कुछ तो भीतर है जल रहा है धीरे- धीरे
कुछ तो मोम सा गल रहा है धीरे- धीरे
रह - रह सीने में दर्द की लहरें उठती हैं
कोई तो ज़ख्म है पल रहा है धीरे- धीरे
दिखता तो नहीं है कोइ भी मेरे सीने में
हौले - हौले कौन चल रहा है धीरे -धीरे
उधर चाँद की कलाएँ बढ़ रही धीरे-धीरे
इधर सीने में कुछ ढल रहा है धीरे-धीरे
तुम सही कह रहे हो तुम्हारी कलम से
जमा हुआ दर्द निकल रहा है धीरे-धीरे
मुकेश इलाहाबादी ------------------A
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