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Wednesday 16 May 2018

तपता हुआ लगे झुलसता हुआ लगे

तपता हुआ लगे झुलसता हुआ लगे
जाने क्यूँ सारा शह्र जलता हुआ लगे

जैसे आफ़ताब ज़मी पे उतर आया हो
फूल भी पत्थर भी पिघलता हुआ लगे

किसी  न  किसी दर्द के मारे हैं सभी
छोटा हो बड़ा हो बिलखता हुआ लगे

सभी के पांवों में लगे हैं पहिये मगर
फिर भी हर शख्श घिसटता हुआ लगे

बहुत चाहा था संवर लूँ खुद को मुकेश
वज़ूद का ज़र्रा ज़र्रा बिखरता हुआ लगे

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

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