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Thursday, 25 June 2020

थिर और उदास नदी थीं तुम

थिर
और उदास
नदी थीं तुम
तुम्हारी आँखों के कोर
डबडबाए रहते थे
तुम्हे अँधेरा कमरा
सूनी दीवारें अच्छी लगती थीं
दर्द भरे नग्मे गुनगुनाया करती थीं
तुम मेरी बातें गौर से सुनती थीं
मै तुम्हे ज़बरदस्ती रोशनी में ले जाया करता
तुम्हे हंसाने की कोशिश करता
तुम मुस्कुरा के रह जातीं मेरे लतीफों पे
मैं तुम्हे गुदगुदाना चाहता
तुम परे खिसक जातीं
मै कुछ पूछता तुम टाल जाती
मैंने ये भी पूछा "तुम्हारा कोई और दोस्त तो नहीं .... ?"
तुमने "पागल हो क्या ? " कह के बात को टाल दिया था
पर एक दिन मैंने तुम्हारी चुप्पी को पढ़ लिया
तुम्हारी आँखों की पुतलियों में सजे सपने देख लिए
जिसमे एक खूबसूरत और समवयस्क राजकुमार मुस्कुरा रहा था,
उसके बाजुओं की मछलियाँ टी शर्ट से झाँकती हुई
किसी स्त्री को आकर्षित कर सकती थी
राज कुमार घोड़े पे सवार था
उसके पास बाहु बल और धन बल भी था
उसका नाम लेते ही तुम्हारा चेहरा खिल उठता
अब तुम उदास गीत नहीं गुनगुनाती थी
अब तुम मुझसे अपना हर सुख दुःख भी नहीं साझा करती थीं
अब तुम बहुत सी बातों को टाल जातीं
मै जिद करता तो कहतीं थी "पागल हो क्या ,,,?"
खैर अब
तुम्हारा ये पागल दोस्त
एक उदास नदी में तब्दील हो गया है
जो अब गुदगुदाती कविता नहीं लिखेगा
पर तुम खिलखिलाती रहना
हँसती रहना
सुमी : ये बात तो सुन रही हो न ???
मुकेश इलाहाबादी ---------------

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