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Sunday 2 July 2017

जीवन के उत्तरार्ध मे

प्रिय। जीवन के उत्तरार्ध मे, अब जब जीवन सूर्य म्रत्यु की गोद मे समा जाने को आतुर है। तब एक बार फिर मेरे सारे भाव मुखरित हो जाना चाहते हैं जो सदैव निश्रत होते रहे हैं, मेरे मौन मे, मेरी ऑखों से, मेरे क्रिया कलापों से मेरे वयवहार से, पर शायद तुम्हे वे भाव, वे शब्द्लाहरियाँ तुम्हे वे अर्थ व आनंद नही दे पायीं। जो तुम्हारी चाहना थी। और तुम हमेशा आतुर रहीं मात्र कुछ शब्दों को सुनने को।
प्रिय, ऐसा नही कि मै उस प्रेमाभिव्यिक्ति को शब्दावरण देना नही चाहता था। ऐसा नही कि मै तुम्हे अपने बाहुपाश मे लेकर कुछ प्रेमगीत गुनगुनाना नही चाहता था। या कि ऐसा नही कि मै सावन की घटाओं मे तुम्हारे साथ किलोल करना नही चाहता था। कि, चांदनी रात मे तुम्हारे साथ नौका विहार नही करना चाहता था।
लेकिन मै ही पुराने आर्दशवाद को अपने सीने से लगाये रहा। और इसके अलावा, मेरा ऐसा मानना था कि क्या मौन ह्रदय की प्रगाढ़ प्रेम की सुकुमार भावनाओं को भावषून्य शब्दों मे प्रकट करना आवष्यक है ?
यदि वह ऑखों से नही पढी जा पा रही है। भावों से व्यक्त नही हो पा रही है। व्यवहार उसे नही समझा पा रहे हैं। तो ये खोखले शब्द क्या कर पायेंगे ?
और शायद यही कारण रहा है, मै अपने अंतरतम भावों को अभिव्यक्ति देने से बचता रहा। चाहे वे कितने ही कोमल और गहनतम प्रेम के क्षण क्यूं न रहे हों। और .. तब भी मै गम्भीरता का लबादा ओढे ही रहता था।
हां ये मै मानता हूं कि कई ऐसे नाजुक क्षण आये हैं जब मै कह देना चाहता था सब कुछ सब कुछ जो तुम सुनना चाहती थीं। जिसे सुनने के लिये तुम्हारा रोंया रोंया आतुर रहता था। और ... मै कहना भी चाहता था दृ लेकिन .....
ऐसे मौके पर मेरा अहम आडे आ जाता जो यह मानता रहा कि प्रेमाभिव्यक्ति तो सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों को ही शोभा देती है। पुरुष तो सागर है। जो शांत और थिर ही अच्छा लगता है। यह सोच मेरे बोलते हुये शब्द मेरे तालू से चिपक के रह जाते । और मै चुप रह जाता था।
लेकिन तुम भी तो न जाने किस माटी की बनी थीं। बिलकुल धरती की तरह अंनंत धैर्य धारण किये हुये कि कभी तो आसमान झुकेगा अपनी अदम्य गडगडाहट के साथ और फिर तुम समा जाओगी उस अनंत नीले आसमान के गहन बाहुपाश मे .. प्रेम मे ... उधर मै सोचता रहा शायद तुम अपनी धूरी पे घूमती हुयी अपने सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती हुयी एक दिन मेरी बाहों मे खुद ब खुद समा जाओगी अपनी इस अनंत खामोशी के साथ दृ लेकिन ऐसा न हुआ . ऐसा न हुआ....
और .. आज आसमान हार गया धरती जीत गयी। मेरा मौन पराजित हो गया तुम्हारा मौन जीत गया।
यह कहते हुये कि दृ मुझे तुमसे प्यार है ... मुझे तुमसे प्यार है ...........
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

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