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Tuesday, 25 September 2018

मै इक अँधा कुँआ मेरे अंदर क्या उतरेगा कोई

मै इक अँधा कुँआ मेरे अंदर क्या उतरेगा कोई
मेरे अंदर की खामोशी को क्या समझेगा कोई

ऊपर ऊपर ओढ़ रखी हैं मैंने चादर चाँदनी की
दिल के भीतर कितने सूरज क्या देखेगा कोई

अक्सर चुप रहता हूँ, दूर खड़ा कोई हँसता है
ऐसा लगता है मेरे भीतर है दूजा रहता कोई

यूँ तो गुनाह करने की फितरत नहीं हैं अपनी
पर, लगता मेरे अंदर हैं बेईमान बसता कोई

हर शख्श के काँधे पे है दुःख की मोटी गठरी
मुकेश  दूजे के दुःख को क्या मह्सूसेगा कोई


मुकेश इलाहाबादी ----------------------------


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