प्लास्टिक के फूलों में वो ताज़गी ढूंढता है
कागज़ पे चराग़ लिख के रोशनी ढूंढता है
इसी सहरा में कहीं ग़ुम हो गया था दरिया
तभी रेत में अपनी खोई हुई नदी ढूंढता है
उसे मालूम नहीं शायद लौट के आती नहीं
सज संवर के अपनी खोई जवानी ढूंढता है
लहराती थी छलछलाती थी बल खाती थी
बर्फ हो गयी ज़िंदगानी में रवानी ढूंढता है
सांझ होते ही मुकेश चला आता है छत पे
फलक पे टकटकी लगा के चाँदनी ढूंढता है
मुकेश इलाहाबादी -------------------
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