का काम कुछ कम हो गया है। द्यर के हर छेाटे बडे के पास काम है। सभी पैसे कमा रहे है। द्यर द्यर चूल्हा जल रहा है।
दीवाली  --- मुसलमानी बस्ती पटाखे बना रही है। द्यर द्यर मिठाई के डिब्बे बनाये जा रहे है। बेचे जा रहे हैं।
रमजान का महीना -- ईद आने वाली है। हिन्दुओ की दुकाने सज चुकी हैं। नये नये कपडों से। नये नये डिजाइन के जूते चप्पलो से। सौंर्दय प्रसाधन से। जगह जगह रोजा आफतारी की जा रही है।
पर अक्सर इन्ही साझी संेवइयों और गुझियों के बीच अक्सर कंकड पत्थर आजाते हैं। मतलब।
दंगा। हिंदू मुष्लिम दंगा।
मुसलमानी बस्ती --- अल्ला हो अकबर -- आवाज
हिन्दू बस्ती ----- हर हर महादेव  --- प्रतिउत्तर
भागना । दौडना । चिल्लाना ।
-सुना है नखाष कोहना मे पानी को ले के झगडा हो गया है।
-सुना है खुल्दाबाद के पास मसजिद के सामने किसी ने सुअर मार के फेक दिया।
-सुना है आपसी रंजिष थी। दो हिंदुओ को मार दिया गया है।
जितने मुह उतनी बाते हो रही है। पान की दुकानो व द्यरो के चबूतरो मे दस दस पांच पांच का गोल बनाये मामले की तह जानना चाह रहे है।
पुलिस की जीप-सायरन --हूं हूं हूं
सूचना-
षहर मे कर्फयू लागू कर दिया गया है। आप सभी नागरिको से अनुरोध है कि आधे द्यंटे के अंदर अपने अपने द्यरो मे चले जायें। कोई भी व्यकिती बाहर द्यूमता पाया जायेगा। उसे तुरंत हिरासत मे ले लिया जायेगा।
अफरा तफरी मच गयी। आस पास के सभी छोटे छोटे झुण्ड बिखर गये।
सडके सन्नाटी हो गयी। लोग द्यरो मे द्युस गये। तीन चार दिनो से कर्फयू नही खुला।
गुडडू,ब्रजेष,कल्लू,जगन दादा, सुनील बिस्नोई, रज्जन सभी हम उमर लडके ।
दिन भर क्या करें। कैसे कटे। कितनी देर सन्नाटी सडके देखी जाये। दिन भर पतंग भी तो नही उडाई जा सकती। न ही छत पे बेवजह बैठा जा सकता है। ताष व कैरम जैसे इन डोर गेम भी  खेले तो कितनी देर।
और फिर एक दिन ......
खेल खेल मे एक मोहल्ले स्तर की एक संस्था बन गयी। अध्यज्ञ बने निषांत सक्सेना उर्फ जगन दादा। इन आठ दस लडकेा मे सबसे बडे। सचिव गुडडू उर्फ नारायन श्रीवास्तव। उपाध्यश्र मुकेष श्रीवास्तव। नाम रखा गया टाइर्गस क्लब। दस बारह किषोरो और जवान होते बेराजगार लडको की संस्था।

नई उमर की नई पौधों ने सांस्क्रतिक इकाई का नया पौधा रोपा। समाज मे अपनी जडे फैेलाने के लिये। धीरे धीरे यह पौधा अपनी जडें पकडने लगा।

चतुर्भुज सहाय जौहरी। जगन दादा के फूफाजी डायरेक्टर बने है। जगन दादा के ही कमरे मे रिर्हसल हो रहा है। हाईस्कूल की किताब से दो एकांकी चुने गये बहू की विदा व सीमा रेखा। और कुछ बच्चो के नाच व गाने तैयार किया जा रहा है।

सीमा रेखा मे एक छोटा सी भूमिका बाबू मूकेष को भी दी गयी है और उनके साथ उनकी धरम पत्नी की भूमिका पडोस की की ही सीमा नाम की लडकी को दी गयी। दोनी ही काफी खुष। दोनो ही अभी कच्ची ही उमर मे थे पर प्यार मुहब्बत भी कोई चीज होती है समझने लगे थे।एक दूसरे के बीच कुछ अलग सक खिंचाव भी महषूष करते किंतु अभी तक कभी किसी ने इजहार न किया था।
बात सिर्फ आंखो से दिल तक ही सीमित थी। रिर्हषल काफी उत्साह से किया गया। नाटक तैयार भी अच्छा हुआर्। आय समाज हाल काफी खचा खच भरा हुआ था। सीमा रेखा का मंचन बहू की विदा के बाद होना था। बहू की विदा नाटक ने काफी सराहना पायी। पर उसके बाद से पता नही क्या कारण हुआ कि सीमा रेखा का मंचन न हो पाया।
इस तरह मुकेष बाबू के दिल के अरमा दिल मे ही रह गये। नाटक के मंचन न होने से काफी उदास थे पर उूपर से हंस रहे थे कि चलो कोई बात नही फिर सही आखिर संस्था के वाइस प्रेसीडेंट जो थे। अपनी गरिमा को बचाये भी तो रखना था।
यही नही मुकेष बाबू का वह सीमा रेखा वाला नाटक न तो मंच पे ही खेला जा सका और न ही मंच के बाहर।
किषोरवय का अनकहा आकर्षण आगे भी एक दूसरे को अनकहे ही बांधे रहा। संकोच की दीवार पडोस की छतों को न पार कर सकीं। कुछ खुली व कुछ बंद आंखो से देखे सपने जमीन पे उतरने के पहले ही टूट गये।
26 जनवरी 1990 को सीमा की षादी के साथ।
सीमा। पहला प्यार तो नही पर प्यार का पहला अहसास जरुर कहा जा सकता है।
सीमा। गोराई लिये भरा बदन। चौडा चेहरा,बडी बडी ऑखें। मोटी पर खडी नाक। कुल मिलाकर संुदर तो नही पर आकर्षक।
सीमा। अपने नौ दस भाई बहनो मे सबसे छोटी।
घर मे भले ही कितनी ही गरीबी रही हो पर उसके चहरे व बदन को देख कर नही कहा जा सकता था कि वह किसी आर्थिक विपिन्नता से घिरे परिवार से संबंध रखती है।
अगल बगल घर। रोज रोज मिलना। रोज रोज एक दूसरे को देखना कभी छत से तो कभी चबूतरे से। पर एक सीमा मे ही। और यही सीमा रेखा न पार की जा सकी। जिसकी कसक तो नही पर एक मीठी सी हूक के रुप मे अक्सर उठ जाया करती है।

इस तरह प्रेम का पहला अध्याय बिना खुले ही 26.1.1990 को बंद हुआ तो आज तक उस अहसास के दोबारा दीदार न हुए।

यही वह दौर था। जब कि मुकेष बाबू के जीवन केा एक सही दिषा मिलनी चाहिये थी। पर सही रास्ता दिखाता कौन। पिता भेाला बाबू तो बिलकुल भोले थे। उन्हे दुनिया दारी की ज्यादा समझ ही नही थी। माता मुन्न्ीा देवी भी इतनी पढी लिखी नही थी। मामा त्रिभुवन नाथ अपने विषाल परिवार के भरण पोषण मे ही लगे रहते थे। थेाडा बहुत जो मार्गदर्षन मामा मोती लाल से मिल रहा था वह भी उनके अचानक देहावषान से बंद हो गया। बस अब तो अपने आप जो राह मिल रही थी उसी पे मुकेष बाबू व 288 अतर सुइया के सारे बच्चे चल रहे थे। द्यर वालो के हिसाब से तो स्कूल मे नाम लिखा देने भर से ही उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती थी।
लिहाजा मुकेष बाबू बहने लगे, बिना नदी नाले के।
अगर किसी नदी नाले की तरह भी बहे होते तो षायद आज कम से कम किसी नदी मे नही तेा किसी पोखर मे तो जा के मिल ही गये होते। पर उन्हे तो बहना था बिना किसी नदी नाले के किसी और जा के विलीन हो जाना था किसी रेगिस्तान मे। जहां कुछ देर बाद हवा्रऐं कदमो के निषान भी मिटा जाती हैं।

सचमुच जीवन बह रहा था। उन दिनो। सुख और दुख के बीच। गरीबी और अमीरी के बीच।
कई कई धाराओं के बीच।
अघ्यन .... एक धारा
रंगमंच .....दूसरी धारा
अंर्तध्वंध ... तीसरी धारा
इस त्रिवेणी के साथ साथ बह रहा था। त्रिवेणी के तट पर।
दिनर्चया।
सुबह कालेज ... सी एम पी डिग्री कालेज।
दोपहर .... बतकही जगन दादा के कमरे मे। सिगरेट फूंकते और आपस मे झगडते हुए बीतती।
षाम .... नहा धेा के राजा बाबू बनना। और पैदल ही टयूषन पढाने चल देना। उसके बाद नाटकों की रिर्हषल व दोस्तों के बीच बतकही।
रात ... देर द्यर लौट कोने मे ढके खाने को वहीं कोने मे उंकडू बैठ खाना।

सुबह फिर वही दिनचर्या। कई सालों तक लगभग दष सालों तक यही दिनर्चया रही। हां सन पचासी मे ग्रेजुएषन करने के बाद से कालेज का रुटीन कम हो गया था और उसकी जगह एक दो टयूषन सुबह की पाली मे बढ गये थे।
टयूषन ... लगभग दस षाल प्रइवेट टयुषनष लेने का इतिहास रहा है। जो फिर कभी।
पर अभी तो जीवन की उन धाराओं मे से एक धारा रंगमंच के बारे मे ।र्
अाय समाज रानी मंडी का छोटा सा हाल। थेाडे से दर्षक। नवंाकुरित संस्था का पहला सांस्क्रतिक कार्यक्रम। किसी प्राइमरी स्कूल के वार्षिक र्कायक्रम सा। पर उन नवांकुरो मे पूरा उत्साह। और उस उत्साह ने उस छोटे से र्कायक्रम ने नाटको का एक ऐसा जीवाणू मन और मषतिष्क मे डाला जो आज भी रह रह के काटता रहता है।
अंधेर नगरी चौपट राजा,जाति न पूछो साधू की, ताजमहल का ठेका,बकरी, नाटक नही, प्रजाइतिहास रचती है,सिंहासन खाली है और न जाने कितने नाटकों के दर्जनो मंचन इलाहाबाद व इलाहाबाद के बाहर किये। नाटक नही व द्यर का बजट का निद्रेषन किया। अनिल राज स्म्रति नाटय प्रतियोगिता का सफल आयोजन बस यही कुछ, थेाडी बहुत सक्रिय भागेदारी ही तो रही है रंगमंच मे। जिन्होने जीवन मे बहुत से रंग भरे भी हैं तो छीने भी है। पर वे दिन भी अपने आप मे अलग थे, अनमोल थे। अभावों और परेषानियों से भरे जरुर थे पर उन दिनो कुछ कर गुजरने का जुनून हुआ करता था। बहुत कुछ पा लेने का जज्बा रहा करता था।

नाटक। इलाहाबाद मे नाटक करना भी अपना एक अलग अनुभव है।
प्रयाग का रंगमंच मतलब अभाव रंगमंच। धन का अभाव। र्दषको का अभाव। महिला कलाकारों का अभाव। अच्छे व समर्पित कलाकारों का अभाव।
अस्सी व नब्बे के दषको मे इलाहाबाद मे प्रयाग रंगमच इलाहाबाद आर्टिस्ट एसोसिएसन, कैम्पस थियेटर व इप्टा जैसी मात्र दो तीन संस्थाएं थी जो एक स्वस्थ व र्पोढ रंगमंच की तरह सक्रिय थी। जिन्हे हम प्रथम वरीयता वाली संस्थाए मान सकते हैं।
समानांतर व अंकुर जैसी दो तीन संस्थाओ केा हम द्वितीय वरीयता दे सकते थें क्येा कि उन दिनो ये सस्ंथाएं गम्भीरता की तरफ बढ रही थी।
इसके अलावा समयांतर,रंगवीथिका जैसी कुछ छोटी छोटी संस्थाएं थी जो किसी तरह रंगमंच की लौ को जलाये रखे थी। इन्हे हम संर्द्यषषील संस्थाएं कह सकते थें।

इनके अलावा कुछ ऐसी विभूतियां भी थी या अभी भी है। जो अपने आप मे एक संस्था हैं। एक आंदोलन हैं। एक सुस्पष्ट व परिपक्व विचारधारा हैं। जिनमे कुछ प्रमुख नाम आज भी याद हैं। जैसे श्री अजित पुष्कल जी, र्स्वगीय नंदिता द्विवेदी जी, र्स्वगीय श्री राम कपूर जी, र्स्वगीय श्री लक्ष्मी कांत वर्माजी, र्स्वगीय श्री सुकेष षान्याल जी सचिन तिवारी। विनोद रस्तोगी आकाष वाणी के चर्चित बहरे काका।

अजित पुष्कल जी इलाहाबाद मे  विगत दो दषको मे एक मात्र सक्रिय नाटक लेखक
इलाहाबाद के नाटक की बात की जाय और उसमे भी टाइर्गस क्लब जो बाद मे ‘रंगवीथिका’ के नाम से जाना जाने लगा है की बात चले तो श्री अजिन पुष्कल जी का नाम आये बिना हो ही नही सकता।
पुष्कल जी के बारे मे विस्तार से लिखना होगा। पुष्कल जी हिन्दी के उन  गिने चुने नाटक लेखको मे गिने  जा सकते हैं जो आज भी बिना प्रचार प्रसार से काफी दूर रह कर हिन्दी नाटय लेखन के प्रति गहरे से जुडे हैं। उन्ही के अथक प्रयत्न व श्री विभुति नारायन राय के सहयोग से वर्तमान साहित्य इलाहाबाद के नाटय साहित्य का सफल प्रकाषन कर सकी। पुष्कल जी ने न केवल हिन्दी नाटक लिखे बल्कि हिन्दी नाटकों के मंचन के लिये अव्यवसायिक संस्थाओं को अपने भरसक प्रयासो से सम्रद्ध करने मे आज भी लगे हुए हैं। उन्होने न केवल अच्छे नाटक ही लिखे बल्कि मंचन के लिये प्रयास रत रहे। नाटय संस्थांओ को उन्होने अपनी बहुमून्य सलाहते व आर्थिक सुविधांए दी। और आज भी सत्तर साल की उम्र मे व तमाम परेषानियों के चलते हिन्दी नाटक के लिये पूरे समर्पित हैं। हम लोगो को जितना सहयोग व मार्गदर्षन उनसे प्रा्रप्त हुआ उसके लिये तो अलग से ही पूरा अध्याय ही लिखना है।
समय का समय, प्रजा इतिहास रचती है, घोडा घास नही खाता इनके चर्चित नाटक। हिन्दी नाटको की धरोहर है। जिनके दर्जनो मंचन इलाहाबाद व इलाहाबाद के बाहर हो चुके हैं व हो रहे हैं।
नंदिता द्विवेदी एक चमकता सितारा जो पूरी तरह चमकने के पहले ही डूब गया
इलाहाबाद के रंगमचीय इतिहास मे र्स्वगीय नंदिता द्विवेदी नाम का एक ऐसा तारा। जिसने अपनी छोटी सी जिंदगी मे ही कुछ ही नाटको के द्वारा ऐसी धूम मचायी और प्रयाग मे एक स्वस्थ व संपन्न नाटको की परंपरा षुरु की जो आजतक पुराने रंगर्कमियो के दिलो मे छाायी हुयी है। नंदिता जी का नाम याद आते ही मन श्रद्धा से भर उठता है।
इकहरे बदन गेंहुए रंग की गोराई लिये आर्कषक व्यक्तित्व एवं सौम्य स्वभाव की नंदिता जी जो एक बार मिल लेता उनके आर्कषण से बच नही सकता था।  इलाहाबाद के कायस्थ परिवार मे पली बढी नंदिता जी ने भारतिय नाटय विदयालय से रंगमंच की विधिवत षिक्षा लेने के बाद यहीं के डाक्टर श्री सुरेष द्विवेदी से विवाह करके इलाहाबाद के रंगमंच के उत्थान मे तन मन और धन से जुट गयी। जबकी उस जमाने मे उनकी उम्रके यूवक युवतियां एन एस डी करने के बाद सीधे बाम्बे का टिकट कटाते थे। नंदिताजी के साथ मात्र दो नाटक करने का सौभाग्य मिला जिसमे एक नाटक जाति ही पूछो साधू की का निदेंषन उन्होने ही किया था। जबकि दूसरे नाटक बकरी का निदंेषन श्री राम कपूर ने किया था। नंदिता जी के साथ रह कर ही नाटक के बारे मे जान सका था कि नाटक होता क्या है। अगर आज नंदिता जी होंती तो षायद हमारे जीवन की धारा भी रंगमंच के क्षेत्र मे काफी आगे होती। नंदिता जी जैसी एक दो और रंगकर्मी इलाहाबाद मे हो जाये तो हो सकता है। इलाहाबाद एक बार फिर भारत की सांस्क्रतिक साहित्यिक राजधानी कहाने का सौभाग्य प्राप्त करले।कुछ दिनो तक इलाहाबाद आकाषवाणी मे प्रोग्राम एक्यक्यूटिव रह चुकी नंदिता जी ने इलाहाबाद को बहुत कम या कहें गिने चुने नाटक दिये पर उनकी प्रस्तुती नि;संदेह एतिहासिक ही कही जायेंगी। नंदिता जी की आत्मा को षत षत प्रणाम। हालाकि अब इतने सालो बाद उनकी आत्मा ने कहीे और जन्म लेकर दोबारा रंगमंच मे सक्रिय हो चुकी होगी। फिर भी जंहा कहीं भी उनकी आत्मा हो उन्हे प्रणाम।
राम कपूर इलाहाबाद का एक लहीम सहीम रंगकर्मी
राम कपूरजी भी एर्क एसी ही विभूति रहे है। जिन्हे आसानी से नही भूला जा सकता। लम्बा कद, भारी काया, मोटी आवाज के मालिक श्राी राम कपूर जी भीड मे भी दूर से ही आसानी से पहचाने जा सकते थे। वे जब बात करते तो उनकी ऑख,मुह,भौं हाथ, गरदन के साथ साथ पूरा षरीर हरकत मे रहता ऐसा लगता मानो  मंच पेे अभिनय कर रहें हों। उन्होने मुझे अभिनय की कुछ बारीक व बहुमूल्य बाते बतायी थी। जिनक काफी फायदा भी हुआ। उनके संर्दभ मे एक दो संस्मरण लिखने का मोह मै रोक नही पा रहा हूं। पहली द्यटना तो उस वक्त की है जब एक बार नंदिता जी ने अपने बैनर इलाहाबाद र्स्पाटस एवं आर्टिस्ट एसोषिएषन की तरफ से बकरी नाटक करने का निष्चय किया। तो उन्होने अपनी पहले नाटक जाति ही पूछो साधू की पूरी टीम को बुलाया। और र्निंदेषन का भार राम कपूर जी को सौंपा था। तो राम कपूर जी ने पता नही क्या सोच कर मुझसे नट का रोल की तैयारी करने के लिये कहा। तो मैने उनसे गाना न गा पाने की बात बतायी। तो उन्होने कहा कोई बात नही तुम मेरे साथ बैठो तुम्हे मै कुछ ही दिनो मे काम लायक गाना गाना सिखा दूंगा। मै मान गया। दूसरे दिन से व हारमुनियम ले के सा रे गा मा सिखाने लगे। काफी मेहनत के बाद भी मै संगीत का सा भी नही सीख पाया। तो मेरे ही मना करने पर उन्होने नवीन नाम के दूसरे लडके से नट का रोल कराया था।
दूसरी द्यटना भी बकरी के मंचन से ही जुडी है। एक बार बकरी का मंचन फूलपुर मे होना था। उस वक्त मै अपनी संस्था रंगवीथिका मे व्यस्त था। लिहाजा उनके नाटक मे नही जा पा रहा था। तो उन्होने जबरदस्ती मेरे मित्र राकेष वर्मा जी से कह के बुलवा लिया और यह कहा कि मुकेष के फेस एक्सप्रेषन काफी अच्छे होते है। और मैने उनके उस षो मे काम किया था। और वही आखरी मंचन था जो नंदिता जी व राम कपूर जी के साथ किया था। राम कपूरजी किसी संस्था से वैधानिक रुप से तो नही जुडे थे पर वह सभी संसथाओं के साथ उनका जुडाव व प्रेम बराबर रहा है। विरंेद्रर्षमा जी के नाटय उत्सव मे काफी दिनो तक जज बनते रहे हैं। उनसे आखरी मुलाकात मेर ख्याल से अनिल राज लद्यु नाटय प्रतियोगिता मे हुई थी। उसके बाद तेा उनके र्स्वगवास की खबर भी इलाहाबाद जाने पर मिली थी।आज भी जब कभी सिविल लाइंस जाना होता है तो मीना बाजार के सामने परिधान कपडे की दुकान देख कर एक बार उनकी याद जरुर ताजा हो जाती है खैर पर उनकी भी आत्मा जंहा कहीं भी हो ईष्वर उसे षांति प्रदान करे।

सुकेष सान्याल अखाडे व स्टेज दोनो जगह जम के लडे
इनके अलावा मेरे जेहन मे चौथी षख्सियत जो उभरती है। वह र्स्वगीय सुकेष यान्याल जी की है। लम्बा चौडा पहलवानी कद काठी। तांबई रंग। लम्बा खादी का कुर्ता उसके उपर पैंट व पैरों मे चप्पल या सैंडल पहने राम कपूर जी की तरह दूर से ही पहचाने जा सकते थे। बोलते समय थोडा हकलाते जरुर थे पर नाटको के मंचन के दौरान उनकी हकलाहट कोई पकड नही सकता था। सुकेष दा से पहली मुलाकात कहां हुयी यह तो याद नही पर इतना जरुर है कि समयांतर के किसी कार्यक्रम मे ही उनसे मुलाकात हुई थी। पर उनसे द्यनिस्टता तब बढी थी जब उन्होने हमारे कहने से सुल्तानपुर बिहार के नाटय उत्सव मे जज बनने के लिये तैयार हुए थे।एक बार पता नही किस बात पर मुझसे नाराज हो कर लोगो से कहने लगे थे कि मुकेष तो नाटक का आदमी ही नही है। पर कुछ दिनो बाद ही उन्होने मुझको अपने एक नाटक मे भूमिका के लिये बुलाया था। उस नाटक का नाम तो आज याद नही पर उसके बाद से उनसे द्यनिष्टता बढने लगी। सिविल लाइन्स के काफी हाउस के बाहर रोज बैठना उनका षगल था। वहीं वह अपने नाटक के मित्रो से मेल मुलाकात करते। हमारे जैसे बेराजगार नाटयकर्मी पहुंच जाते तो अपनी जेब से चाय व काफी पिलाने मे भी संकोच न करते। पर काफी तभी पिलाते जब उनसे फरमाइस की जाती या हम लोग उनकी काफी तारीफ करते तो खुष हो कर अपने आप काफी पिलाते। कुछ नटखट व यूवा रंगकर्मी जब कभी उनसे काफी पीने काफी हाउस जाते व उनका पैर छूते तो हंस के कहते ‘देखो सिर्फ पैर छूना और कुछ नही’यह कह वे अपनी चिरपरिचित षैैैली मे मुष्कुरा देते और हम सभी हो हो करके हंस देते। एैसे थे सुकेष दा। पातंजलि योग का नाटय षास्त्र मे क्या उपयोग किया जा सकता है इस पर उन्होने काफी काम किया है। जिसके लिये उन्हे बिहार व उत्तर प्रदेष नाटय अकादमी ने पुरुष्क्रत भी किया है।

उनसे आखरी मुलाकात सन 2003 मे उनके ठठेरी बाजार के पुष्तैनी मकान मे हुई थी लगभग बारह सालो बाद भी देखते ही पहचाना। काफी गर्मजोषी से मिले थे। उन्ही दिनो उनके द्ववारा लिखिन नाटक की पुस्तक भी रंगवीथिका ने प्रकाषित की थी। लिहाजा व निषांत भाई से व रंगवीथिका से काफी खुष थे। बंगला भाषी होते हुए भी उन्होने हिन्दी नाटको के लिये काफी काम किया। वे भी विरेंद्र षर्मा जी के लद्यु नाटय प्रतियोगिता के सम्मानित सदस्यों मे से हुआ करते थे। एक समय तो ऐसा आया था कि उनका काफी समय नाटय प्रतियागिताओं मे जज बनने मे ही बीत जाता। बाकी जो बचता वह उनकी योग व भारतीय रंगमंच की कार्यषालाओं को आयाजित करने मे बीतता था।

सुकेष दा के बारे मे भी काफी खुछ लिखा जाना है। आगे फिर कभी।

राम चंद्र गुप्त जी,प्यूष पंत, अंबरीष सक्सेना,मीना, रेनू षाह,राकेष वर्मा, अनिल राज,राजेंद्र मिश्र, अजय केषरी,धिरेंद्र किषेार धीर, कौषल किषोर, अतुल इत्यादि कई र्दजन रंगकर्मी हैं जो अस्सी व नब्बे के दषक मे इलाहाबाद मे सक्रिय थे। उन दिनो इलाहाबाद मे नाटक करने का एक जुनून हुआ करता था। संस्थाओं के पास न धन होता न महिला कलाकार न ही कोई और सुविध पर पता नही कौन सी खब्त होती जो इन सब को नाटक करने के लिये प्ररित करे रहती। मजे की बात तो यह है कि इलाहाबाद मे र्दषको का भी अभाव रहता है। लोगो को नाटक के टिकट द्यर पे मुफत मे पहांचा आओ तो भी नही आते थे। द्यूम फिर कर वही पचीस पचास रंगकर्मी एक दूसरे का नाटक देखते व दिखाते थे। वही वही र्दषक हर नाटक मे देखने को मिल जाते थे। हां इप्टा,थी्र एस व ए एस सी ए के नाटको मे कुछ ज्यादा र्दषक जरुर दिख जाते थे। क्यों कि इन्ही दो तीन संस्थाओ से बुर्जुग व स्थपित रंगकर्मी जुडे थे और ये ही दो तीन संस्थाओं की प्रस्तुतियों मे कुछ गम्भीरता हुआ करती थी। बाकी संस्थाएं सीखने सिखाने की ही दौर से गुजर रहीे थी। हां यूवा व दूसरे नंबर की संस्थाओं मे अंबरीष सक्सेना की अंकुर व अनिल भौमिक की नाटय संस्थाऐ जरुर कुछ ठीक ठाक काम करने की कोषिष मे थी। अंबरीष सक्सेना ने कबिरा खडा बजार मे जैसी एक दो परिपक्व प्रस्तुतियां उसी समय मे की थी। बाकी रंगवीथिका, समयांतर आधारषिला जैसी संस्थाएं अपनी पहचान बनाने मे लगी थी।

हां तो दोस्तों हम टाइर्गस क्लब उर्फ रंगवीथिका की बात करते करते इलाहाबाद के रंगमंच की बात करने लगे। आइये चले फिर हम थेाडा रंगवीथिका परिवार के बारे मे भी थोडा बहुत जान लें।

निषांत सक्सेना विवादित पर र्चचित षख्षियत
रंगवीथिका की बात चले और निषांत सक्सेना का जिक्र नहोे यह वही मसल होगी सूरज की बाते करे बिना उसकी रोषनी के बारे मे जिकर करे।वास्तव मे निषांत सक्सेना रंगवीथिका की रोषनी है। कहा जा सकता है रंगवीथिका ही निषांत सक्सेना हैं और निषांत सक्सेना रंगवीथिका।

निषांत सक्सेना उर्फ जगन दादा। यानी निषांत सक्सेना एक ऐसी षख्सियत। जिसके पास प्रतिभा सोच और लगन की कमी नही है। बस जरुरत है उसके सही रुपांतरण की। वास्तव मे उनकी विचारधारा निगेटिव दिषा मे रहती है। अगर आज यही प्रतिभा सही दिषा मे सही तरीके से निखरी होतीे। तो आज रंगवीथिका ही नही समाज का एक बडा वर्ग उस रोषनी से जगमगा रहा होता।

गोरा रंग। दुबला षरीर। द्यनी दाढी। हाथ मे सिगरेट। दोस्तो की महफिल व मॅुह से बेलौस गालियां। जरुरत मे सब के लिये एक पैर से खडे होने वाले निषांत सक्सेना अदभुत न्रेतत्व क्षमता के धनी हैं। वह हमारे पडोसी,बडे भाई,दोस्त व दुनियावी मामलो के एक र्माग र्दषक भी रहे हैं। उनसे काफी कुछ सीखने केा मिला ।

निषांत सक्सेना उर्फ जगन दादा वल्द श्री षांित ष्वरुप सक्सेना निवासी 290, अतर सुइया। छह भाई बहनो मे पांचवे नंबर के जगन दादा ने ऑख खोली तो अपने चारो तरफ एक बडा व सम्मलित परिवार को देखा। जिसके मुखिया उनके दादा स्व0 डा महावीर सक्सेना थे। जो अपनी बरगदी क्षत्रछाया मे अपने सभी लडके लडकियो के अलावा कई परिवारो केा रखते थे। उनके गावं षहर व दूर दराज का कंोई भी परिचित अपरिचित व्यक्ति उनके द्यर मे पनाह पा सकता था। वह भी जब तक कि वह चाहे। होम्यो पैथी के अलावा उन्हे आर्युवेद का भी काफी ज्ञान था। मेरी माता जी बताती हैं कि मेरे पिता जी का कान काफी दिनो तक बहता था। तो उन्होने एक बार कोई जडी बूटी बना के उनके कान मे डाल दिया था। और वह दिन था कि आज का दिन है लगभग चालिस साल के बाद आज भी उस प्रकार की कोई परेषानी उन्हे नही हुई। उनके बारे मे ज्यादा तो अब याद नही पर जितना सुना है उसके अनुसार यही बता सकता हूं कि इलाहाबाद मे होम्योपैथ डाक्टर के रुप मे उनकी काफी ख्याति थी।

आर्य समाजी विचारधारा मे रंगा यह परिवार आज से लगभग सत्तर साल पहले इस मकान मे उस वक्त आया था। जब बेऔलाद दंपत्ति पार्वती देवी व अनंदी प्रसाद को तीन खण्डो वाला मकान अपने लिये काफी बडा व असुविधा जनक तो लगता ही था इसके अलावा वह काफी आर्थिक तंगी के हालत से भी गुजर रहे थे लिहाजा उन्होने अपने मकान का एक खण्ड बाबू महावीर सक्सेना को मात्र कुछ हजार रुप्येा मे ही बेच दिया जो आज भी 290, अतर सुइया के नाम से जाना जाता है। और एक हिस्सा अपने लिये रख लिया जो 288, अतर सुइया के नाम से जाना जाता है।

पुराने इतिहास को छोड दिया जाय तो कहा जा सकता है कि बाबू महावीर प्रसाद जी का परिवार व पार्वती देवी का परिवार  ष्ुारु से ही पडोसी की तरह न रह कर परिवार की तरह रहता आया है।
बुद्धी के प्रखर जगन दादा का मन बचपन से ही पढाई लिखाई मे न लगा। लिहाजा हाई स्कूल करने के बाद। वे सामाजिक कार्यो मे ज्यादा रुचि लेने लगे। षुरु मे अपने बडे भाई श्री कुवंर षेखर के साथ। आर्य समाज रानी मण्डी की कार्यकारणी मे रुचि लेते रहे। फिर टाइर्गस क्लब अर्थात रंगवीथिका बनने के बाद पूरी  उसी मे रम गये। और दूसरी संस्थाओ की सदस्यता को लगभग टाटा बाय बाय कर दिया।
संस्था के कार्यकारणी व आम बैठको का अपने एतिहासिक कमरे मे आयोजित कराना। संस्था के सांस्क्रतिक व सामाजिक कार्यक्रमो की रुप रेखा तैयार कराना। उन्हे अमली जामा पहनाना। चंदा लाना। हाल बुक कराना। संस्था मे नये नये लोगो को जोडना। पैसे रुपये का हिसाब किताब रखना। यह सारे काम जगन दादा ही किया करते । हम लोग तो बस उनके पीछे पीछे बानर सेना की तरह लगे रहा करते थे।

जगन दादा के बाबा बाबू महावीर स्कसेना ने जो मकान खरीदा था। उसके दो खण्ड हैं। नगर पालिका के अनुसार एक खण्ड 289,अतर सुइया कहलाता है और दूसरा 290 अतर सुइय। बाबू महावीर प्रसाद का पूरा परिवार 290 अतर सुइया मे रहता है। और वह 289 मे रहते थे। जिसमे मात्र एक कमरा बना था। खपडैल का उसके उपर पीछे के मकान मे व अनसुइया देवी के मंदिर के बगल मे उगे पीपल के पेड की छाया पडती रहती थी। उसी कमरे को उनके बाद जगन दादा उर्फ निषांत सक्सेना ने अपने लिये रख लिया। और आज भी इसी मे परिवार सहित रहते आ रहे हैं।

289, अतर सुइया का वह कमरा समाज के लिये भले न हो पर हम सब के लिये एतिहासिक कमरा ही है। किसी जमाने मे वहीं सुबह होती देापहर होती और षाम व रात भी वहीं बीत जाती। हम लोग बगल मे ही अपने मकानो मे न जाते।
वहीं खाना वहीं सोना वहीं पढना होता। न जाने कितने नाटको का रिर्हषल उसी कमरे मे हुआ है। न जाने कितने साहित्यकार, पत्रकार,बुद्धिजीवी व बडे से बडे आफिसर भी उस कमरे की षोभा बढा चुके हैं। इलाहाबाद, उत्तर प्रदेष,बिहार के बडे से बडे रंगकर्मी भी वहां आकर चाय काफी व अपने पसंद का पेय पी चुके हैं।

सफेद चूने से पुते व खपडैल से छाये व मुख्य द्यर से अलग थलग यह कमरा। जगन दादा का व्यक्तिगत कमरा होने के साथ साथ रंगवीथिका का कार्यालय भी सदा से रहा है। व आज भी है।

किन्तु आज उस कमरे का रुप रंग बिलकुल अलग है। पक्की छत।लिपी पुती दीवालें। सामने लान। फूल पत्ते लगे हुए करीने से कटे छटे। कई बेहतरीन पेंटिगंस से सजी धजी दीवारें। कमरे मे सुख सुविधा के सारे साजो सामान मौजूद। व करीने से रखें। कमरे के सामने बरामदा। बरामदा भी सजा सजाया रहता है। और आज निषांत सक्सेना उसी कमरे मे अपने परिवार के साथ रहते हुए संस्था को बखूबी चला रहे हैं।

खैर तो हम लोग बात कर रहे थे। टाइर्गस क्लब की। रंग वीथिका की।
आर्य समाज हाल के छोट से कार्यक्रम की सफलता नंे उत्साह कुछ और बढाया। कुछ और नये लेाग जुडे। कुछ और बडा करने का हौसला जगा।
डि ए वी इंटर कालेज मीरापुर के हाल मे एक और कार्यक्रम का आयेाजन। यह भी पहले वाले की ही तरह किसी स्कूल के कार्यक्रम सा। जिसका निर्दषन व संचालन श्री चतुभुज सहाय जी की पुत्रवधू व श्रीमती षषी जौहरी ने किया। यह कार्यक्रम पिछली बार से ज्यादा सराहा गया। व इस बार इलाहाबाद से तत्कालीन सीनियर पुलिस आफिसर श्री गिरीष नंदन सिहं जुडे। व उनके साथ कुछ और गणमान्य व्यक्ति जुडे। जिन्हे संस्था के साथ जोडने का काफी हद तक श्रेय जगन दादा को ही जाता है।

इसी बीच मुझे इलाहाबाद के पालीटेक्निक के कुछ वरिष्ठ छात्रो दवारा आयोजित नाटक ‘दहषत’ के विमोचन मे जाने का मौका मिला। वहीं मुलाकात हुयी समयांतर परिवार से। उस दिन समयांतर परिवार से जो संबंध बने वह आज तक अटूट हैं। दोनो संस्थाओं ने उसके बाद से षायद ही कोई काम ऐसा किया हो जिसमे दोनो संस्थाओं की सम्मिलित भागेदारी न रही हो।
दहषत नाटक के मंचन के कुछ ही दिनो बाद रंगवीथिका के र्वाषिक समारोह मे संस्था के संरक्षक श्री पुष्कल जी के कहने पर। संस्था ने नाटक करने का फेैसला लिया और इसके लिये तय हुआ कि चूंकि रंगवीथिका परिवार को नाटको का कोई अनुभव है नही लिहाजा समयांतर संस्था से उनके लिये नाटक किया जाय। और वे लोग तैयार भी हो गये।

इस तरह रंगवीथिका के प्रथम वार्षिकोत्सव मे समयांतर ने अपने बहुमंचित व सदाबहार नाटक। समस का समय की प्रस्तुती की। जिसके लेखक श्री अजित पुष्कल जी ही है।
बात समयांतर की चल पडी है। तो आइये उसके बारे मे थेाडा बहुत बात कर ही लिया जाय।
बैरहना। मुख्य सडक। मुख्य सडक से लगा काल भैरव मंदिर। मंदिर के बगल से जाती एक बंद गली। इसी बंद गली का आखरी मकान। 323 सरयू कुटीर मधवापुर।
सफेद चूने की पुताई व पुराने चाल का मकान । आज की तारीख मे कहा जाय तो एक एैसा मकान जो कम से कम साहित्यकारो व पत्रकारो के लिये तो एतिहासिक मकान कहा ही जा सकता है।क्योंकि इसी र्जजर व लगभग सौसाला पुराने मकान मे आज से लगभग अस्सी साल पहले एक कायस्थ परिवार बिहार से आके बस गया था। इसी कायस्थ परिवार मे तीन पुत्र जन्मे। मानो गंगा जमुना सरस्वती तीनो ने अपने अपने अंषो से एक एक पुत्र 323 सरयू कटीर मधवापुर मे भेज दिये हों।
लक्ष्मी कांत वर्मा सबसे बडे
रजनी कांत वर्मा मझले
के के वर्मा। सबसे छोटे
इसी सरयू कुटीर मधवापुर मे ही बैठ कर लक्ष्मी कांत जी ने न जाने कितनी कविताएं लिखी। लेख लिखे। कहानियां लिखी। और अपनी जीवट जीवनी के बलबूते इलाहाबाद ही नही पूरे हिंदी क्षेत्र की ष्षान बने।
इसी सरयू कुटीर मधवापुर मे बैठ के श्री रजनी कांत ने साहित्य प्रकाषन का क ख ग सीखा व यहीं से राजनीत सीखी। और बाद मे जाकर निकहत प्रकाषन जैसी सुद्रण संस्था बना कर हिंदी की सेवा मे लगे।
इसी सरयू कुटीर मधवापुर मे बैठ कर श्री के के वर्मा ने काटू्रन की दुनिया मे अपनी पैनी राजनीतिक समझ व कलाकारिता से देष के काफी अखबार प्रमियों को गुदगुदाते रहे है। और बाद के दिनो मे यहीं से अपनी सीधी साधी वेष भूषा मे कालेज पढाने जाते रहे।
और इसी सरयू कुटीर मधवापुर मे श्री के के वर्मा के पुत्र हुये श्री राकेष वर्मा । समयांतर के बम्हा विष्णू व महेष एक साथ।

राकेष वर्मा एक जुझारु रंगकर्मी या प्राइमरी स्कूल मास्टर
रंग... खुलता गेंहुवा । लम्बाई सामान्य से कुछ अधिक।चेहरा लम्बोतरा। नाक सामान्य से कुछ लम्बी। व्यक्तित्व साधारण । पढाई बी ए। संप्रति... प्राइवेट संस्थान मे टाइपिस्ट । व पार्ट टाइम पत्रकारिता। षौक। रंगमंच। हुलिया वेषभूषा व पहनावे के प्रति लगभग उदासीन। ब्यवहार म्रदुल व दोस्ताना। नजले के पुराने रोगी। लिहाजा हरसमय रुमाल से नाक पोछने की आदत। भले जुकाम हो या न हो। कभी भी कहीं भी सो जाने की पुरानी आदत। कुछ लोगो का तो यहां तक कहना है कि र्वमा  जी तो साइकिल चलाते चलाते भी सो जाते हैं। बात हंसी की व  आर्ष्चय जनक है। खैर हकीकत चाहे जो भी हो पर।

किसी प्राइमरी पाठषाला के मास्टर से हुलिया वाले राकेष वर्मा जी को जिस रुप मे आज देखता हूं उसी रुप मे मै उन्हे पचीस सालो से देख रहा हूं। कोई खाष परिर्वतन नही। सिवाय इसके कि कनपटी व षिर  के कुछ बाल सफेद हो गये हैं। व षरीर कुछ भारी हो गया है। पर उनकी आदत व व्यवहार मे कोई फरक नही।  उस वक्त भी वर्मा जी नाटक ओढते थे। नाटक ही बिछाते थे। नाटक ही खाते थे। नाटक ही पहनते थे। नाटक के ही बारे मे सोचते थे। नाटक को ही ले के हंसेते थे। नाटक को ही ले के रोते थे। यानी उनके लिये नाटक ही सब कुछ था। आज भी है और लगता है आगे भी रहेगा। अगर कहा जाय कि यह लाइलाज बीमारी उनकेा अपने ताउजी श्री लक्षमी कांत वर्मा जी से विराषत मे मिली है। तो गलत न होगा।
पुष्कल जी बताते हैं बात उन दिनो की है। जब वह के पी कालेज मे पढाते थे। तभी एक दिन कालेज के कुछ छात्र डा0 राम कुमार  वर्मा का नाटक ‘नीली झील’ ले कर आये और उनसे मंचन मे सहायता करने के लिये आग्रह करने लगे। पुष्कल जी कहते हैं कि वह आर्ष्चय मे पड गये कि इन लडको को इस कठिन नाटक मै एैसा क्या समझ आया कि ये इसे मंचन करना चाहते है। पर उन्होने सांेच भले ही इन कम उमर लडको को कुछ समझ न आया हो पर यह बात तो तय है कि इनके अंदर नाटक व रंगमंच के लिये एक उत्साह व लगन है। और उन्होने उन लडको की सहायता करनी स्वीकार कर ली। उनमे से एक अतिउत्साही व मुख्य रुप से आगे आने वाला लडका था। राकेष वर्मा और जब पुष्कल जी को यह पता लगा कि यह राकेष वर्मा श्री लक्ष्मी कांत वर्मा का सगा भतीजा है तो उनका स्नेह कुछ और हो आया।
और उन्ही दिनो इन्ही लडको के द्वारा श्री पुष्कल जी के सहयोग व संरक्षत्व मे एक नाटस संस्था का सूत्रपात्र हुआ नाम सुझाया गया ‘समयांतर’ जिसके ब्रम्हा बने श्री पुष्कल जी विष्णू बने राकेष  वर्मा और कुछ उत्साही युवको के द्वारा बनी यह संस्था पूरे अभावो के बीच मात्र उत्साह की पूंजी लिये उतर पडी एक चुनौती के सामने।
जिसकी ष्षुरुआत मे तो श्री लक्ष्मी कांत वर्माजी ने ज्यादा उत्साह नही दिखाया था। पर बाद मे इन लडको के गंभीर प्रयासो से काफी प्रभावित भी रहे हैं।
उसी समयांतर के सदाबहार सचिव श्री राकेष वर्मा की कहानी मै आप लोगो को सुनाना चाहता हूं। जो आज भी इलाहाबाद रंगमंच के क्ष्ेात्र  मे बहुत अच्छी हैसियत नही पाने के बाद भी इस बात का अहषाष जरुर करा देते है कि माना उन्होने बहुत स्तरीय प्रस्तुतियां नही दी है पर कई स्तरीय कलाकार व नाटयकर्मी जरुर दिये है।
आइये उनके बारे मे बात करते हैं।
द्रष्य एक
कल्पना करिये उन दिनो की।
समय। जाडे की सुबह। इलाहाबाद अभी अंगडाइयां ले रहा है। लोग चाय की चुस्कियां ले कर आफिस या दुकान जाने की तैयारी मे हैं। सडको पे साइिकिल रिक्षा की द्यंटियां सुनाई पडने लगी हैं। टन टन टन। बच्चे लदे फंदे स्कूल चले जा रहे है। षहर ने धीरे धीरे जागना षुरु किया है।
वर्मा जी अपने पुस्तैनी मकान 323 सरयू कटीर मधवापुर मे। अपनी चिरपरचित भेषभूषा मे तैयार हैं। सबसे पहले बनयाइन उसके उपर कमीज ‘बिना स्त्री के’ उसके उपर हाफ स्वेयटर कई वर्षेां पुराना, उसके उपर भूरे रंग का ब्लेजर। कालेज के जमाने का। गले मे मफलर। जो षायद जाडे भर पानी का मुहॅ नही देखता है।
नीचे इनर वाला पजामा उसके उपर पैंट कभी कभी प्रेस की हुयी। ब्लेजर के एक जेब मे नाटक की स्क्रििप्ट। दूसरी जेब मे समयांतर के कुछ खाली व कुछ लिखे लेटर हैड। एक बॉल पेन कभी कभी तो मात्र रिफिल ही बची रहती। सचिव समयांतर के नाम की मूहर। पैंट या कोट के अंदर वाली जेब मे कुछ रुपये जो दो रुप्ये से लेकर तीन चार सौ तक हो सकते थे। व पैंट के दूसरे जेब मे परमानंेट रहने वाला कभी गंदा तो कभी कभी साफ रुमाल मौजूद है।लीजिये वर्मा जी तैयार है।
सुबह की चाय उनके होठो पे पहुची भी नही है कि उनके कमरे मे दो चार नाटय प्रेमी दाखिल हो चुके हैं।अनिल श्रीवास्तव संस्था,समयांतर के स्ंस्थापक सदस्य व पूर्व अध्यक्ष लोग जिन्हे पीठ पीछे मुछमु्रंडी भी कहते। अनिल चौधरी मेकपमैन। अषोक श्रीवास्तव पगलैट। प्रदीप बच्चन दा
। धीरेंद्र किषोर धीर। अजय केषरी। आदि। इन सभी परमानेंट आगंतुको के लिये चाय  अपने आप बन के आजती है। हां कभी कभी उन्हे अंदर जाके बोलना पड जाता। और चाय की चुस्कियो के साथ वर्मा जी का दिन षुरु हो जाता।
वर्मा जी का दिन चाय की चुस्कियों व नाटय चर्चा  से षुरु होता। और खत्म भी।
अगर नाटक,चाय व वर्मा जी को एक दूसरे का पर्याय कहा जाये तो गलत न होगा। मानो ये तीनो चीजे एक दूसरे के लिये ही बनी हैं।
खैर...
चाय के साथ र्चचा के विषय हुआ करते। आज नाटक के लिये कम से कम कितने रुपये का चंदा इकठठा करना है। स्मारिका के लिये कम से कम कितने का एडर्वटीजमेंट लाना है। रिर्हषल के लिये चाय पानी का खर्च कहां से आयेगा। लडकी आर्टिस्ट कैसे आयेगी व कौन लायेगा। यह सब चर्चा करते करते नौ दस बज जाते। फिर वर्मा जी की सवारी द्यर से निकल पडती रात बारह बजे तक के लिये कभी दिन मे द्यर आगये तो आगये वर्ना कोई बात नही। बस सारा दिन व आधी रात तक कभी नाटक का रिर्हषल चल रहा है तो कभी उसकी चर्चा हो रही है तो कभी उसके मंचन के लिये निमंत्रण बाटे जा रहे हैं। तो कभी हाल लाइट साउंड की बुकिंग के लिये दौड धूप चालू हैं।
चलिये आगे बढते हैं।
वर्मा जी की सवारी। यानी पुरानी खटारा साइकिल। खरामा खरामा चली जा रही है। अतर सुइया श्री निषांत सक्सेना के वहाइट हाउस मे। जहां निषांत सक्सेना अपने तीन चार सहयोगियों के साथ बैठे हैं। वर्मा जी के आते ही माहौल कुछ और खुषनुमा व गरम हो गया है। हंसी मजाक,गाजी गलौज,नोक झांेक व चाय की चुस्कियों के बीच कई द्यंटे यूंही निकल जाते और वर्मा जी की सुबह बनायी योजना धरी की धरी रह जाती। इसी लिये तो कभी कभी वर्मा जी अपने सारे काम करके ही व्हाइट हाउस मे आते।
लीजिये अब दोपहर हो गयी है।
वर्मा जी व उनकी मित्र मंडली अपने अपने द्यर भोजनोपरांत दाबारा रिर्हषल के लिये इकठठा हाने के लिये चल दी।
षाम                                                                                                      
स्थान।रिर्हषल प्लेस। इनमे से कोई भी एक जगह ।
निषांत सक्सेना का व्हाइट हाउस,जार्ज टाउन एसोसिएसन का हाल,अंजुमन रुहे अदब का हाल,हिन्दुस्तान एकेडमी का हाल। या कोई और उपयूक्त जगह।
नाटक के सारे कलाकार स्रगीतकार व सहयोगी गण इकठठा हैं।
पात्र अपना अपना रिर्हषल कर रहे हैं। जिनका सीन नही है वे या तो सिगरेट के कष लगा रहे हैं। या हाल के बाहर गपषप मे मषगूल हैं। कुछ कुर्षियों पे उंद्यते भी मिल जाते हेेैं। वर्मा जी एक कुर्षी मे बैठे बैठे उद्य रहे हैं। बीच बीच मे औख खोल के रिर्हषल भी देख लेते हैं। और एक दो इंस्ट्रक्सन देकर फिर उंद्यने लगते हैं। उनकी यह अदा देख कुछ लाग आपसे मे आंखो ही आंखा मे मुस्कुराते भी हैं। बीच बीच मे नाटक के किसी सीन या संगीत को लकर कुछ बहस मुबाहिसा भी हो जाती है। जिनका सीन खत्म हो गया है। वे चाय का इ्रतजार कर रहे हैं। कि कब चाय आये । चलिये रिर्हषल खत्म हुआ। सारी टीम फिर से चाय पान की दुकान मे इकठठा है। चाय सिगरेट के दौर चल रहे हैं। सिगरेट के परमानेंट प्रोडयूसर निषांत सक्सेना लोगो को मुक्त हस्त से सिगरेट पिला रहे है। चाय का जिम्मा भी अक्सर उठा लेते है। वह भी जब कभी वर्मा जी की जेब तंग है तो।
रात।
स्थान।
चाय कि दुकान या ढाबा। कोई भी।
वर्मा जी बैठे है। उनके रंगकर्मी मित्र चारो तरफ से उन्हे द्येरे है। चाय के दैार पै दौर चल रहे है। कुछ षौकीन मिजाज या तो पी पिलाके आये हैं या तो पीने पाने के जुगाड मे हैं। गर्मा गरम बहस छिडी है कोई वर्मा जी की ख्ंिाचाई चल रही है या हंसी ठठठा हो रहा है। या किसी नाटक की समीक्षा चल रही है। वर्मा जी अम्रत प्रभान दैनिक, जागरण व और कुछ लोकल अखबारो मे अपनी स्ंसथा की गतिविधियों की सूचना लेटर हैड पे दे चुके हैं। नाटय चर्चा व दोस्तो के बीच अपने आप को काफी खुष पा रहे हैं।
रात की सभा लगभग बारह एक बजे खत्म होती है। और इस तरह वर्मा जी के जीवन का नाटक चलता रहता।
वर्मा जी की दिन चर्या मे रुकावट मात्र दस ग्यारह साल रही जिस दौरान ये दिल्ली मे नौकरी कर रहे थे।
दिल्ली से तबादला होकर वापस आने के बाद फिर से वही दिन चर्या चालू है।
वर्मा जी  एक जूझारु नाटयकर्मी जरुर हैं। पर उनके  खुद के अंदर अभिनय व निर्देषन की क्षमता उतनी नही है। जो एक सफल अभिनेता या नाटय निर्देषक के अंदर होनी चाहिये।
वर्मा जी नाटक के लिये कुछ भी करने के लिये तैयार रहते हैं। सुना है एक जमाने मे वे अपनी टाइपिंग स्कूल व कालेज की फीस नाटक के रिर्हषल मे र्खच कर दिया करते थे। और नाम कटने पर कई कई महीने स्कूल से गायब रहा करते।
कोइ व्यक्ति कह रहा था कि एक बार तो वर्मा जी ने अपने द्यर के राषन की चीनी भी नाटक के खर्च के लिये बाजार मे बेच दी थी।

वर्मा जी ने नाटक के लिये व्यक्तिगत स्तर पर काफी बलिदान किये हैं। जिनकी कहानिया काफी रोचक व प्रेरणापद हैं।
वर्मा जी ने इलाहाबाद की जनता को कई अच्छी नाटय प्रस्तुतियां दी। जिनमे ‘सिंहासन खाली है’ ‘बकरी’ ‘जंगी राम की हवेली’ ‘पोस्टर’ इत्यादि हैं। इनके निर्देषन मे समयांतस संस्था केा बिहार व उत्तर प्रदेष की कई नाटय प्रतियागिताओं मे सम्मान मिल चुका है।

इधर कई वर्षो से ये लक्ष्मी कांत वर्मा स्म्रति नाटय उत्सव करवा रहे है। हालाकि राकेष वर्मा जी ने बहोत बडे बडे नाटक नही किये  फिर भी इलाहाबाद जैसे षहर मे नाटक की अलख को जगाये रखने मे उनका बहुत बडा येागदान है। जिसे आसानी से भुलाया नही जा सकता।
वर्मा जी के सार्निध्य मे काम करने वाले व समयांतर से अपना नाटय कैरियर षुरु करने वाले कई रंगकर्मी आज सिनेमा व रंगकर्म मे अच्छा स्ािान बना चुके हैं।
इसलिये अगर उन्हे किसी गांव के प्राइमरी षिक्षक की तरह माना जाय ताग गलन नही होगा। जिस तरह गांव का वह षिक्षक अभावो व गरीबी मे रहकर भी राष्ट्रपति,प्रधानमुत्री व बडे बडे बनाता है। पर खुद वहीं का वहीं रहता है। उसी तरह वर्मा जी भी आज ढाई दषक के बाद भी वहीं के वही्र है।

अनिल राज एक धूमकेतु जिसने रंग व संगीत दोनेा मे धूम मचायी
इलाहाबाद के रंग कर्म व संगीत के आाकाष मे अनिलराज नाम का एक धूमकेतु जिस तेजी से उगा और चारो तरफ छाया उसी तरह वह डूब भी गया। आज भले ही अधिकांष लोग उसे भूल गये हों पर समयांतर,रंगवीथिका परिवार से जुडा हर सख्ष उसे नही भूल पाया है।
अनिल राज। यानी अनिल कुमार श्रीवास्तव बैरहना निवासी। गोरा रंग,चेहरे पे कभी फबती हुयी द्यनी दाढी तो कभी मात्र द्यनी मूछें, चेहरे को काफी आर्कषक बनाये रखती। इसके अलावा उसके चेहरे पे छायी रहने वाली सदाबहार मुष्कुराहट मिलने जुलने वालो को बरबस ही उसके आकर्षण मे बांध लेती।
समयांतर के एक छोटी सी नाटय प्रस्तुति ‘तीन अपाहिज’ से अपना रंग कर्म षुरु करने वाले अनिल कुमार श्राीवास्तव ने जल्द ही अपनी प्रतिभा का कमाल दिखना षुरु करदिया था।
प्रतिभा के अलावा उस यूवक मे जल्दी से जल्दी सब कुछ पा लेने की अजब छपटाहट थी। पर उसकी  छटपटाहट मे केाई हडबडाहट न थी। बल्कि था एक द्रढ आत्मविष्वास,निष्चित कार्ययोजना, लगन व कडी मेहनत और एक निष्चित लक्ष्य ।
लिहाजा उसने सबसे पहले अपने पुराने तरीके के नाम अनिल कुमार श्रीवास्तव को छोटा व आर्कषक रुप दिया। ‘अनिल राज’।  इसके अलावा उसने नाटक के दवारा मंच का प्रारंभिक ज्ञान लेकर। अपने आप को आर्केस्ट्रा से जोड लिया और जल्दी ही इलाहाबाद के एक जाने माने आर्केस्ट्रा एनाउंसर के हेैसियत व ख्याति पाली।
पर अनिल राज इतने से संतुष्ट कहां रहने वाले थे। जल्दी ही अपना एक अलग आक्रेस्ट्रा ग्रुप बनाया। जो जल्दी ही इलाहाबाद, बनारस,सोनभद्र व आसपास के इलाके मे प्रसिद्धि पा गया।
अब अनिल राज पैसा व सम्मान दोनो कमा रहे थे। पर उन्होने रंगमंच को न छोडा था। लिहाजा वह रात भर आर्केष्ट्रा का कार्यक्रम करते व दिन मे नाटक का रिर्हषल करते। इन्ही दिनो अनिल राज ने संमयांतर व रंगवीथिका के माध्यम से ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ ‘सिंहासन खाली है’ जैसे नाटको की कई सफल र्प्रस्तुतियां जनता को दी। जिसे लोगों ने काफी सराहा।
‘अंधेर नगरी..’ मे तो उन्होने पलामू डाल्टन गंज के नाटय महोत्सव मे सारे के सारे अर्वाड जीत के तहलका ही मचा दिया था।
अनिल राज उस वक्त न सिर्फ रंगमंच व संगीत की दुनिया मे नाम कमा रहे थे। बल्कि अपने कैरियर के प्रति भी पूरी तरह सचेत थे। जिसका नतीजा था कि वे इलालाबाद विष्वविदयालय से कानून की दो साल की परीक्षा भी पास कर चुके थे।
दोस्तों के दोस्त, हरदिल अजीज व जिंदादिल अनिल राज ने कई नाटको मे सफल अभिनय भी किया जिसमे मुख्य हेैं।तीन तिलंगे,समय का समय,अंधेर नगर चौपट राजा, सिंहासन खाली है के अलावा उन्होने कई और नाटको के दर्जनो मंचन मे सफल अभिनय किया।
वे जंहा एक तरफ आर्केर्स्टा मे धन कमाते तो दूसरी तरफ नाटको मे खुषी खुषी आर्थिक योगदान भी करते। न जाने कितनी बार व कितने नाटको का लगभग पूरा पूरा खर्च उन्होने अकेले उठाया है।
अभी उन्हे न जाने कितने नाटको मे अभिनय करना था। न जाने कितने नाटको का निर्देषन करना था। न जाने कितने लोगो को अपनी सदाबहार उदद्योषणा से गुदगुदाना था। पर न जाने क्यों भगवान को यह मंजूर न था। और एक हादसे ने उस चमकते धूमकेतु को, पांच भाइयों मे चौथे न्रबर के भाई को एक अच्छे रंगकर्मी को व मॉ बाप के लाडले को छीन लिया।
अनिल राज का  निधन मॉ दुखी पिता दुखी। परिवार दुखी। समयांतर दुखी। रंगवीथिका दुखी। इलाहाबाद स्तब्ध।
अनिल राज नही रहे। यादें छोड गये।
यादें सहारा बनी दोस्तो की दोस्ती क । रंगकर्मियों के हौसले का। संगीत प्रेमियों के उत्साह का। उनके परिवार की सांत्वना का।
निषंात सक्सेना के प्रस्ताव से प्रत्येक वर्ष ‘अनिल राज हिन्दी लघु नाटय प्रतियोगिता’ का आयोजन करने की। वह भी इलाहाबाद की सभी प्रमुख साहित्यिक व सांस्कतिक संस्थाओं दवारा मिल के।
जिसका आयोजन रंगवीथिका परिवार ने समयांतर के साथ मिलकर दो साल सफल आयोजन करवाया। जो कुछ अपरिहार्य कारणो वष आगे न हो सका। जिसकी टीस रंगवीथिका परिवार को हमेषा सालती रहती है।
अनिल राज भले ही भौतिक रुप से हमारे बीच नही हैं। पर वे आज भी रंगवीथिका व समयांतर परिवार के दिलो मे जिंदा हैं।
दिनेष श्रीवास्तव एक और धूमकेतु आया और गया
नब्बे के दषक मे इलाहाबाद के कई उभरते सितारे काल के गाल मे समा गये। जिनमे श्रीमती नंदिता द्विवेदी, एहतषम उददीन, अनिलराज के और दिनेष श्रीवास्तव मुख्य हैं। ये यभी कलाकार अपनी यूवावस्था मे ही चल बसे।  दिनेष श्रीवास्तव एक अदभुत प्रतिभा का धनी कलाकार था। जो बहुत कम समय के लिये रंगवीथिका परिवार व रंगमंच से जुडा। पर कुछ ही नाटय प्रस्तुतियों केद्वारा उसने अपनी अगाध अभिनय क्षमता का परिचय दे दिया था।
मुठठीगंज इलाहाबाद की एक गलियों मे उसका बचपन बीता था। मध्यम वर्गीय परिवार मे जन्मा दिनेष षुरुआत से ही तेज दिमाग व अभिनय क्षमता से यूक्त था। पर उसे उचित मार्गदर्षन व षुरुआत नही मिल पा रहे थे। उसेकी प्रतिभा चौराहे व पान की दुकान मे मिमिक्री करते व फूहड तरीके से लोगो की नकल उतारने मे ही जाया हो रही थी। जिससे उसे मानसिक षातिं नही थी।
अचानक एक दिन मुझसे एक मित्र ने उससे परिचय कराया। और मित्र ने दिनेष को भी नाटक मे काम दिलाने का अनुराध किया।
इत्तफाकन उन्ही दिनो रंगवीथिका परिवार को बनारस लद्युनाटय प्रतियोगिता मे भाग लेना था। जिसके लिये उपयुक्त सूत्रधार की तलाष थी। लिहाजा दिनेष को उस भुमिका के लिये चुन लिया गया। जिसे उसने बखूबी निभाया।
उसके बाद तो दिनेष ने कई नाटको मे षानदार अभिनय का जलवा दिखाया। पर जल्दी ही वह स्टेषन मास्टर के पद के लिये चुन लिया गया। और उसने लगभग रंगमंच को छोड ही दिया। पर जब भी वह मिलता कहता मुकेष यार जब कभी इलाहाबाद ट्राषफर हो के आउंगा तो जरुर नाटको मे काम करुंगा।
पर विधाता को तो कुछ और ही बदा था।
एक दिन सुबह सुबह अखबार मे खबर आयी की दिनेष श्रीवास्तव नाम के एक रेल कर्मी की रेलगाडी से कट कर म्रत्यू हो गयी। धडकते दिलो से उसके द्यर से पता लगाया गया तो खबर उसी होनहार रंगकर्मी के ही संबध मे थी।
और इस तरह से एक और प्रतिभाषाली कलाकार हमसे छिन गया।
जिसकी यादे ही षेष रह गयी हैं। आज इन पंक्तियों के माध्यम से एक बार फिर रंगवीथिका परिवार उसकी आत्मा को अपनी भावभीनी श्रद्धांजली अर्पित करता है।

एहतषाम चांॅद जो पूरा न खिल सका
वक्त ने इलाहाबाद के एक और प्रतिभाषाली कलाकार को हम सभी से छीन लिया। वह है एहतषामउददीन अहमद।

एहतषाम। गोरा रंग। इकहरा पतला दुबला कोमल बदन। खडी व चेहरे के अनुपात मे कुछ बडी नाक। मुस्कुराते पतले होंठ। साधारण कद। बोली बानी काफी षरीफााना व तहजीब युक्त। जिससे कोई भी पहली ही मुलाकात मे प्रभावित हो जाये और अगर प्रभावित न भी हो तो उनके व्यवहार की तारीफ किये बिना तेा नही रह सकता था।

जनाब ए खान के दो लडको व एक लडकी मे सबसे छोटे जनाब एहतषाम अलीगढ मुस्लिम विष्वविदयालय से बी एस सी करने के बाद इलाहाबाद वापस आये तो आते र्ही उदू थियेटर इलाहाबाद से जुड गये। उन्ही दौरान इनकी मुलाकात जाने माने लेखक अजित पुष्कल जी व निषांत सक्सेना से हुई। और निषांत सक्सेना ने इस उभरते कलाकार की प्रतिभा को पहचानते हुए अपनी संस्था रंग वीथिका के लिये एक नाटक प्रजा इतिहास रचती है का निद्रेसन करने को कहा जिसे एहतषाम ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। और इस तरह एहतषाम भाई इलाहाबाद के हिंदी रंगमंच से जुडे और जुडते ही चले गये।

एहतषाम भाई एक बार जो रंगवीथिका परिवार से जुडे तो उसके परिवार के अंग हो गये, उसी के रंग मे रंग गये। रंग वीथिका परिवार का एक एक सदस्य के घरेलू संबध एहतषाम भाई के घर से हो गये थे।

रंगवीथिका के बैनर तले ही एहतषाम ने ‘राजा की मूहर’ का सफल निर्देषन किया था। जिसे इलाहाबाद ही नही बिहार की जनता ने भी भरपूर सराहा था।

रंग वीथिका के साथ उन्होने ज्यादा नाटक तो नही किये । पर उनके साथ काम करने का अपना अलग आनंद था।
किंतु पता नही किस लाइलाज बीमारी के चलते वे अपने दानेा पैरो से लाचार हो गये।  लिहाजा कुछ सालो तक तो वे बैसाखी के सहारे सहारे चलते रहे। बाद मे वे उससे भी मजबूर हो गये और छोटी छोटी बातो के लिये भी वह दूसरो पर निर्भर रहने लगे तो उनका आत्मविष्वास जाने लगा।
लिहाजा वे सन 2003 मे तीन मासूम बच्चियो,जवान बीबी व बूढे बाप को अपने बडे भाई इकराम अहमद के भरोसे छोड के नयी यात्रा के लिये कूच कर गये।

उनसे आखरी मुलाकात उनके ही द्यर मे 2002 की ईद मे हुई थी। काफी कमजोर हो गये थे। पैरों ने पूरी तरह से काम करना बंद कर दिया था। पर उनके चेहरे पे हंसी बरकरार थी। मै कभी उनके चेहरे को देखता और कभी उनके मासूम बच्चो को और सेाचता कि इस पतले दुबले व्यक्ति के अंदर कितनी सहन सक्ति है जो इस परिस्थति मे भी हंस सकता है।

उनका दोस्ताना लहजा नाटक के लिये बहुत कुछ करने की तमन्ना बहुत कम लोगो मे देखी जाती हैं। खुदा उन्हे जन्नत बख्षे।

राजेंद्र मिश्र
षानदार व्यक्तित्व के मालिक व धनी सदस्यो की हैसियत से  समयांतर परिवार से जुडे श्री राजेंद्रमिश्र,समयांतर के एक आधार सतंभ के रुप मे लगभग षुरुआत से ही जुडे हैं। ठीकठाक अभिनय क्षमता रखने वाले श्री मिश्र जी ने कई नाटको मे अच्छे अभिनय करने व एक दो नाटको का निदेंषन करने के बावजूद भी कोई बहुत अच्छा प्रभाव नही डाल पाये है। हां समय समय पे नाटको के लिये तन मन व धन से जुडे रहने के कारण उनके कार्य को कम करके नही आंका जा सकता।
ताज महल का ठेका नामक व्यंग नाटक का निर्देषन उन्होने किया था जिसकी प्रस्तुती रंगवीथिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम मे कोरल क्लब मे हुयी थी।
आज भी श्री मिश्र अपनी आफसेट प्रेस मे किसी भी नाटक वालो के लिये कंषेषन मे स्मारिका व कोई भी कार्य करने के लिये तत्पर रहते हैं।
समयांतर व रंगवीथिका के तो सहयोगी हैं ही।
हां नब्बे से पंचानबे के बीच जरुर उन्होने राकेष वर्मा से विवाद होने के कारण आधारसिला नामक अलग संस्था बना ली थी। जिसमे उनके मुख्य सहयोगी श्री अजय केसरी थे।
पर ‘आधारषिला’ बिना कोई ठोस आधार रखे ही जमीन से खिसक गयी।

रेनू षॉ व कुमारी मीना
इलाहाबाद के रंग कर्मियो मे महिला कलाकारों की कमी हमेषा से रही है। कारण कि इलाहाबाद मध्यवगी्रय बाहुल्य ष्षहर होने के कारण बहुत ज्यादा उदारवादी कभी नही रहा। खास करके महिलाओ के मामले मे। लिहाजा रंगकर्मियों को महिला कलाकार ढूंढने मे काफी मसक्कत उठानी पडती थी। और खुदा न ख्वास्ता कोई जान पहचान की या रिष्तेदार की लडकी नाटक के लिये तैयार हो भी जाती तो उसके नखरे बहुत ज्यादा होते। जो हमारे गरीब नाटक निर्देषक उठा न पाते मान लो किसी तरह उसके नाज नखरे उठा के नाटक करवा भी लिया तो वह हिरोइन अपने आप या मा बाप के कहने से एक दो नाटक बाद ही रंगमंच को अलविदा कहदेती।
अस्सी से नब्बे के दषको तक इलाहाबाद मे गिनी चुूनी दोचार महिला कलाकारो को छोड दिया जाय तो ढूंढे से भी महिला कलाकार नही मिलती थी। नियमित रंगमंच करने वालो मे कुछ नाम मे मीना व रेनूषॉ का नाम लिया जा सकता है। जिसमे मीना जी ज्यादातर अंकुर नाटय संस्था से ही जुडी रहती। हां कभी कभी जरुरत पडने पर मीना जी हर संस्था के साथ काम कर लेती थी। पर रेनू षॉ रंगवीथिका व समयांतर के साथ ही जुडी रहीे है।

अपने जमाने के प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार श्री प्यारे लाल आवारा के तेज तररार पुत्री रेनू षॉ को रंगमंच से जोडने का श्रेय राकेष वर्मा को जाता है। जिन्होने अपने किसी नाटक मे उन्हे मौका दिया था। पर कुछ दिनो बाद ही वह रंगवीथिका परिवार से इस कदर जुडी कि वह उसी की हो के रह गयी।
रेनू षॉ के नाटक मे काम करने से एक बात की सुविधा रहती थी कि उनको रिर्हषल प्लेस तक लाने ले जाने के लिये रिक्से व गाडी की व्यवस्था नही करनी पडती थी। और न ही उनके साथ किसी गार्जियन को लाने लजाने की आवष्यकता होती। वह खुद ही सायकिल से आती व जाती थी। इसके अलावा एक और अच्छी बात थी कि उनके साथ आम लडकियों वाले चोचले नही हुआ करते थे। लडको के साथ द्युल मिल कर काम करने व हंसी मजाक करते हुए माहौल को खुषनुमा बनाये रखना उनकी आदत थी। यहां तक की रेनू षॉ नाटके मे अभिनय के अलावा धन संग्रह कराने मे भी पूरा योगदान कराती थी। कई बार तो उन्होने अपनी जेब से भी नाटक के लिये पैसे दिये है।
मुझे याद है एक बार मेरे ही निर्देषन मे ‘द्यर का बजट’ नामक नाटक पटना लद्यु नाटय प्रतियोगिता मे जाना था। जिसेके लिये उन्होने न केवल अभिनय किया बल्कि नाटके के र्खच का एक बहुत बडा हिस्सा भी खुद ही वहन किया था। जिसे उन्होने कभी जबान से भी नही कहा।
एक बार अनिल राज लद्युनाटय प्रतियोगिता के दौरान खाना कम पड जाने पर उन्होने मीना जी के साथ मिल कर रात मे पचासो लोगो का खाना तैयार कराया था।
उनके बारे मे एक और बात लिखने को लोभ नही संवरण कर पा रहा हूं। वह यह है कि उन दिनो मुझे नाटक के निर्देषन करने का षौक लगा था। जिसके लिये नाटक भी चुन लिया था। द्यर का बजट पर उसके लिये महिला पात्र की जरुरत थी। उस नाटक मे एक ही महिला पात्र है और वह भी मुख्य किरदार के रुप मे। लिहाजा उन दिनो मै बीरेन ब्रम्हचारी नामक एक बंगाली कलाकार के साथ साइकिल पर पूरे इलाहाबाद मे चक्कर लगाता रहा। पर कोई भी महिला कलाकार नही मिल पा रही थी। तभी एक दिन रेनू जी से मुलाकात हुयी जिनसे तब तक कोई खास परिचय नही हुआ था। और बातो ही बातो मे मैने उनसे द्यर का बजट मे काम करने का आफर दिया जिसे उन्होने तुरंत व सहर्ष मान लिया। मै काफी खुष था।
दूसरे दिन से वह रिर्हषल मे आने लगी पर जब इलाहाबाद के और लोगो को यह पता लगा कि रेनू षॉ मेरे नाटक मे मुख्य किरदार की भूमिका निभा रही है। तो लोगो ने कहा कि उसके अंदर तो अभिनय की क्षमता ही नही है।
पर मैने और निषांत सक्सेना ने बिना किसी की परवाह किये नाटक को आगे बढाते रहे। जिसका पहला मंचन पटना के कालीदास रंगालय मे अखिल भारतिय लद्युनाटय प्रतियागिता मे हुआ। जहां श्री के बी एल श्रीवास्तव जज बन के आये थे। और उन्होने रेनूषॅा को सर्वश्रेस्ठ अभिनेत्री से सम्मानित किया। इसके अलावा उन्होने उसी नाटक का मंचन नैनीताल रामनगर मे उनके आयोजन मे करने का निमंत्रण दिया। बाद मे वही नाटक वहां भी मंचित हुआ।
रेनूषॉ अभी रंगमंच से जुडी ही थी कि उनका जुडाव किसी तरह बाम्बे की संस्था युवक बिरादरी से हो गया। जिसकी एक षाखा हम लोगो ने इलाहाबाद मे खोली थी। तथी युवक बिरादरी के ही एक र्कायक्रम मे प्रसिद्ध रंगकर्मी राहणी हंटटगणी को लाहाबाद बुलवाया था।
उसी कार्यक्रम के दौरान रेनू की मुलाकात सोनी नाम के युवक से हो गयी जो जल्दी ही द्यनिस्टता मे बदल गयी। और द्यनिष्टता विवाह मे।
अब रही मीना जी की बात तो मीना जी को रंगमंच मे स्थापित करने का सारा श्रेय ‘अंकुर’ नाटय संस्था के संस्थापक अंबरीष सक्सेना को जाता है।
बात लगभग अस्सी के दषक की है। जब अंबरीष सक्सेना इलाहाबाद मे पढाई और संद्यषर््ा दोनो कर रहे थे। साथ ही साथ रंगमंच व पत्रकारिता से भी जुडे थे। और व अंकुर नाटय संस्था के द्वारा इलाहाबाद मे अपने आप को स्थापित कर रहे थे। तभी उनकी मुलाकात मीना नाम की एक दुबली पतली संावली,कम उम्र लडकी से मुलाकात हो गयी। जिसे अपने नाटक मे काम करने के लिये राजी कर लिया।
उसके बाद तो उस आदिवासी सांवली लडकी के साथ अंकुर ने न जाने कितने नाटक किये। और कुछ ही वषांे मे वह मीना नाम की लडकी इलाहाबाद की अच्छी महिला कलाकारो मे गिनी जाने लगी।
मीना जी के साथ भी एक बहोत अच्छी बात यह थी कि उनमे ज्यादा नाज नखरे वाली बान न रहती। वे कहीं भी व कभी भी रिंर्हषल के लिये तैयार हो जाती व अपने आप पहोंच जाती थी। इसके अलावा अभिनय करते समय उन्हे ज्यादा बताना नही पडता था। उन्हे अपने किरदार के बारे मे अच्छी पकड रहती।
अंकुर नाटय संस्था के अलावा वह रंगवीथिका व समयांतर से भी बराबर जुडी रहीे।
अंबरीष सक्सेना के इलाहाबाद चले जाने के बाद श्री अजित विक्टर के साथ काफी दिनो तक वह अंकुर की नाटय गतिविधियों को आगे बढाती रही हैं। जंहा तक मेरी जानकारी है मीना जी आज भी इलाहाबाद के रंग मंच से आज भी जुडी है।औैर एक वरिष्ठ महिला कलाकार का र्दजा पा चुकी हैं।

महिला कलाकारो के बारे मे बात चली है तो एक और नाम मै लेना चाहूंगा जो रंगवीथिका परिवार के साथ काफी गहराई से जुडी रही। वह नाम से कुमारी सुनीता सिंह का।
गोरे रंग,सामान्य से कुछ कम लम्बाई नेपाली बाला से नक्ष वाली उस आर्कषक लडकी को रंगमंच का परदा दिखाने का श्रेय श्री निषांत सक्सेना केा जाता है। सुनीता के पारिवारिक प्रष्ठभ्ूामि के बारे मे तो ज्यादा नही मालुम पर वह गोरी बालिका कई सालो तक रंगवीथिका से जुडी रही। उन्ही दिनो उन्होने श्री पुष्कल जी के चंचित नाटक  ‘राजा की मोहर’ मे मुलिया की यादगार भूमिका की थी। जिसका निर्देषन एहतषाम उददीन अहमद ने किया था।
पर जल्दी ही सुनीता सिंह ने अपनी इलाहाबाद की पारी खत्म करदी और बाम्बे चली गयी। आज भी वहीं अपनी पहचान की तलाष मे हैं।

अस्सी व नब्बे के दषक मे इलाहाबाद मे नाटक की दर्जनो छोटी बडी संस्थाएं सक्रिय थी। पर उनमे एक कमी यह थी की वे न तो नये नाटक पढती थी और नही नये नये प्रयोग करने की कोषिष करती थी। हर संस्था एक दो नाटक तैयार करलेती उन्हे ही बार बार और लगभग उन्ही कलाकारो को लेकर प्रस्तुत कर देती।
उन बीस सालो मे कुछ अच्छी प्रस्तुतियां जरुर हुयी हैं। जिनमे निम्न प्रस्तुतियां रखी जा सकती हैं।
नाटक                    संस्था                निर्देषक
होरी                     ए एस सी ए           नंदिता द्विवेदी
कबिरा खडा बजार मे        अंकुर नाटय संस्था      अंबरीष सक्सेना
बकरी                    ए एस सी ए           राम कपूर
राजा की मूहर             रंग वीथिका            एहतषाम
जाति ही पूछो साधु की      ए एस सी ए            नंदिता द्विवेदी
द्यासी राम कोतवाल
अंधेर नगरी चौपट राजा     समयांतर               ंअनिल राज

यह तो बात रही मंचन की। अगर नाटय लेखन की बात की जाय तो बात और गंम्भीर है। इस क्षेत्र मे तो मुझे श्री अजित पुष्कल जी व विनोद रस्तोगी के अलावा  किसी और का  नाम नही याद पड रहा हो जो। नाटय लेखन की ओर प्रब्रत रहा हो। हां सरन बली जी जैसे वरिष्ठ रंगकर्मियों ने एक दो कहानियो का नाटय रुपांतरण जरुर किया। श्री लक्ष्मी कांत वर्मा,श्री उपेंद्रनाथ अष्क जैसे लोगो ने बहुत पहले ही इससे किनारा कर लिया था। नयी पीढी मे रति नाथ योगेष्वर ने जरुर एक दो नाटक स्वयम लिखे व निर्देषित किये हैं। उनक पहले नाटक को रंगवीथिका ने ही सबसे पहले मंच दिलाया था। खरगौन पटना मे। नाटक का नाम था। ‘चीख’ उसके बाद तो सुना है रती नाथ ने और कई अच्छे नाटक लिखे है। उनमे ‘नाच बंदर नाच’ व ‘खों खांे भेां भों’ मुख्य हैं। अब तो नयी पीढी मे अभिनय व निर्दंेषन के प्रति ज्यादा लगाव रहा है। न कि लेखन के।

उन दिनो तक नाटक के संगीत,प्रकाष व मंच व्यवस्था के प्रति भी बहुत ज्यादा प्रयोग नही होते थे। लोगो के अंदर मौलिक प्रतिभा का ह्रास सा हो रहा था। कुछ बडे नाटककार तो दिल्ली बाम्बे से नाटक देख कर आते थे और उन्ही की नकल थेाडे बहुत परिर्वतन के साथ यहां की जनता के सामने परोस देते थे।
नाटक की प्रस्तुतियो मे ज्यादा मेहनत नही की जाती थी।

अच्छी व नयी प्रस्तुतियों के अभाव मे रहे सहे दर्षक भी नाटक से मुह मोडने लगे थे। इलाहाबाद मे दर्षको का तो वैसे भी अभाव था।

इलाहाबाद मे नाटक के रिर्हषल के स्थान का अभाव हमेषा से रहा है। कुछ गिने चुने स्थान है। जो काफी मंहगे होने के कारण अक्षर छोटी संस्थाओं की पहु्रंच के बाहर रहते थे। वे स्थान हैं हिंन्दुस्तान एकेडमी,अंजुमन रुहेअदब,र्जाज टाउन एसोसियेषन का हाल।
खैर भले ही कितने ही अभाव रहे हांे पर उन दिनो इलाहाबाद मे नाटक मे छोटे बडे दोनेा ही स्तर पर काफी काम हो रहा था। भले ही दर्षक न आते रहे हों। इसके अलावा वीरेंद्र षर्मा का अखिल भारतीय लद्यु नाटय प्रतियोगिता भी इलाहाबाद की षान थी। अकेले दम पे कराया जाने वाला यह आयेाजन भी अपने आप मे अनूठा व अलग की कार्यक्रम होता। जिस कार्यक्रम की कमी आज षिददत से महषूष की जाती है। श्री वीरेंद्र षर्मा जी के इस अखिल भारतीय नाटय प्रतियोगिता ने ही उत्तार भारत व षेष भारत मे इय प्रकार के आयोजनो का प्रेरणास्त्रोत रहा है। यह अखिल भारतीय नाटय आयोजन अपने आप मे एक महाकुंभ होता जो न केवल देष की कला संस्क्रति की बहुरंगी छटा बिखेरता बल्कि उन सब को एक सूत्र मे बंधने की प्रेरणा व उत्साह भी देता। लोगो को खासकर इलाहाबाद की जनता को बहुत कुछ सीखने का मौका भी मिलता। उस तरीके के आयोजन की कमी को पूरा करना इलाहाबाद के रंगकर्मियो का उत्तर दायित्व बनता है। देखना है कि यह उत्तर दायित्व उठाने की पहल कौन करता है।

वैसे इस अभाव की पूर्ति विगत तीन वर्षेा से स्व0  लक्ष्मी कांत वर्मा स्म्र्रति नाटय प्रतियोगिता का आयोजन समयांतर अपने सीमित साधनो मे रह कर कर रही है।
यह प्रयास कितन रंग लायेगा यह तो भविष्य ही तय करेगा।


इलाहाबाद मे तीन भाषओ मे रंग कर्म की त्रिवेणी बहती है। हिन्दी,बंगला, अंग्रेजी ।
जंहा अंग्रेजी नाटको मे श्री संचिन तिवारी जी अकेले ही कारवां लेकर कई दषको से चल रहे है। तो बंगला नाटको मे भी मात्र दो तीन संस्थाएं ही सक्रिय रहती हैं। बाकी तो मात्र दुर्गा पूजा के वक्त ही थोडा बहुत उछल कूद करती हैं। रही हिन्दी नाटको की तो पहले ही कह चुका हूं कि नाटक तो लगातार कुछ न कुछ अंतरालो के बाद होते ही रहते हैं। कभी वह छोटी संस्थाओ के द्वारा हो या पुरानी स्थापित संस्थाओ के द्वारा हो। हां यह अलग बात है कि से संस्थाएं नये नाटक न करके अपनी कुछ पुराने मंचन को ही परोसते रहते हैं।
आज इलाहाबाद का रंगमंच कहां है कह नही सकता पर इतना जरुर है कि उत्ता मध्य सांस्क्रतिक केंद्र की सहायता के बावजूद बहुत अच्छा नही हो रहा है।
नयी खेप मे अक्सर उत्साह तो दिख जाता है पर गहरायी, लगन व परिपक्वता कम ही नजर आती है।

सात नवंबर उन्नीस सौ अस्सी से तीन अप्रैल उन्नीस सौ एक्यानबे से लगभग दस साल इलाहाबाद के रंगमंच से सक्र्रीय भागेदारी मे बीते।

अतर सुइया का यह मुहल्ला उस समय तक छोटी जात के लोगों और निम्न मघ्यम मघ्यम वर्गाीय लोगो का मुहल्ला था।
धेाबी,तेली, बनिया, रिक्षा वाल,े फेरी वाले,खांचे वाले मुख्य थे।

रानी मण्डी की सडक सुबह से ही रिक्षे की द्यंटियों की टुन टुन व राहगीरों की आवाजेा से गुंजायमान हो जाती है।
जब कभी करने को कुछ खास न होता, नाटक का रिह्रषल न होता या कहीं आना जाना न होता तो मुकेष बाबू बैठ जाते द्यर के चबूतरे पे या कि खडे हो जाते छते के बारजे मे।
न जाने कितना वक्त कट जाता यूंही सडक पे आते जाते लोगो को देखते हुए।
अंर्तमुखी मुकेष बाबू का नया षगल । अक्षर या कहो ज्यादातर जब कभी करने केा कुछ न रहता तो छत पे या चबूतरे पे बनी सिमंटेड कुर्षी पे बैठ हैंे। और बैठे हैंे द्यंटो द्यंटो तक। निहारते आते जाते साइकिल सवारो को। द्यंटियां टुनटुनाते रिक्षों को, पैदल चलने वाले राहगीरो को। स्कूल जाती लडकियों को।
अक्षर तो यह सिलसिला सुबह से षुरु हो की रात देर तक चलता रहता। सिवाय एक आध द्यंटे खाना खाने व नित्य कर्म करने के।
एैसे ही एक सुबह की बानगी देखिये

सुबह सुबह सामने बंगालिन मॉजी के द्यर के चबूतरे पे कुछ बंगाली बीडी पीते व छोटे छोटे थेैले लिये बैठे हैं। जो ज्यादातर बंगाली मे ही बाते कर रहे है। व सदियापुर से आते मुछुआरो व मछुआरिनो से मछलियो का मोल भाव मे व्यस्त हैंे।
सुबह लगभग आधा से एक द्यंटा यह कार्यक्रम चलता। बंगालियों का एक एक मछली छू छू कर देखना। मोल भाव करना। और फिर लुंगी व पैंट कुर्ते की ड्रेस मे वापस जाते देखना व उनके बारे मे अनुमान लगाना एक अच्छा खाषा मनोरंजन का साधन था। मुकेष बाबू का।
उसके बाद रिक्षे पे दो दो तीन तीन करके स साइकिल पे जाती लडकियो को निहारना भी अपने आप मे एक अलग खुषनुमा अहषाष होता।
इस सडक पे सुबह से ही स्कूली लडकियो का आना जाना षुरु होता जो षाम देर तक चलता रहता।
जिसका टाइम टेबल कुछ इस तरह था।
सुबह साढे छह से सवा सात बजे तक जी एच एस की लडकियां निकलती। उनका काफिला खतम होते होते खत्री पाठषाला डिग्री कालेज की लडकियां निकलना षुरु हो जोती। नौ बज्ेा उनके काफिले के खत्म होते न होते गौरी पाठषाला की  छात्राएं निकलने गुजरने लगती। उसके कुछ देर बाद ही रमा देवी इंटर कालेज की छात्राएं गुजरती। इस काफिले के खत्म होते होते वापसी का सिलसिला षुरु हो जाता। लिहाजा यह कार्यक्रम दोपहर के कुछ द्यंटो को छोड कर दिन भर चालू रहता। षाम को फिर संगीत कालेज की लडकियो का आना जाना चालू हो जाता। इसके साथ ही मंदिर व बाजार जाने वालियां भी सज धज के निकलना षुरु कर देती।
लिहाजा द्यर के सामने की सडक बोर नही होने देती थी।
न जाने कितने चेहर,े रोज रोज दिखाई पडते जिस दिन न दिखते अजीब सी बेचैनी रहती। यह बताने वाली बात ही नही है कि वे चेहरे किसके होंगे।
लोगों को गौर से देखना,देख कर उनके बारे मे अनुमान लगाना। यह खेल ऐसा था जिसमे किसी दूसरे के न होने की कमी नही महषूष होती।

मुकेष बाबू अपने आप मे मगन। जो मिलता खा लेते जो मिल जाता पहन लेते। हां मन ही मन न जाने क्या सेाचते गुनते रहते।
न आज की चिंता न कल की परवाह।
स्कूल के दोस्त यार धीरे धीरे नौकरियो या काम धंधे मे लगते जा रहे थे। जो नही लगे थे वे पूरी तरह से भविष्य को लेकर चिंतित थे। पर मुकेष बाबू को कोई परेषानी नही थी।

हालाकि उधर द्यर की माली हालत बिगडती जा रही थी। मामा त्रिभ्ुावन नाथ रिटायर हो चुके थे। पंेषन मिलना अभी चालू नही हुई थी। लिहाजा खर्च का अधिकांष बोझ भोला बाबू के उपर आ चुका था।
लिहाजा उस संयुक्त परिवार मे किसी न किसी बात पर व छोटे छोटे खर्चों को लेकर चक चक मची रहती। जिनसे बचने का आसान तरीका होता द्यर के बाहर रहना।
उन्ही दिनो एक और षौक चरराया। पढने का।
उपन्यास कहानिया व पत्रिकाएं पढने का षौक तो षुरु से ही रहा। पर अब यह षैाक रास्ते बदलते हुए ज्येातिष,त्रंत्र,मंत्र,इतिहास, भुगोल,दर्षन इत्यिादि इत्यिादि। की तरफ मुड गया।
और यह षौक पूरा होता भारती भवन पुस्तकालय मे जाकर।
लोकनाथ की पतली पतली गलियों व सब्जी मण्डी की चक.चक के बीच बना यह सवा सौ साला पुराना पुस्तकालय अपने आप मे इलाहाबाद की एक षान व धरेाहर है। किसी जमाने मे उसी पुस्तकालय मे जाने वाली महान हस्तियो मे रहे हैं। उपन्यास सम्राट मुंषी प्रेम चंद, श्रीमती कमला नेहरु,पुरुषेात्तम दास टंडन इत्यादि।
उस जमाने मे जब कभी फुरसत मिलती मुकेष बाबू वही आ धमकतें। फिर तीन चार द्यंटे कब बीत जाते पता ही न लगता। अक्सर सुबह आने वालो मे सबसे पहले वही होते व जाने वालो मे सबसे बाद की कतार मे होते।
लोकनाथ की बात चली तो यह लिखना असंगत न होगा कि लोकनाथ की गलियों का भी अपना अलग और महत्वपूर्ण इतिहास रहा है। एक से एक साहित्यकार पहलवान नेता समाजसूधारक इन्ही गलियों मे ही पले बढे हैं। यही की व्यामषाला मे अपनी मांस पंषियों को मजबूत किया हैं। ओर इन्ही संकरी गलियांे मे बिकने वाली मलाई रबडी व दूधे से अपने षरीर को पुष्ट किया है। और भंग की लहर मे भी यहीं की बूटी मे डूबे है। यह सही है कि आज भी लेाकनाथ की गलियांे मे बिकने वाली मिठाई नमकीन व दूध के समानो का काई सानी नही है। इन सबके अलावा लोकनाथ की मस्ती की अपनी छटा है। हसकी मुख्य सडक मे लगने वाली सब्जी की दुकानो मे जोर जोर से चिल्ला चिल्ला के सब्जी वालेां का सब्जी बेचना। मुहॅ मे दातोन दबाये। गमछा या लुगी पहने हुए ही घर से से सब्जी खरीदने चल देना। इसी लोकनाथ मे ही  देखा जा सकता है।

जिसने इलाहाबाद के लोकनाथ की गलियांे को नही देखा उसने इलाहाबाद नही देखा। जिसने इन गलियांे से गुजरते हुए यहां की नमकीन,मिठाई व लस्सी के साथ भांग का मजा नही लिया उसने इलाहाबाद का मजा नही लिया।

पढना,पढाना और रंगमंच करना यही दिनर्चया रही है। 3.4.1991 तक उसके बाद कहानी नया मोड लेती है। दिल्ली प्रवास के साथ।
जिंदगी के इस फेस की कुछ कहानी अनकही है उसे आगे फिर कभी।

सारांष मे कहा जाये तो।
बालावस्था के सात वर्ष केतु की महादषा मे बीते हारी बीमारी झेलते।
आठ से अठठाइस साल बीते लग्नेष षुक्र की महादषा मे। षुक की महादषा मे ही पढाई पूरी। और रंगमंच से जुडा भी और छोडा भी।
लग्नेष की महादषा खत्म हेाते होते जन्म स्ािन छोडने की भूमिका तैयार हो चुकी थी। जिसकी कहानी आगे।

सूर्य की महादषा ने जिंदगी को एक नयी रोषनी दी नौकरी दिलायी,द्यर छुडाया व षादी करायी।

नोट...कहीं पढा है। जिंदगी सीधी सादी नही हुआ करती। जिनकी हुआ करती है,वे आत्मकथाएं नही लिखा करते। उनके पास कहने को कुछ होता ही नही। इसलिए उनसे कोई प्रेरणा नही मिलती।

सूर्य की महादषा।
मार्च 1991। होली के पहले पहले आसार बन गये। इलाहाबाद छोडने के। प्राइवेट संस्थान ‘मर्हषि संसथान’ मे नौकरी पाकर।

मुकेष बाबू चल दिये। नौकरी करने।दिल्ली।
नया षहर नये लोग नयी बातें।
आते ही पहले दिन पहला अनुभव।
जिस बचपनिया दोस्त को समझ बैठे थे कि वह षुरुआती सहारा देगा षिर छुपाने का।वही बहाने से मुकरने लगा।
मुकेष बाबू समझ गये कि अब वह द्यर की छांह से दूर आ गये हैं।
खैर दूसरा ठिकाना ठीक किया।
चचेरे बडे भाई ओमप्रकाष श्रीवास्तव के द्यर।
अठठाइस साला जीवन मे जिनसे अठठाइस बार भी मुलाकात नही हुयी थी। पर खून एक था। अभी इतना फर्क न हुआ था। ठिकाना मिला।
मुकेष बाबू सुबह। ऑफिस जाते।बाजार से छोला कुल्चा ले उदर पर्ति करते। वही उनका लंच होता।या भोजन।
उन्हे चार दस रुपये रोज मे दिन काटना था। ताकि साथ लाये दो तीन सौ मे ही तनख्वाह मिलने तक किसे से हांथ न फेैलाना पडे।
उन्हे अहसास था कि अभी उनके संर्द्यष के दिन खत्म नही हुए हैं।
षनी महराज व केतु की क्रपा जा ठहरी।
दिन ऑफिस मे बीतता किसी सहमी चिडिया सा।या चिडिया द्यर मे आये नये जानवर सा।
और ष्षाम पार्क के कोने मे भीड व लोगो को आते जाते देखना कुछ वजह और कुछ बेवजह। महज समय पास करने के लिहाज से। ऊब जाने पे गिन कर सिगरेट पीना।और फिर बैठे रहना यूंही।बेवजह।

कभी कभी राकेषवर्मा के साथ।कनॉट प्लेस का चक्कर लग जाता। और मेाहनसिंह पैलेस की काली काफी पी इलाहाबाद की गुमटी का चाय को याद करना। और नाटक की पुरानी स्म्रतियों मे खो जाना।

ओमजी दादा के यहां सुबह का नास्ता षाम का खाना व सोने की जगह होने के बावजूद वह अपना पन न महषूष होता जिसकी अपेक्षा थी। खैर सारे मानापमानो को पीते हुए। तीन महीने कटे।
उन तीन महीनो की भी सेैकडो अच्छी बुरी यादेा के लिये अलग से ही लिखना पड सकता है। खैर।
जुलाई 1991 मे कम्पनी से कह सुन कर कई लडको के साझे मे रहने के लिये मकान का प्रबंध हुआ।
मुकेष बाबू अपना एकमात्र बैग अटैची सम्हाले फरीदाबाद व दिल्ली के बार्डर यानी बदरपुर बार्डर पे एक किराये के मकान मे रहने आगये।
मकान न0 460, सेक्टर 37,बदरपुर बार्डर।फरीदाबाद।
चार कमरो का नया मकान। एक मे कुंवर सतीष उर्फ टेलीफोन आपरेटर रहते थे। दूसरे मे संजय ममगांई उर्फ स्टैटीषियन रहते थे। दो कमरे खाली थे। एक कमरा बतौर रास्ते के इस्तेमाल किया जाता। दूसरा र्ड्राइंगरुम था। बिना अलमारियों का। उसी मे कोने मे एक पटरे को ईटो के ऊपर रख कर अपना समान सजा चुके थे। मुकेष कुमार। और दरी उसके पास ही बिछ चुकी थी।
एक और नया अध्याय जुड चुका था। जीवन का। मुकेष बाबू चित लेटकर हथेलियों को षिर के नीचे तकिया सा बनाया और डूब गये विचारों के महासागर मे।
कभी बीती बातें याद आती तो कभी आगे अस्पस्ट भविष्य को देखने की कोषिष करते।
संजय ममगांई के साथ खाना बनाना तय हुआ। खर्च आधा आधा होना तय हुआ।
सुबह संजय और ष्षाम मुकेष बाबू खाना बनायेंगे यह भी तय हुआ।
सुबह सूखी,कच्चाी पक्की रोटी सूखी सब्जी के साथ नास्ते मे खाना और वही लंच के लिये ले जाना।

जली अधपकी रोटियां। सूखी सब्जी। सुबह का नास्ता। और दोपहर का भेाजन होती। रात का डिनर भी इससे ही मिलता जुलता होता। और 600 रुपये मे और क्या खाया जा सकता था।

दिन कटने लगे। बीती बातों केा याद करते। कभी याद आती इलाहाबाद की सडकों की । गलियों की। नाटक के दोस्तों की। अपने पढाये लडके और लडकियों की। होली के हुढदंगो की । दषहरे और दिवाली की मस्तियों की। और न जाने कितनी कितनी बातों की।

खैर। आफिस मे कई इलाहाबाद के लडकों से दोस्ती बनी पहचान बनी । मिलना जुलना बढा। पीना पिलाना भी हुआ। पर पता नही क्यों दोस्ती मे वह बात वह मिठास वह अपनापन नही बन पा रहा था। जो इलाहाबाद के दोस्तों मे हुआ करता था। कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी महषूष होती।
न जाने क्यों मन कुछ अजीब सी तलाष मे भटकता रहता। न दिन मे षुकून न रात मे चैन।
पढने की आदत मे विराम लग चुका था। कारण नई किताबे खरीदने के लिये पैसे न होते । और आसपास कोई लाईब्रेरी वगैरह भी न थी।
खैर पुराने पढे की जुगाली चलती रहती। साल दर साल बीतते रहे। होली दिवाली इलाहाबाद आते रहे जाते रहे। कहीं कोई हलचल नही। कहीं कोई विषेष द्यटना नही। सब कुछ ठीक ठाक ढंग से होने के बाद भी एक रीतापन मन केा कचोटे रखता। मन किसी की मीठी मीठी बातों मे खेाजाना चाहता। मन किसी की गोद मे लेट उसके आंचल से मुहॅ ढप लेना चाहता। मन कुलांचे भरता। कभी इधर तो कभी उधर। पर मन केा कहीं कोई ठौर न मिलना था और न मिला। यहां तक कि जिसकी यादें मन मे समोये इलाहाबाद से आया था। उसकी तरफ से भी कभी कोई सकारात्मक इषारा नही आया। लिहाजा मन आवारा बादल सा उडता रहता और उदास होकर  अपने कमरे के कोने मे पड रहता।

दिल्ली मे राकेष वर्मा का साथ रहा। लगभग एक साल। राकेष के साथ वक्त अच्छे से कट जाता। नाटक की, साहित्य की, पुराने दोस्तों की और अपने पसंद की बातें होती। अक्सर षाम काफी हाउस की छत पर द्यंटो काफी सुडकते और कनाट प्लेस का चक्कर लगाते बीत जाती। और फिर पांच सौ साठ नम्बर की बस पकड कर सफदर जंग के एक बडी सी इमारत की सबसे उपरी छत के एक रुम के सेट मे दोनो आ दुबकते  रात दो तीन बजे तक छत पर या कमरे मे फिर कुछ न कुछ गुटरगूं करते और चाय सुडकते। अगर प्रीती भाभी रहतीं तो उनके हांथ के बने भोजन का आनंद लेते। प्रीती भाभी का भी स्नेह काफी रहा। उनके हल्के फुल्के मजाक बाझिल मन को हल्का कर देते। पर जल्दी ही राकेष इलाहाबाद चले गये और फिर मै अपने उन्ही दोस्तों के साथ रह गया निनके साथ रहने के बाद भी मन के तार जुड नही पा रहे थें। पता नही क्यों।
इन्ही दिनो एक इलाहाबादी व आफिस के साथी से कुछ द्यनिष्टता बढी राजेष से। लगा कुछ परिपक्वता इस आदमी मे है। पर वह भी जल्दी इलाहाबाद वापस चला गया।
खैर ...

अब आया सन उन्नीस सौ चौरानबे। कई महीने गुजर गये थे द्यर गये। भाई की चिठठी आयी। चले आओ लखनऊ से लडकी वाले आ रहे हैं। रक्षाबंधन के दिन आयेंगे। जरुर से आजाना। मजबूरन जाना पडा।
लडकी देखी। दुबली पतली। सांवली सलोनी। तीखे नाक नक्ष।
लडकी मुकेष बाबू को भा गयी।पहले फोटो देखी थी उसमे भी भली लगी थी। कुछ लोगो को लडकी दुबली बता रहे थे। पर सिर्फ दुबलेपन केा कारण बना के मना करना मुकेष बाबू को ठीक न लगा। उन्होने हां करदी।
बस क्या।
आनन फानन मे षादी तय हो गयी।

मुकंेष बाबू बंध गये जीवन भर के लिये। रक्षा बंधन के दिन। तारीख थी। 21.07.1994।
मुकेष बाबू नये सपनो केा लिये दिये लदे फंदे हमेषा की तरह प्रयाग राज एक्सप्रेस पकड कर दिल्ली चले आये।
उधर द्यर मे उत्साह था। भोला बाबू, माताजी बहन, छोटा भाई सभी पूरे जोषो खरोष से विवाह की तैयारियों मे जुट गये। और मुकेष बाबू इन सब से बेखबर फिर अपनी नौकरी मे लग गये। और नये सपनो को सजोने लगे।
कई बार झुरझुराहट भी होती कि इतनी कम सैलरी मे कैसे पत्नी को लेकर रहेंगे। वह भी दिल्ली जैसी नगरिया मे। पर दूसरों केा देख कर सोचते। जैसे इतने आदमी रह रहे है। उसी तरह भगवान ने जरुर उसके लिये भी कुछ न कुछ सोंचा जरुर होगा।
दिन आफिस मे कट जाता। रात सपनो मे कटती। सुबह षाम खाना बनाने व पकाने मे।
खैर गिन गिन कर। छह मॉह बीते। फरवरी आयी।

गुलाबी जाडा लेकर आही गया वह दिन। जिसका हर एक की जिंदगी मे एक अलग महत्व होता है।
यानी 19 फरवरी 1995
और,
तमाम दोस्तो ने जाम पे जाम चढाये।
खुषी से झूमे नाचे।
बैंड बाजे की थिरकन पे गाये।
आज मेरे यार की षादी है आज मेरे यार की षादी है।
मॉ बहनो ने बन्ना बन्नी गाये। रीत रषम की।
मुकेष बाबे ने सेहरा बांधा।
और चल दिये।
बरात लेकर।
पिता बाबू अम्बरनाथ व भाई ब्रजेष के साथ।
और साथ मे थे नातेदार रिष्तेदार।
षिवजी की बरात चली। नातेदार रिष्तेदार नाचेगाये। कई द्यंटे बरात चली। किसी ने पानी के बहाने दोतीन पैग लगवा दिये मुकेष बाबू को भी। जिसका नषा आज तक न उतरा हेै।
खैर।
ब्याह हुआ। बारात वापस आयी।
सुहारात आयी।
बडे अरमानो के दिन। इंतजार के दिन।
मेहमानो के जाते जाते। रात काफी गहरा गयी थी। नयी दुलहन। थक कर वहीं बैठे बैठे सो गयी थी। मुकेष बाबू बाहर ओस मे नहाते ठंड मे स्कूटर की सीट पे बैठे।सिगरेट फूक रहे थे।
रात के लगभग तीन बजे। इंतजार की द्यडियां खत्म हुयी।
मुकेष बाबू की नींद तो कोषों दूर थी। पर दुलहन बनी कुमारी निषी की बडेरी अंखियां नींद से बुरी तरह बोझिल थीें। चाह कर भी तन व मन न साथ दे पा रहा था।
मुकेष बाबू को तो आज भी उस रात का एक एक पल हू बहू याद है। पर निषी को यादा है यह नही। यह पता नही और न ही पता करने की चाहत है।
खैर जिंदगी की गाडी नये टै्रक से आ लगी। पर चलने के लिये मुकेष बाबू आर्थिक रुप से इस कदर टूटे थे कि किस तरह यह गाडी चलेगी। सोंच सोंच परेषान थे। पर यह परेषानी नयी पत्नी को देख देख कुछ देर को दब जाती पर अकेले होते ही कलेजे मे कांटा से गडने लगता एक द्यबराहट सी होने लगती। जिसे सिगरेट के कष से कुछ कम करने की कोषिष करते।
द्यबराहट ज्यादा बढ जाती तो षिर झटक सोंचते चलो जो भी होगा देखा जायेगा। सारा का सारा बुरा मेरे ही भाग्य मे थोडे ही लिखा है।
और इसी भाग्य भरोसे। मुकेष बाबू मात्र बीस पचीस दिन बाद। अपनी पतली दुबली पर जीवट से भरपूर पत्नी को कुछ जरुरियात के सामानो के साथ लेदेकर फरीदाबाद के 333 नंबर मकान मे आ गये।
आते ही निषी की बीमारी के बारे मे पता लगा कि उसे अक्सर एसीडिटी की षिकायत हो जाती है। यह उसके पथरी के कारण है जिसका आपरेषन भी हो चुका था। एक झटका तो लगा। पर सह गये। जिस मुकेष बाबू ने आज तक षिरर्दद की दवा तक न ली हो और पांच साल से इस सरांय ख्वाजा मे रहने के बाद भी किसी केमिस्ट को न जानते थे। वही निषी के आने के बाद से सारे डाक्टरों और केमिस्टों को जान चुके थे।
खैर ...
निषी ने दस पंद्रह दिनो बाद ही अखबारों मे नौकरी तलाषनाषंुरु कर दिया। वह समझ गयी थी। मुकेष बाबू की पंद्रह सौ की पगार मे दाल रोटी भी न जुड पायेगी। बहुत मना करने पर भी वह फरीदाबाद से तीस किलोमीटर दूर पुरानी दिल्ली मे एक नौकी अढाई हजार की ढूंढ ही ली।
दोनो चुग्गा चुग्गी। दानापानी और तिनका तिनका जोडने लगे।
निषी को यह साझे का द्यरौंदा पसंद न था। जिसे अपने ऑफिस के दो और बेचलर साथियों के साथषेयर करना पड रहा था।
लिहाजा रेाज रोज मकान बदलने का फरमान आने लगा। इस नयी फरमान से आराम की जिंदगी जीने वाले मुकेष बाबू को उलझन होने लगी। बहुत समझाया पर वह जिद की मानने को तैयार नही।
हार कर नया द्यरौंदा ढूंढने की मुहीम चालू हयी जो नोयडा के सेक्टर सोलह के एक कमरे के मकान मे जाके रुकी।
मकान क्या था मुर्गी का दडबा कहने को तो दो कमरे पर एक कमरा कोठरी से भी बदतर। दूसरा कमरा भी कमरा न कह कर पहली कोठरी का एक्सटंेषन ही लगता था। एक आदमी भर के खडे होने लायक रसोंई और इतनी ही बडी लैट्र्रीन। किसी तरह दिन कट रहे थे। अब तक निषी ने भी पुरानी दिल्ली की नोैकरी छोड ओखला मे साढेतीन हजार की नयी नौकरी पकड ली थी। मुकेष बाबू की तनख्वाह मे डेढ हजार का इजाफा हो चुका था। लिहाजा लग रहा था अब खाना पीना करके हजार पांच सौ बचाया जा सकता है। पर नोयडा से ओखला रोज आना जाना फिर द्यर का काम काज निषी की कोमल काया न सह पायी और वह कमजोर होने लगी साथ ही चिडचिडी। लिहाजा अभी हांथेा की मेंहदी ठीक से छूटी भी न थी कि दोनो मे किचकिच ष्षुरु हो गयी। हालाकि मुकेषबाबू द्यर के काम काज मे भी पूरी तरह हांथ बटाते पर निषी के तेज स्वभाव के कारण खटर पटर हो ही जाती। इन्ही दिनो पिताजी का भी आना हुआ। अपने द्य़ा मे उन्हे लेटने की जगह न थी लिहाजा बगल के कमरे मे सोने के लिये जाते। उन्हे भी मकान न पसंद आया था। पर बिना कुछ कहे वापस चले गये।
अब एक बार फिर नये आषियाने की तलाष आरम्भ हुयी। तभी अचानक अविनाष से इस बाबत जिकर हुआ और उनके र्माफत नोयडा के सेक्टर 34 मे सारा माल असबाब लेकर दोना चिडिया चुग्गा आ गये। नये द्योंसले मे। 84 डी। टाप फलोर। का मकान यह भी दो कमरो का एक आइ जी। पर पहले से कुछ बेहतर।
इस तीसरे मकान मे आते आते निषी ने तीसरी नौकरी इसी नोयडा मे ही साढे तीन हजार की ढूंढ ली थी।
इस बार भी लगा जिंदगी की गाडी अब ठीक ठाक चल रही है।
हालाकि अभी भी दोनो मे तुन्नक तूना होही जाती थी।
धीरे धीरे विवाह को एक साल हो गये।
अब दोनो के द्यर वालों की उम्मीदें जगने लगी। ऊपर से कोई कुछ न कहता पर आपस मे काना फूसी तो होही रही थी।
इन दोनो चुग्गा चुग्गी ने भी मन बनाया कि परिवार बढाने का समय आ गया है। हालाकि मुकेष बाबू जान रहे थे कि निषी प्रिगनंेषी और नौकरी दोनो एक साथ नही झेल सकती पर। नौकरी जाने के डर से इस बात से भी तो नही बचा जा सकता।
इसी बीच एक दिन मकान ब्रोकर ने सूचना दी यह मकान बिक चुका है। लिहाजा एक मॉह के भीतर नया मकान ढूंढ लेना है।
लिहाजा ग्रिहस्थी जमने के पहले एक बार फिर ग्रहस्थी उठानी पडी।
अब सुबह नौेकरी होती, षाम ब्रोकरों के ऑफिसो मे चक्कर लगाये जाते। काफी दौड धूप से एक मकान मिला उसी सेक्टर मे। दूसरे क्लस्टर मे। ग्राउंड फलोर। पर किराया दो हजार। सिक्योरटी चार हजार। और दो हजार रेंट कमीषन। षिफटिंग खर्च अलग कुल मिला कर लगभग दस हजार का खर्च। एक बडी समस्या।
पर क्या किया जाय। कुछ ऑफिस से एडवांस लेकर कुछ उधार लेकर कुछ अपने पास से मिला जुलाकर नये मकान का किराया जमा किया गया।
कहां 84 डी का किराया ग्यारह हजार। और इसका दो हजार। एक बार मे ही नोै सोै ज्यादा। महीने का बजट बिगड गया।
खैर। नये मकान मे आने के कुछ दिनो बाद ही नये मेहमान के आने की भी
सूचना मिल गयी। लिहाजा अब निषी की सेहत को देखते हुंए। डाक्टरों ने आराम की सलाह दे दी।
लिहाजा नौकरी छोडनी पडी।
लिहाजा मुकेष बाबू खुष होने की जगह नयी आर्थिक परेषानी से द्यिरते चले जा रहे थे। एक तरफ तो मकान का किराया बिजली पानी लेकर ढाई हजार।
ऊपर से निषी का नौकरी छोडना। लिहाजा अब साढे तीन हजार मे द्यर की गाडी चलाना एक समस्या। कहीं कोई रास्ता नही सूझ रहा था।
मुकेष बाबू बखूबी समझ रहे थे कि ष्षनी की साढे साती अपना भरपूर असर दिखा रही है। और इय वक्त जहां निषी की उतरती साढे साती थी तो इनकी चढती। लिहाजा ढाई साल तो झेलना ही झेलना था।
ठइन्ही  कडकी के दिनो मे इलाहाबाद से माताजी व बहन जी का भी आना हुआ। ये दोनो पहली बार आयी थीं। द्युमाना फिराना भी था। और भी कई खर्च बढ गये, किसी तरह दाल रोटी चल रही थी।
ळहालाकि दोनो लोग दस बारह दिन बाद  ही वापस चली गयी।
एक बात और जो उल्लेखनीय रही वह यह की कडकी और तकलीफ को निषी न बरदास्त कर पायीं। और उनका व्यवहान बहुत उत्साहजनक न रहा माता जी व बहन के प्रति। मुकेष बाबू को बहुत निराषा व क्षेाभ था, पर मजबूरी वष कुछ कह न पा रहे थे। माताजी सारी चीजों को भांप गयी थी।षायद इसी वजह से भी वह जल्दी वापस चली गयी।
खैर ...
इन दिनो अविनाष दिनेष व चक्रवर्ती दादा तीन ऑॅिफस के लागेां से द्यरेलूं संबंध बन चुके थे। जो काफी मानसिक सहयोग दे रहे थे।
उधर डाक्टरों ने निषी के हीमोग्लोबीन बहुत कम होने की बात बतायी और आराम करने को बताया।
लिहाजा बहुत सोंच बिचार के बाद यह तय हुआ कि निषी को इलाहबाद चली जायेंगी वैसे भी डिलेवरी वहीं ही होनी थी।
और यह दो हजार का मकान बदल कर कोई एक कमरे का मकान ले लिया जायेगा। ऐसा एक मकान अविनाष के एक परिचित का था भी। वहीं पास मे ही। जिसे पहले दोनो ने कम जगह की वजह से मना कर दिया था।
जिसे बाद यह सेाच कर मुकेष बाबू ने ले लिया कि। यहां नोंयडा दिल्लाी मे वैसे भी ग्यारह महीने की लीज होती है। और जिस मकान मे है उसकी मियाद भी खत्म होने वाली है। तीसरी बात अब सादा दो साल निषी को यहां ज्यादा रहना भी नही है लिहाजा अकेले के लिये एक कमरा काफी है।
और इस कडकी मे उस मकान के किराये से पांच सौ बचेंगे। क्योंकि इस एक कमरे के मकान का किराया पंद्रह सौ था।
लिहाजा निषी को इलाहाबाद पहुचा कर एक बार फिर षिफटिंग का कार्यक्रम चालू हुआ। यह दो साल मे पांचवा मकान बदलना हुआ।
नये मकान मे अकेले ही सारा सामान षिफट कर।
हांफते कांपते, द्यर्र द्यर्र द्यूमते पंखे की पंखडियां गिनते मुकेष बाबू सोंच रहे थे।
मानो पैदाइस के ग्रहनक्षत्र फिर से द्यूम कर वहीं आ गये हों। और मुकेष बाबू मकान दर मकान बदल रहे थे। और सोंच रहे थे कि यह खानाबदोसी कब तक। कब तक।
इधर मकान की दिक्कतों से परेषान। उधर ऑफिस मे भी काम और आपसी राजनीत के षिकार होते मुकेष बाबू। तीसरी तरफ बहन जी की ष्षादी ठीक न हो रही थी। लिहाज उधर भी चिंता हालाकि उस मामले मे पिताजी व छोटे भाई ही ज्यादा चिंताग्रस्त थे। पर कहीं न कहीं मन मे कचोट तो थी ही कि बडे भाई होने के नाते कुछ तो र्फज बनता है।
पर अपनी ही समस्याएं सुरसामुह सा खुली थीं। लिहाजा दूसरी तरफ सोचने का कुछ मौका ही न था।
उन दिनो
सुबह ऑफिस निकलजाना। रात देर आफिस से आवर टाइम करके आना। जिसका रोज पचास रुप्या मिल जाता। जो उन कडकी के दिनो मे डूबते को तिनके का क्या नाव का सहारा था।
उसी से रोज का खाना खर्चा चलता। और पगार बच जाती। भगवान के फजल से यह राषि डिलेवरी के समय दस हजार तक हो गयी थी। जो काफी कम आयी।
इधर मुकेष बाबू आफिस के कामो मे इस कदर डूब गये कि अपनी समस्याओं व द्यर की बातेा का कोई खयाल ही न रहा।
और उधर मॉ बाप भाई बहन, सास ससुर व ससुराल वाले नवाआगंतुक के इंतजार मे काफी खुष थे।
इन्ही रेगिस्तानी तपती दुपहरी के दिनो मे ठंडी फुहार की तरह साधना दोस्त बन कर जिंदगी मे आयी। हालाकि उसकी दास्ती महज एक स्वस्थ, सुंदर आफिसियल दोस्ती ही थी। पर उस मॉड बेहद पढी लिखी कम्पयूटर लिर्टेट ऊंचेखांदान की खुले विचारों की वह लडकी पूरे आफिस के लिये आर्कषण का केंद्र थी। पर पता नही कब और कैसे मुकेष बाबू जैसे अनार्कषक आदमी से उसकी दोस्ती बढती गयी और रोज जब तक कुछ देर हंसी मजाक व दुनिया के तमाम विषयों पे बात न होजाती दोनो को जैसे चैन न आता।
दिन तमाम समस्याओं और मुसीबतों के बीच भी कटही रहे थे।
पर यह दोस्ती जल्दी ही खत्म हो गयी। कारण वह मॉड लडकी उसी इमारत मे काम करने वाले एक लडके से विवाह करके विदेष उडन छू हो गयी।
और वह इस कदर उडन छू हुयी कि आज तक दोबारा न फोन से और न ही मुलाकात से बात हो सकी।
सुना है वह यू के मे है। ईष्वर करे जहां भी हो खुष हो।
यह बात उन दिनो की है जब मुकेष बाबू इलाहाबाद गये थे।
खैर दृ
जीवन नैया तमाम मझधरों के बीच ढिक्के ढिक्के चल रही थी। जिसे मुकेष बाबू अपनी पता नही किसी अज्ञात ताकत की पतवार से खेते चले जा रहे थंे।
अब मुकेष बाबू को दुनियावी दिक्कते बहत ज्यादा परेषान न करती।
सात आठ महीना ओवर टाइम कर के डिीलेवरी के खर्च की तरफ से निषाखातिर हो गये थे।
उधर डिलेवरी के दिन नजदीक आ रहे थे, पर मुकेष बाबू इन सब से बेखबर ऑडिट के काम व ओवरटाइम मे व्यस्त थे। अगर कभी मौका या छुटटी होती तो अविनाष दिनेष व दादा के यहां हंस बोल आते।
उन दिनो औरो से तो नही पर दिनेष के यहां काफी मेल जोल बढ गया था। नीता भाभी काफी स्नेह देती। उनका सौम्य सांवला आर्कषक व्यक्तित्व काफी लुभावना था। उनका व्यवहार काफी स्नेह पुर्ण रहता।
उधर अविनाष व सुनीता भाभी भी सगे भाई की तरह प्रेम दे रहे थे।
लिहाजा द्यर से दूर रहने का अहसास काफी हद तक दूर हो जाता।
धीरे धीरे अगस्त 95 बीता सितंबर बीता अक्टूबर आ गया नौरात्र लग गया। दिन नजदीक आ रहे थे। द्यर से फोन पर अब अक्सर बातें होती।
दिन षनीवार दोपहर के आस पास आफिस मे फोन आया। निषी को अस्पताल ले जाया जा रहा है। ब्रजेष ने बतायां मुकेष बाबू ने राजीव अरोरा जी से कहा। ऐसी एैसी बात है तो वे बोले। देख लो अगर ज्यादा जरुरी न हो तो दो दिन बाद चले जाना। आडिट का काम करवा के आराम से जाना। वैसे भी तुम्हारे यहां भाई पिताजी माताजी वगैरह सब तो है ही। लिहाजा। मुकेष बाबू डिलेवरी के समय न जा पाये।
खैर दूसरे दिन रविवार की छुटटी थी। सारा दिन द्यर पे सो कर गंुजरा। षाम सुनीता भाभी व अविनाष के जोर देने पर फोन किया गया। पिताजी की खुषी से झूमती आवाज आयी लडका हुआ है। हम बहुत खुष है। मुकेष बाबू समझ गये पिताजी खुषी मना रहे है। उन दिनो फोन टंडन मामा के यहां करना पडता था। तब तक इलाहाबाद के द्यर पे फोन न आया था।
यह खबर ख्ुष होने के लिये बहोत थी। लगा काफी दिनो से चला एक तनाव रिलीज हुआ। अविनाष व सुनीता भाभी भी काफी खुष। वहीं पास से मिठाई खरीदी गयी। खुषी सेलीब्रेट की गयी।
अब द्यर जल्दी से जल्दी पुहुचने की उमग। आफिस मे काम न करने दे रही थी। किसी तरह एक हफता बाद दषहरे की छुटिटयां मे कुछ और छुटिटयां ले कर इलाहाबाद आना हुआ।
आखिर कार प्रयागराज इलाहाबाद पहुंचगयी और पहुंच गये मुकेष बाबू अपने द्यर।
उनके हांथ मे एक नन्हा मुन्ना था। मुकेष बाबू का भविष्य उनका वारिस बाबू अंबरनाथ का पोता और स्व बाबू भगवती प्रसाद का पडपोता। जिसे देख देख जहां मुकेष बाबू तो प्रसन्न थे ही साथ ही साथ दादी मुन्नी देवी और सारे परिवार की खुषी का ठिकाना न था। लगता था मानो आज ही तो खुषी झूम के बरसी हेै। अंबरनाथ के आंगन मे। चाचा ब्रजेष श्रीवास्तव सहनाई तो न बजवापाये थे पर रेडियो विविध भारती पे गाना जरुर लगा दिया था।
और बच्चे की मॉ निषी मन ही बालक को निरख निरख निहाल हो रही थी।

दोपहर और षाम बाते होने लगती। टुकडे टुकडे बात बतायी जाती बालक के जन्म की।
बच्चा नार्मल डिलेवरी से हुआ था। इस बात की तो खुषी थी ही पर इस बात की भी कहीं न कहीं खुषी थी की अगर कहीं आपरेषन कराना पडता तो दस पंद्रह हजार लग जाते ऐसे तो दो हजार मे ही सब कुछ हो गया। जच्चा बच्चा दोनो सकुषल घर आगये।बच्चे की दादी और मुकेष बाबू की माताजी दूहरी खुषी से खुष थी एक तो पहला बच्चा लडका दूसरा नार्मल डिलेवरी। लिहाजा सभी खुष खुष।
माता जी ने बताया बच्चा ठीक रात ग्यारह बजे हुआ। होते ही बच्चे की नानी व नाना का इलाहाबाद आना हुआ। बच्चा सबसे पहले नानी की गोद मे दिया गया। बच्चा ननिहाल मे भी अपनी पीढी का पहलौठा था। नानी ने अस्पताल मे नसांे व दाइयों को मुक्तहस्त से पैसे बांटे और फिर सुबह की गाडी से लखनउ को वापस चले गये थे।
बच्चे का नाम हर एक अपनी अपनी पसंद का सुझाता चाचा ने चित्रांष सुझाया दादी भइया कह के खुष हो लेतीं मम्मी निषी का तो वह गोलू था। नाना के के बाबू उसे गोविंद कह अपनी भावना व्यकत करते और चूंकि उनका भी नाम क्रष्णकांत है लिहाजा गोविंद कह के बालक को अपना ही हिस्सा माना हो। इसी तरह और भी कई बुआओं और रिस्ते की दादियों ने उसे रचित कहते। हर एक का दुलारा बालक अलग अलग नामेा से पुकारा और खिलाया जाने लगा।
मुकेष बाबू कुछ दिन छुटिटयां बिता मा बाप का संग साथ कर बीबी बच्चेां को लिये दिये पुन दिल्ली आ बाबूगिरी मे व्यस्त हो गये।
अब एक आम ग्रहस्थ और सामान्य आदमी की तरह सुबह नास्ता कर और टिफिन ले बीबी बच्चे को टाटा बाय बाय कह बस के धक्के खा खा कर आफिस जाते और ष्षाम थक हार कर आते चाय पीते सिगरेट का कष लेते सब्जी भाजी तेल मसाला जो घटा बढा रहता लाते और खापीकर बच्चे कि किलकारियां सुनते और बीबी के साथ सो जाते।
हालाकि सोते जरुर पर दिमाग जागा रहता नींद न आती। भविष्य और बढती महंगायी को लेकर चिंतित रहते। और रोज रोज मकान बदलने की झंझट से निजात मिलती नही दिख रही थी। और तीन हजार की पगार भी नाकाफी रहती महीना पुजाने के लिये और उपर से घर परिवार व बच्चे के बढते खर्च जो अभी तक एक उधार ले दूसरे को पाट पाट कर और कुछ नये कर्ज ले देकर व कुछ आफिस से एडवांस वगैरह लेदेकर चल रहे थे पर आगे की स्थिति और भयावह दिख रही थी। लिहाजा रात भर मुकेष बाबू सो न पाते और दिन मे आफिस मे भी काम के बोझ तले उंघाते रहते।
बहुत कठिन दिन थे।
निषी बच्चे के चलते नौकरी भी नही कर सकती थी। आर्थिक तंगी और घर की समस्या दिन दूनी रात चौगुनी बढती जा रही थी। उससे निकलने का कोई रास्ता न सूझ रहा था। तभी निषी ने लखनउ से चिकन के कपडे लाकर घर से ही अगल बगल आस पडोस मे बेचना ष्षुरु कर दिया। एक दो महीने यह सब कर कुरा के कुछ काम चला। उन्ही दिनो हर जगह से कर्ज लेलवा कर गाजियाबाद मे एक कमरे का फलैट खरीद लिया गया। हालाकि वह किसी को पसंद नही था। पर भविष्य की भयावहता को देखते हुए ले लिया गया। जा बाद मे कौडी के मेाल बेचना पडा। कुछ लीगल और कुद दूसरी परेषानियों के चलते। जिसके  बारे मे मुकेष बाबू अब बात भी नही करना चाहते और नही सोंचना। उस घटना ने मुकेषबाबू को काफी रात बिना सोसे बितानी पडी है। और घर भी हांथ नही आया। लिहाजा मुकेष बाबू एक बार फिर घर से बेघर हो गये। उस घर मे तेा एक रात के लिये भी नही। बस वह तो कागज मे आया और कागज मे ही चला गया। मानेा कागज मे ही बना घर था।
खैर मुकेष बाबू का अपने घर मे रहने का सपना एक बार और टूट चुका था। हालाकि उसी मकान मे रहने के उददेष्य से। नया किराये का मकान गाजियाबाद मे ही जाके लिया। गाजियाबाद का यह मकान काफी साफ सुथरा और अच्छा था। पर उसमे वह केयर टेकर की हैसियत से रह रहे थे। खैर उस मकान मे गोलू छोटा था। और अब वह हंसना खिलखिलाना सीख चुका था। लिहाजा मुकेष बाबू अपनी पत्नी बच्चे के साथ तमाम अभावों और परेषानियों के बीच भी खुष व प्रसन्न रहते। उन दिनो लगभग एक मील का फासला पैदल तय करके सुबस सुबह मुख्य सडक पर आना होता। क्योंकि उस सूनसान सडक पर रिक्षा वगैरह मिलते ही नही थे। कभी कभार मिल भी जाते तो आठ दष रुपये मांगते जो उनकी जेब एलाउ नही करते। खैर उसके बाद बस के धक्के खाते खवाते नोयडा के सेक्टर सैंतिस तक आना फिर धूप मे पसीना चुहचुहाते हुए दूसरी बस पकड कर आफिस पहुंचना। लगभग दो घंटे की थकान व मेहनत भरी बस यात्रा के बाद आफिस पुहचना और वहां दिन भर खटना फिर ष्षाम उस तरह वापस आना। घर आते आते संाझ गहरा जाती। पर मुकेष बाबू फिर भी प्रसन्न थे कि चलो किसी तरह गाडी चल तो रही है। इसी बीच निषी ने अपनी पुरानी मालकिन के यहां फोन किया जिसका आफिस लगभग आठ दस मील के फासले पर ही था। और वही ज्वाइन करने की आफर देदी। आनन फानन मे मुकेष बाबू के न पसंदगी के बावजूद बच्चे को क्रच मे रखने का फेसला कर आफिस ज्वाइन कर लिया। वहा निषी को साढे चार हजार मिलने लगे। अब सुबह सुबह पूरा परिवार उठ जाता यहां तक कि साल भर का गोलू भी। और उठ कर सुबह का नास्ता बनता दोपहर का टिफिन बनता। और गोलू को कपडा लत्ता दूध वेैगरह तैयार करके क्रच मे छेाड दिया जाता। बच्चा काफी सीधा था। पर उसे दिन भर के लिये छोड कर जाने मे मा बाप दोनो का कलेजा मुह को आ जाता बस आंसू न निकलते। अक्सर मुकेष बाबू अपने आंसुओं को गले मे ही घेाट कर रह लेते और अपनी किस्मत को कोषते रहते कि। समस रहने पर पढाई लिखाई मे कायदे से ध्यान देते तेा आज कहीं अच्छी सी नौकरी कर रहे होते। खैर। दोनो मिया बीबी सुबह से षाम तक आफिस मे खटते और षाम आ घर मे जुट जाते दूसरे दिन की तैयारियों मे। छुटिटयों का दिन हफते भर के जमा छिटपुट कामो मे बीत जाते। ओैर रात होते ही दिल फिर से धडकना चालू कर देता आने वाले कठिन दिनो की कल्पना करके।
पर दिन बीत रहे थे किसी तरह और हम चुक रहे थे तिल तिल पल पल। लगता ही नही हम लोग जीवन के उन वषों मे हैं जहां जिंदगी कितनी हसीन और चंचल होती है।
जब कभी बच्चे को गौर से देखता जो न जाने किस बात की सजा भूगत रहा था। तो दिल रोने को हो आता।
इन्ही दिनो निषी ने फिर एक नौकरी बदली। पर बाकी दिनचर्या वैसी ही रही।
तभी एक दिन अचानक। आफिस से पूणे जाने का ऑफर मिला। मै भौचक था पर निषी से बात किया और हां कर दिया।
दूसरे दिन ही ऑफिस मे मेरे पूने जानी की खबर फेल गयी।

अब जिंदगी का एक नये पहलू मे आ चुकी थी।
निष्चय हुआ कि पहले निषी को इलाहाबाद या लखनउ छोड के पूने जाउंगा वहां कुछ दिन रह कर स्थिति का जायजा लूंगा फिर निष्चय होगा आगे क्या किया जाये।
निषी का इलाहाबाद छोडा। पूने आ धमका।
पांच अप्रैल 2000।
षाम चार बजे पूणे स्टेषन पे गाड़ी से उतरा। भरपूर नजर से चारों तरफ देखा इस भाव से कि अब इस स्टेषन से न जाने कितनी बार गुजरना होगा। और यह स्टेषन न जाने कितने दिनो तक के लिये जिंदगी का ठहराव बनेगा। कई कई विचार एक के बाद एक कर आ रहे थे। अचानक सिगरेट की तलब और आगे के बारे मे ख्याल आया। कदम पूंछ ताछ करते टेलीफोन बूथ पर जा पहुंचे।



20.04.2011
पिताजी। स्व0 अम्बरनाथ श्रीवास्तव के बारे में सोचतेे ही एक ऐसे षख्स की तस्वीर उभर के आती है जो जीवन भर छोटे छोटे सुखों को भी पाने के लिये तरसता रहा पर नही पा पाया फिर भी जो कुछ छोटे छोटे सुख मिले उनमे पूरी तरह से अपने आप को सुखी जाना। और जो नही मिला उसके लिये बहुत ज्यादा अफसोस नही किया। हां अक्सर यह जरुर कहते कि ‘मैने जिंदगी में कभी भी अपने मन से एक दिन भी जी भर के पैसा नही खर्च किया और नही कभी अपने मन से एक दिन भी जी पाये ’ इस बात को सोच सोच के आज भी मन उदास हो जाता है।
पिताजी के बारे में सोचते हुए जिस षख्स की सूरत सामने आती है वह एक मध्यमवगी्रय सरकारी बाबू की ही तस्बीर उभर के आती है। जो जिंदगी भर अपनी तन्खाह और खर्च के बीच की दूरी को पाटते ही पाटते जीवन को पाट दिया हो। जिसने कभी भी अपनी पसंद का कोई काम नही किया न पसंद के कपडे पहने न पसंद के होटलों मे खाना खाया न ही पसंद की जगहो पे घूमने का लुत्फ लिया। इस बात को सोच कर आज भी पिताजी के लिये दुख होता है।
गहरा सांवला रंग आगे के दो दांत कुछ कुछ होंठों पे, सामान्य कद था। जिन्हे सामान्य से कम औसत दर्जे का कहा जा सकता है। पर उन्हे देख कर एक पढे लिखे सभ्य सुसंस्क्रत आदमी का बोध होता था। पहनने ओढने के मामले में वे हमेषा सावधान रहा करते थे। कभी भी गंदा व बिन प्रेस का कपडा नही पहनते थे। साधारणतह वे पैट कमीज व जूता मोजा ही पहनते थे जाडे़ मे हाफ स्वैटर के उपर कोट व टाई और जुढ जाया करते थेे और षिर पे फर वाली टोपी। उसके बाद जब पान से अपने होंठो को सजा के चलते तो निसंदेह उनकी पर्सनालटी खिली खिली सी लगती ।
हर वक्त पान खाना। सुबह षाम व दोपहर सुर्ती खाना। कभी कभी क्या अक्सर मदिरा पान करना। व दोस्तों के साथ ताष खेलना उनका षौक रहा है।

स्व0 भगवती प्रसाद जी के जीवित पांच संतानों में चौथे नम्बर के बाबू अम्बर नाथ का धरेलू नाम भोला रखा गया। वैसे नाम के अनरुप वे बहुत से मामलों मे बहुत भोले ही थे। नतीजतन लोग उनके इस भोलेपन का जायज व नाजायज फायदा उठाते भी रहे। और वे कुछ तो अपनी नासमझी व भोलपन के तथा कुछ मजबूरियों के चलते बेवकूफ बनते रहे। पर अंत में वे ही सभी को बेवकूफ बना के और अपना सारा काम सही ढंग से अंजाम दे कर चल दिये। अब जा के दुनिया वालों को जान पडा है कि वे वास्तव में भोले नही बहुत समझदार इंसान थे। जिनकी सिधाई को ही लोगों ने उनका भोलापन नही भांेदापना समझा।
भोलाबाबू का जन्म इलाहाबाद के कीडगंज की बीच वाली सडक में हुआ था। वहां के किस मकान में यह तो आज की तारीख में नही बताया जा सकता। क्योंकि पिताजी के पिताजी के पिताजी कीडगंज में आकर आज से लगभग सौ साल के पहले जौनपुर से आकर बस गये थे किराये के मकान में। लिहाजा भोलाबाबू का जन्म किस किराये के मकान में हुआ यह तो नही पता पर। हो सकता है कि तम्बाकू वाली गली में म्यूनिसमिलटी के जिस स्कूल के पास उनका पनिवार कई दषको तक रहा है। हो सकता है उसी मकान मे जन्म हुआ हो। बहरहाल यह उतनी महत्वपूर्ण बात नही है।
भोला बाबू ने जब सन 1939 मे जन्म लिया था उस वक्त देष आजादी के लिये लड रहा था ओैर उसी लडाई में उनके दोनेा बडे भाइयों ने स्व स्वराजनाथ व ओंकार नाथ ने भी भाग लिया था। हो सकता है इन्होने भी भाग लिया होता पर उस वक्त उनकी उम्र बहुत छोटी थी खेलने खाने की लिहाजा वे इस महान यज्ञ में भाग लेने से मरहूम रह गये।
कीडगंज के उस मकान में बाबू भगवती प्रसाद के तीन लडकों दो लडकियांे दो बहू के अलावा उनके साले का परिवार भी रहता था। उस संयूक्त व बडे परिवार में कमाने वाले कम व खाने वाले हमेषा से ज्यादा रहे हैं। लिहाजा आर्थिक तंगी हमेषा बनी रही।
भोलाबाबू अभी बहुत छोटे ही रहे होंगे षायद चार या पांच कक्षा में, तभी बाबू भगवती प्रसाद रेलवे से रिटायर हो गये। और उनका बहुत सारा समय बाबा मौजगीर की सेवा में बीतने लगा और उनकी समाधी के बाद उनकी समाधी की देख रेख में।
फिर भी पिता का साया तो बना ही था। मगर हाय भाग्य।
भोलाबाबू चौदह बरस के ही रहे होंगे कि मेरे बाबा जी अर्थात बाबू भगवती प्रसाद का देहांत हो गया। द्यर की आर्थिक जिम्मेदारी जो पहले से ही बडे भाई स्वराजनाथ के उपर थी वह अब पूर्ण रुपेण आ गयी।
लिहाजा खान पीना तो द्यर में मिल जाता भले ही उसके लिये द्यर व बाहर का सारा काम करना पडता रहा हो चाहे वह छोटे होने के नाते कह लो या खाना कपडा के एवज में कह लो। सारा काम का मतलब राषन पानी लाना, गेंहूं चना आदि अनाज चक्की से पिसवाना गाय व बकरी दूहना उन्हे चारा पानी देना। छोटे बच्चों को स्कूल ले जाना ले आना। सब्जी आदि लाना व इसके अलावा जो भी काम द्यर का कोर्इ्र भी व्यक्ति कहदे वह करना ही है।
इन सब कामों को भी अपना परम कर्तव्य समझ कर खुषी खुषी करने वाले भोला बाबू कभी दुखी नही रहे। षायद उन्हे यह पता ही न था कि इससे ज्यादा भी एक बच्चे को बहुत कुछ चाहिये, इस लिये या कि इस लिये भी कि यह उनकी प्रक्रिति दत्त आदत ही रही हो या कि, उनका भोलापन या कि भोंदापन रहा हो। पर चाहे जो भी रहा हो वे द्यर बाहर का सारा काम सम्हालने व अपने बडे भाइयों को पित्रतुल्य समझने वाले भोला बाबू अपनी वर्तमान परिस्थिति में मस्त और मगन थे साथ में ‘यमुना क्रिस्चियन कालेज’ मे पढाई भी करते। जहां कि उस जमाने के ज्यादातर साथियों की तरहा कीडगंज से पैदल ही जाया करते थे। अपने बडें भाइे की रेलवे की पुरानी पैटें को अपने नाप की करा के पहनते हुये।
फीस किताब का पेैसा माता कल्ली देवी गाढे के दिनो के लिये बचाये गये कुछ सिक्कों को एक एक कर के निकालती और देती उसी से चलता।
क्ुछ कुछ खिलंदड स्वभाव के भोला बाबू का मन पढने लिखने में कोई खाष न लगता था लिहाजा किसी तरह उन्होने बारहवीं पास कर लिया और टाइप करना सीख लिया था। हां जहांतक मुझे पता है उन्होने बी ए के प्रथम वर्ष की परीक्षा भी दी थी पर अनुर्तीण होने के कारण आगे नही पढें। पर अंगेजी वगैरह काम भर की आगयी थी कि एप्लरकेषन वगैरह लिख लें और कामचलाउ अंगेंजी पढ ले। हां उन्ही दिनो जब वे कि कालेज में पढ रहे थे तो उपने जेब खर्च के लिये कीडगंज से कैरैली तक पैदल र्प्राईवेट टयूषन पढाने पैदल आते थे। वे दिन काफी तंगी के हआ करते थे। भोला बाबू बताते हैं उन दिनो उनके पास एक या दो जोडी से ज्यादा कपडे कभी रही रहे। पर द्यर की हालत देख वे उसी में अपने आपको मस्त व मगन थे। उसी टयूषन के पैसे से ही अपनी एकलौती छोटी बहन का भी वे खयााल रखते थे।
अतिसामान्य प्रतिभा के भोला बाबू पढाई के अलावा खेलकूल में भी बहुत अग्गल न थे। पर जहां तक पता है वे कभी कभी फुटबाल खेल लेते थे। और जमना जी व गंगा जी में जाकर तैर भी आते थे। क्रिकेट देखने व कमेंट्री सुनने को उन्हे हमेषा ष्षौक रहा है।
उन्हे फिल्म देखने व उपन्यास पढने का भी काफी षौक रहा है। किन्तु मैने उन्हे सामान्य बाजारु नावेल के अलावा साहित्यिक पुस्तकें पढते षायद ही कभी देखा हो कभी पढने का मौला भी मिला तो बहुत उत्साहित हो के नही पढा उन्हो तो अपने प्रक्रित के अनुसार सामान्य बाजारु उपन्यास ही पसंद आये जिसमें कि रानू गुलषन नंदा प्रेम बाजपेयी आदि थे। बाद के दिनो में तो मनाहर कहानियां व सत्यकथा पढने के षौकीन हो गये थे। अक्सर तो यह पढी हुयी किताब को ही दुबारा पढ जाया करते थे।

गेजुएषन की पढाई छोडने के बाद कुछ दिनों अपने ममेरे भाई लॉट साहब के साथ अनपरा में इरीगेषन डिर्पाटमेंट मे अस्थाई नौकरी भी की। बाद में एक रिस्तेदार ने जो सेल्सटैक्स विभाग में ही आफिसर थे ने इन्हे टाइपबाबू के पद पर लगवा दिया और अंत में इसी विभाग में ही पूरी जिंदगी बिताकर रिटायर भी हुए। भोलाबाबू नंे नौकरी मे भी बहुत आषातीत सफलता नही पायी और नही प्रमोषन पर अपनी गति व मति से भोले भाव से नौकरी करते हुये इज्जत से पूरी तीस साल बार रिटायर हुये। मेरी जानकारी में कभी भी उन्हे उनके काम के सम्बंध को लेकर कोई षिकायत मिली हो।
स्वभाव व प्रव्रत्ती से वह धार्मिक और साधरणतह षांत स्वभाव के थे। पर हास परिहास में भी ष्षरीक होने से उन्हे कोई परहेज न भी पर फूहड मजाक सामान्यतह न तो व करते थे और न ही पसंद करते थे। अब अपनी मित्र मंडली में किस तरह का व्यवहार करते थे मालूम नही। महिलाओं से भी वह बहुत ही संयत रुप से बात करते थे पर हां यह जरुर था कि महिलाओं से बात करने का कोई मोैका वह आसानी से छोडते भी नही थे। इस बाते से कभी कभी माता जी व परिवार उनकी पीठ पीछे बुराई भी करते।
धार्मिक मामलों में वह महज रोज की सुबह की पूजा में नियमित रहते और साल में रामनवमी जन्माअष्टमी व षिवरात्रि मे ब्रत रहने तक ही सीमित था। पर दो चार साल में या मौका मिलने पर काषी, ब्रंदाबन,मैहर आदि की छोटी मोटी धार्मिक यात्राओं मे भी रुचि लेते व बहुत चाव से जाते। रामलीला व दषहरा का मेला भी चाव से देखते। दीपावली में लक्षमी पूजन व होली में होलिका पूजन पूरे मनो योग से करते। पर किसी भी मामले में वह बहुत ज्यादा जोष में नही आते थे। गुस्सा उन्हे जल्दी आता और जल्दी ही ष्षांत हो जाता था। उन्हे उधार लेना व देना पसंद नही था। अपने जीवन काल में ष्षायद ही उन्होने कभी किसी से उधार लिया हो या दिया हो। एक आध बार अपवाद को छोडा जा सकता है। यहां तक कि वह रोजमर्रा और राषन के मामले में भी उधार रखना पसंद नही करते थे। कम खाना गम खाना उनके जीवन का सिद्धांत रहा है।  वे इस बात को कतई पसंद नही करते थे कि कोई उनके दरवाजे पर तगादा करने आये। उन्होने इस बात का मरने के दिन तक पालन किया।
विक्रीविभाग की नौकरी लगने के कुछ दिन बाद ही विवाह हो गया। और वे एक बार फिर और ज्यादा जिम्मेदारियों से घिर गये। अपने विवाह में अपना सारा खर्च उन्हे ही उठाना पडा। किसी तरह विवाह हुआ। सन 1969 में। विवाह होते ही दोनो बडे भार्इ्र व भाभी मॉ व छोटी बहन की जिम्मेदारी छोड कानपुर चले गये। खैर फिर वह दिन और मरने के दिन तक कभी भी वे अपने भाइयों से किसी मदद के लिये नही गये। एक बार मकान बनवाते समय मझले भाई से कुछ आर्थिक मदद उधार के रुप में जरुर चाही थी जिसमें निराषा ही हाथ लगी। लिहाजा फिर कभी उन्होंने किसी के सामने हाथ नही फेलाया।
जीवन में कभी उनकी मदद के लिये कोई सामने आया था तो वह उनके छोटे साले यानी कि मेरे मामा श्री त्रिभुवन नाथ थें। जिन्होने अपने पास अपने ही द्यार में बारह साल रखा और हर तरह से मदद की।
और जिंदगी भर यह बहनोई और साले की केमिस्ट्री भी अजीब रही। दोनेा एक दूसरे से ष्षायद ही कभी बात करते रहे हों पर वे दोनो ही कभी एक दूसरे की बात को काटते नही देखा गया। दोनो ही एक दूसरे की काफी इज्जत व प्रेम करते रहे। साले और बहनोई का यह प्रेम मिसाल के तौर पे पेष किया जा सकता है।
एक साधारण बुद्धि चेतना व व्यक्तित्व के होने के बावजूद उनमें कुछ अपनी मौलिक विषेषताऐं थी जो उन्हे और लोगों से अलग करती थी। जैसे कि पिताजी अपने आप को हर परिस्थिति में खुष रखते चाहे एक के बाद एक तबादलों की बदौलत परिवार से दूर रहना हो चाहे कम आमदनी और खर्च ज्यादा रहा हो। या उनके पास अपना मकान न रहने पर इधर उधर भटकते द्यूमना रहा हो। पर वे हमेंषा अपनी कम कमाई में भी मस्त रहे। उनका कहना था। रुखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीउ देख पराई चूपडी मत ललचावे जीव। कबीर दास के इस दोहे को उन्होने अपने जीवन मे पूरी तरह से उतारा।
इसके अलावा एक खाष बात यह भी थी कि जो काम उनकी जिम्मेदारी पे दे दिया जाता था उसे पूरी मुस्तैदी व इमानदारी से निभाते थे। चाहे वह द्यरेलू हो या आफिसियल हो। अपने तरीके से वह उसे हमेषा पूरा करते थे। हां यह एक अलग बात थी कि वे अक्सर बडी जिम्मेदारियों से जल्दी द्यबराजाते थे और वे इससे बचते भी थे। पर अपने तरीके से वे अपनी सारी जिम्मेदारियों का निर्वाह वे पूरी हिम्मत से करते थे। तभी तो जीवन के 65वे वर्ष तक होते होते अपने तीनों बच्चों को पढा लिखा के विवाह ष्षादी भी करदी व उनके रहने के लिये एक मकान भी बनवा गये। इसके अलावा अपने बच्चों के उपर अपनी कोई जिम्मेदारी नही छोड गये। यहां तक कि अपने पीछे अपने क्रिया कर्म का धन भी छोड गये।
इसके अलावा वे अपने व्यक्तिगत कामों मे कभी किसी का सहारा नही लेते थे। अपने कपडे खुद धोते थे। अपने बिस्तर व बैठने के स्ािान की सफाई खुद करते थे। यहां तक कि सुबह उठ कर पूरे द्यर की साफ सफाई की जिम्मेदारी भी अपने उपर ही लिये रहे जब तक उने हाथ पैर चले।
पिताजी बहुत म्रदुभाषी तो नही थे पर कटु भी नही बोलते थे। पर दूसरों की मदद के लिये हमेष तैयार रहा करते थे। खाष करके यदि कोई तकलीफ में है या बीमार आदि है जो मिजाजपुर्षी के लिये उसके पास जरुर जाते थे। और अपने भरसक जितनी षारीरिक मदद होती करने की कोषिष करते थे। वे कहा करते थे कि आदमी के सुख में भले ही न खडें हो पर दुख व परेषानी में हमेषा खडे होना चाहिये।
बहुत कठिन और गहन बातों से वे दूर ही रहते। हल्की फुल्की बातों व जिम्मेदारियों को तो बखूबी निभाते थे पर बडी जिम्मेदारियों में अक्सर वे द्यबडा जाते थे। तभी वे द्यर बार के बहुत से काम करने के पहले बाद के दिनों में ब्रजेष से या दो चार लोगों से राय मष्विरा ले के करते थे। यहां तक कि ष्षादी ब्याह वगैरह में भी ज्यादातर निर्णय लेने के मामले में दूसरों पर ही निर्भर रहते थे। ष्षायद यह बचपन के संस्कार रह जाने के कारण रहा हो क्योंकि द्यर में छोटे होने के कारण अक्सर उनको महज निर्णयों को पालन ही करना पडता रहा है और आफिस में भी अफसरों की ही मानने के कारण दूसरों के निर्णयों का पालन करना उनके व्यक्तित्व में ही सामिल हो गया था।
पर एक बात जरुर दूबार फिर उल्लेख करना चाहूंगा कि जो भी जिम्मेदारी वे ले लेते थे उन्हे पूर तन्मयता से निभाते जरुर थे।
पैसे के संबध मे वह बहुत इमानदार रहा करते थे।



















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