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Monday 12 March 2018

पहले मुझे ज़बानी याद था

पहले
मुझे ज़बानी याद था
तुमसे बिछड़े, कितने दिन हो गए
फिर उँगलियों के पोरों पे गिन लेता
कितने हफ्ते कितने महीने हुए 
तुमसे बात नहीं हुई
मुलाकात नहीं हुई
उँगलियों के पोर कम लगने लगे तो
दीवार के कलैण्डर और डायरी के पन्ने
तुमसे जुदाई का हिसाब रखते
तुम्हारी चुप्पी और वक़्त ने
डायरी के पन्नो पे धूल की ज़िल्द चढ़ा दी है
चाहूँ तो हथेली से डायरी की धूल
हटा दूँ - और एक बार फिर पढ़ लूँ वो
चमकते दमकते नीले हर्फ़
जो तुम्हारी याद का चाँद और सूरज बन चमकते हैं
मेरे दिन और रात में -
किन्तु नहीं
मै इस वक़्त एक सिगरेट निकलूंगा और
डिब्बी पे ठक -ठक कर के
होठों के बीच ले जा कर सुलगाऊँगा
और खिड़की के परदे हटा कर देखूँगा
दूर तक फ़ैली सूनसान सड़क के
बेवज़ह और निरुद्देश्य
सिगरेट के ख़त्म होने तक
मुकेश इलाहाबादी ---------------

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