मै इक अँधा कुँआ मेरे अंदर क्या उतरेगा कोई
मेरे अंदर की खामोशी को क्या समझेगा कोई
ऊपर ऊपर ओढ़ रखी हैं मैंने चादर चाँदनी की
दिल के भीतर कितने सूरज क्या देखेगा कोई
अक्सर चुप रहता हूँ, दूर खड़ा कोई हँसता है
ऐसा लगता है मेरे भीतर है दूजा रहता कोई
यूँ तो गुनाह करने की फितरत नहीं हैं अपनी
पर, लगता मेरे अंदर हैं बेईमान बसता कोई
हर शख्श के काँधे पे है दुःख की मोटी गठरी
मुकेश दूजे के दुःख को क्या मह्सूसेगा कोई
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
मेरे अंदर की खामोशी को क्या समझेगा कोई
ऊपर ऊपर ओढ़ रखी हैं मैंने चादर चाँदनी की
दिल के भीतर कितने सूरज क्या देखेगा कोई
अक्सर चुप रहता हूँ, दूर खड़ा कोई हँसता है
ऐसा लगता है मेरे भीतर है दूजा रहता कोई
यूँ तो गुनाह करने की फितरत नहीं हैं अपनी
पर, लगता मेरे अंदर हैं बेईमान बसता कोई
हर शख्श के काँधे पे है दुःख की मोटी गठरी
मुकेश दूजे के दुःख को क्या मह्सूसेगा कोई
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
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