झूठे और हंसी ख्वाबों में खो गया है
यहाँ तो शहर का शहर ही सो गया है
शेर चीता भालू सियार तो जानवर थे
इंसान तो इनसे भी बदतर हो गया है
ईश्क़ की फसल लहलहाती थी जहाँ
इस साल वहाँ कोई कांटे बो गया है
ज़िंदगी में लोग आते हैं चले जाते हैं
मेरा दिल भी इक रास्ता हो गया है
इक बार चले आओ जी बहल जाए
वैसे भी मिले हुए ज़माना हो गया है
मुकेश इलाहाबादी ------------------
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (22-11-2020) को "अन्नदाता हूँ मेहनत की रोटी खाता हूँ" (चर्चा अंक-3893) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सुन्दर
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