हर
रोज़ उलीचता हूँ
अहर्निश
दुःख के
हरहराते समंदर को
अपनी चोंच से
टिटिहरी की तरह
फिर शाम थक कर
सो जाता हूँ - उसी समंदर की रेत् के किनारे
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
रोज़ उलीचता हूँ
अहर्निश
दुःख के
हरहराते समंदर को
अपनी चोंच से
टिटिहरी की तरह
फिर शाम थक कर
सो जाता हूँ - उसी समंदर की रेत् के किनारे
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
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