यूँ कुछ इस तरह हम भीग जाते हैं
ग़म के बादल आते हैं बरस जाते हैं
हम तो रिन्द हैं हमें पीने से गरज़
जहाँ दिखी मधुशाला ठहर जाते हैं
कई बार सोचता हूँ मै रात ढलते ही
ये चाँद और सितारे किधर जाते हैं
हम फकीरों को दौलत से क्या गरज
जिधर देखी मुहब्बत उधर जाते हैं
मुकेश हैरत होती है देख कर कैसे
वायदा कर के लोग मुकर जाते हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------
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