चीज़ें जो मेरे आस पास से गायब होती गयीं - संस्मरण - एक
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होश संभालने के बाद से हमारे आस पास से बहुत सी चीज़ें गायब होने लगीं।
जिनमे सब से पहले गायब होने वाली चीज़ों में थी, श्यामा की लकड़ी की टाल।
घर से सटे चौराहे के ठीक दाहिनी तरफ, एक नीम के पेड़ के नीचे श्यामा की बाँस के टट्टर से घिरी
लड़की की टाल थी.
जलावन लकड़ी , लकड़ी का बुरादा , लकड़ी और पत्थर के कोयले के ढेर के बीच एक कोने में छोटी सी बरसाती में बैठे
गहरे सांवले रंग के बड़ी बड़ी मूंछो हंसमुख चेहरे के श्यामा की लकड़ी की टाल में हमेसा सुबह से देर शाम तक चहल
पहल रहती - आस पास के कई मुहल्लों में उनके यंहा से जलावन लकड़ी - और कोयला जाता -
केवल गंजी और तहमद लपेटे शयामा कभी मजूरों से लकड़ी चिरवाने में व्यस्त रहते तो कभी तुलवाने में , तो कभी
गल्ला संभालने में - वहीं नीम के पेड़ के नीचे बनी छोटी सी बरसाती में वो खाते- पीते और सो भी जाते - कभी कभी पास के गाँव अपने घर जाते
या कभी उनकी घरैतिन एक दो दिन को आ के उसी बरसाती में रह जाती।
श्यामा के टाल में लगा नीम का पेड़ सिर्फ श्यामा को ही छाँव और आसरा नहीं दिए था - उस नीम के ऊपर न जाने कितने पंछियों का भी बसेरा था ,
सुबह शाम सैकड़ों पंछी चहचहाते हुए पेड़ पे आ के बैठते तो उनकी चहचहाट - पास मस्जिद से आती नमाज़ और पास के मंदिर से आती घंटे की
आवाज़ एक अलग जादूई आलम पैदा करता और सिर्फ उसी वक़्त थोड़ी देर को श्यामा अपनी टाल में धूप बत्ती करते और पंछियों को दाना चुगाते।
वे सुबह भी पंछियों के लिए दाना डालते अपनी बरसाती की छत पे - और जब पंछी उनकी पलास्टिक के और तीन की बरसाती पे उतरते दाना चुगने
तो श्यामा बहुत शुकून महसूस करते - सिर्फ पंछी ही नहीं पेड़ पे बसे सभी जीवों का वो ख्याल रखते - जैसे एक गिलहरी जब भी फुदकती हुई उनके
आस पास से गुज़रती तो वे उसे जो भी खा रहे होते खिलाते - गर्मी की दोपहर में और खाली वक़्त में पेड़ की जड़ों से तने पे उतरती चढ़ती चींटियों की
पांत को आटा खिलाते - पेड़ पे एक बार एक तोता कंही से उडता हुआ आ बैठा था - जो धीरे धीरे शयामा की टाल का सदस्य हो गया था - लोग कहते
इसे पिंजड़े में रख दो - पर श्यामा कहते जब हमे आजादी पसंद है तो हम इस बेजुबान की आजादी क्यूँ छीने - ऐसे थे श्यामा टाल वाले - बाबा - खैर ---
जब कभी लकड़ी चिरवाने - तुलवाने और गल्ले से उन्हें फुरसत मिलती तो मुहल्ले के बुजुर्गों के साथ प्रेम से पान सुपारी - और
हुक्के का आनंद लेते -दुनियादारी की बात करते - खुश रहते
लेकिन गैस के चूल्हों के आने के बाद से जलावन लकड़ी - लकड़ी के बुरादे और कोयलों की बिक्री काफी कम हो होने लगी
लिहाज़ा श्यामा के टाल की रौनक भी कम होने लगी - और श्यामा के चेहरे की रौनक भी कम होने लगी - धीरे - धीरे श्यामा
की टाल पे लगभग सन्नाटा रहने लगा सिवाय मज़दूर और गरीब तबके के लोग छुटपुट खरीदारी के लिए आते - अब जंहा
शयामा की टाल पे तीन तीन चार चार माज़ूर - हमेसा लकड़ी चीरते और सजाते रहते और शयामा सिर्फ आदेश देते और
निगरानी रखते वंही अब श्यामा अपने कमज़ोर और बूढ़े हाथों से खुद लकड़ी चीरते और सजाते -
हलाकि उन्हें अब ये सब करने की ज़रूरत नहीं रह गयी थी - उनके लड़के पढ़ लिख के लायक बन गए थे -
वे मना करते ये काम करने का - उन्हें अपने पिता का ये काम लकड़हारे का काम लगता - बिलों स्टैंडर्ड दीखता -
पर श्यामा तो पुरानी लकड़ी के बने थे - जिसमे वक़्त की घुन नहीं लगी थी - लिहाज़ा वो अपने इस पचासों साल पुरानी
टाल और पुस्तैनी धंधे को बंद नहीं करना चाह रहे थे - किन्तु वक़्त की और धंधे की मार ने एक दिन शयामा को - अपनी
गोद में ले लिया -
श्यामा के जाते ही - शयामा की पुश्तैनी लकड़ी की टाल लड़कों द्वारा मुहल्ले के पुद्दर तेली के हाथों बेच दी गयी - हरे नीम
के पेड़ों के साथ - बांस में टट्टर के साथ -
और - देखते देखते शयामा की वो पुरानी लकड़ी की टाल गायब हो गयी -
और गायब हो गया था नीम का पेड़ -नहीं नहीं सिर्फ नीम का पेड़ नहीं सैकड़ों पंछियों का रैन बसेरा भी गायब हो चूका था -
हमारे घर से सटे चौराहे के दाहिनी तरफ वाली लड़की की टाल।
और अब वहां पे पुद्दर तेली ने कई दुकानों वाली इमारत उगा दी थी - एक बाज़ार उग आया था
इस तरह से मेरे ज़ेहन से बचपन की एक चीज़ गायब हो गयी थी।
क्रमशः
मुकेश इलाहाबादी ------------------
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होश संभालने के बाद से हमारे आस पास से बहुत सी चीज़ें गायब होने लगीं।
जिनमे सब से पहले गायब होने वाली चीज़ों में थी, श्यामा की लकड़ी की टाल।
घर से सटे चौराहे के ठीक दाहिनी तरफ, एक नीम के पेड़ के नीचे श्यामा की बाँस के टट्टर से घिरी
लड़की की टाल थी.
जलावन लकड़ी , लकड़ी का बुरादा , लकड़ी और पत्थर के कोयले के ढेर के बीच एक कोने में छोटी सी बरसाती में बैठे
गहरे सांवले रंग के बड़ी बड़ी मूंछो हंसमुख चेहरे के श्यामा की लकड़ी की टाल में हमेसा सुबह से देर शाम तक चहल
पहल रहती - आस पास के कई मुहल्लों में उनके यंहा से जलावन लकड़ी - और कोयला जाता -
केवल गंजी और तहमद लपेटे शयामा कभी मजूरों से लकड़ी चिरवाने में व्यस्त रहते तो कभी तुलवाने में , तो कभी
गल्ला संभालने में - वहीं नीम के पेड़ के नीचे बनी छोटी सी बरसाती में वो खाते- पीते और सो भी जाते - कभी कभी पास के गाँव अपने घर जाते
या कभी उनकी घरैतिन एक दो दिन को आ के उसी बरसाती में रह जाती।
श्यामा के टाल में लगा नीम का पेड़ सिर्फ श्यामा को ही छाँव और आसरा नहीं दिए था - उस नीम के ऊपर न जाने कितने पंछियों का भी बसेरा था ,
सुबह शाम सैकड़ों पंछी चहचहाते हुए पेड़ पे आ के बैठते तो उनकी चहचहाट - पास मस्जिद से आती नमाज़ और पास के मंदिर से आती घंटे की
आवाज़ एक अलग जादूई आलम पैदा करता और सिर्फ उसी वक़्त थोड़ी देर को श्यामा अपनी टाल में धूप बत्ती करते और पंछियों को दाना चुगाते।
वे सुबह भी पंछियों के लिए दाना डालते अपनी बरसाती की छत पे - और जब पंछी उनकी पलास्टिक के और तीन की बरसाती पे उतरते दाना चुगने
तो श्यामा बहुत शुकून महसूस करते - सिर्फ पंछी ही नहीं पेड़ पे बसे सभी जीवों का वो ख्याल रखते - जैसे एक गिलहरी जब भी फुदकती हुई उनके
आस पास से गुज़रती तो वे उसे जो भी खा रहे होते खिलाते - गर्मी की दोपहर में और खाली वक़्त में पेड़ की जड़ों से तने पे उतरती चढ़ती चींटियों की
पांत को आटा खिलाते - पेड़ पे एक बार एक तोता कंही से उडता हुआ आ बैठा था - जो धीरे धीरे शयामा की टाल का सदस्य हो गया था - लोग कहते
इसे पिंजड़े में रख दो - पर श्यामा कहते जब हमे आजादी पसंद है तो हम इस बेजुबान की आजादी क्यूँ छीने - ऐसे थे श्यामा टाल वाले - बाबा - खैर ---
जब कभी लकड़ी चिरवाने - तुलवाने और गल्ले से उन्हें फुरसत मिलती तो मुहल्ले के बुजुर्गों के साथ प्रेम से पान सुपारी - और
हुक्के का आनंद लेते -दुनियादारी की बात करते - खुश रहते
लेकिन गैस के चूल्हों के आने के बाद से जलावन लकड़ी - लकड़ी के बुरादे और कोयलों की बिक्री काफी कम हो होने लगी
लिहाज़ा श्यामा के टाल की रौनक भी कम होने लगी - और श्यामा के चेहरे की रौनक भी कम होने लगी - धीरे - धीरे श्यामा
की टाल पे लगभग सन्नाटा रहने लगा सिवाय मज़दूर और गरीब तबके के लोग छुटपुट खरीदारी के लिए आते - अब जंहा
शयामा की टाल पे तीन तीन चार चार माज़ूर - हमेसा लकड़ी चीरते और सजाते रहते और शयामा सिर्फ आदेश देते और
निगरानी रखते वंही अब श्यामा अपने कमज़ोर और बूढ़े हाथों से खुद लकड़ी चीरते और सजाते -
हलाकि उन्हें अब ये सब करने की ज़रूरत नहीं रह गयी थी - उनके लड़के पढ़ लिख के लायक बन गए थे -
वे मना करते ये काम करने का - उन्हें अपने पिता का ये काम लकड़हारे का काम लगता - बिलों स्टैंडर्ड दीखता -
पर श्यामा तो पुरानी लकड़ी के बने थे - जिसमे वक़्त की घुन नहीं लगी थी - लिहाज़ा वो अपने इस पचासों साल पुरानी
टाल और पुस्तैनी धंधे को बंद नहीं करना चाह रहे थे - किन्तु वक़्त की और धंधे की मार ने एक दिन शयामा को - अपनी
गोद में ले लिया -
श्यामा के जाते ही - शयामा की पुश्तैनी लकड़ी की टाल लड़कों द्वारा मुहल्ले के पुद्दर तेली के हाथों बेच दी गयी - हरे नीम
के पेड़ों के साथ - बांस में टट्टर के साथ -
और - देखते देखते शयामा की वो पुरानी लकड़ी की टाल गायब हो गयी -
और गायब हो गया था नीम का पेड़ -नहीं नहीं सिर्फ नीम का पेड़ नहीं सैकड़ों पंछियों का रैन बसेरा भी गायब हो चूका था -
हमारे घर से सटे चौराहे के दाहिनी तरफ वाली लड़की की टाल।
और अब वहां पे पुद्दर तेली ने कई दुकानों वाली इमारत उगा दी थी - एक बाज़ार उग आया था
इस तरह से मेरे ज़ेहन से बचपन की एक चीज़ गायब हो गयी थी।
क्रमशः
मुकेश इलाहाबादी ------------------
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