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Sunday, 13 January 2019

किसी रोज़ जबदरस्ती

किसी
रोज़ जबदरस्ती
तुम्हारे चेहरे से नोच लूँगा
ये खामोशी
उतार फेंकूँगा तुम्हारे वज़ूद से
वर्षों पहना ये उदासी का लबादा
उसके बदले 
ग़ज़लों - नज़्मों और अपने लतीफों को
सजा दूंगा तुम्हारे गुलाबी चेहरे पे लाली की तरह
हमेशा - हमेशा के लिए
और पहनाऊंगा अपने ही हाथों से
रूहानी ईश्क़ की महीन चादर
और फिर हम करेंगे केली
बादलों पे जा के
चाँद तारों के संग

क्यूँ सुमी ?
ठीक रहेगा न है न ?

(मै देख तो नहीं पा रहा पर इतना जानता हूँ
तुम ये पढ़ के अपनी उदासी में भी मुस्कुरा रही होगी
मेरे पागलपन पे ,क्यूँ सच है न ?)

मुकेश इलाहाबादी ---------

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