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Wednesday, 11 November 2020

हर रोज़ ही किस्तों में मरता हूँ मै

 हर रोज़ ही किस्तों में मरता हूँ मै 

काँच सा वज़ूद है टूटा करता हूँ मै 


जानता हूँ तू मेरी हरगिज़ नहीं है 

फिर भी तुझसे इश्क़ करता हूँ मै 


सूरज चाँद सितारे अब भाते नहीं 

इक मुद्दत से अँधेरे में रहता हूँ मै 


ऊपर ऊपर तो सख्त बर्फ जमी है 

अंदर ही अंदर नदी सा बहता हूँ मै


मुक्कू गौर से फलक पे देखो तो 

हर रोज़ इक तारे सा उगता हूँ मै 


मुकेश इलाहाबादी --------------


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