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Thursday 12 July 2012

प्रेम क्या है - मेरे व्यक्तिगत नोट्स किसी मित्र के लिए ----------------------------





'प्रेम' परिभाषा और अर्थ ---------

प्रेमके सम्बंध मे आपकी क्या अवधारणा है यह तो मुझे नही मालूम पर इस  सन्दर्भ में मेरे अपने विचार कुछ इस तरह से हैं ।हो सकता है कई स्तरों पर आप हमारी बात से सहमति रखती हों पर अपने विचारों को व्यक्त करने की अनुमति जरुर चाहूंगा
इस संर्दभ में मेरा अध्यन मनन चिंतन कुछ इस तरह से उभर कर आता है।
वस्तुतः प्रेमशब्द  में हम यदिसे प्रक्रति औरसे रवण यानी क्रिया से पुरुष का बोध लें तो यह बात बनती है कि जब प्रक्रिति, पुरुष के साथ रवण या क्रिया करती है तो जीवन की जडों में एक धारा प्रवाहित होती है। जिसेप्रेमकी संज्ञा दी जा सकती है। यह प्रेम धारा ही उस जीवन को पुष्पित पल्लवित करती रहती है साथ ही पुर्ण सत्य के खिलने और सुवासित होने देने का अवसर प्रदान करती है। यह धारा जीवन के तीनो तलों शरीर, मन और आत्मा के स्तरों पर बराबर प्रवाहित होती रहनी चाहिये। यदि यह धारा किन्ही कारणों से किसी भी स्तर पर बाधित होती है तो जीवन पुष्प या तो पूरी तरह से खिलता नही है और खिलता है तो शीघ्र ही मुरझाने लगता है।
यही रस धार यदि प्रथम तल तल पर रुक जाती है तो उसे वासना कहते है। यदि यह मन पर पहुचती है तो उसे ही लोक भाषा में या सामान्य अथों मेंप्रेमकहते हैं। और फिर जब यह रसधार आगे अपने की यात्रा पर आत्मा तक पहुंचती है तब उसे हीसच्चा प्रेमया आध्यात्मिक प्रेम कहते हैं। और उसके आगे जब ये रसधार गंगासागर में पंहुचती है तो वह ही ब्रम्ह से लीन होकर ईष्वर स्वरुप हो जाती है।

प्रेम रूपी रस धार का पहला पड़ाव -- शरीर -
प्रेम की धारा जब गंगोत्री से निकलती है तो उसका पहला पड़ाव भौतिक शरीर  है।
भारतीय दर्षन मेंप्रेमको भीतत्वमाना गया है जो जड़ है। पर यह प्रक्रित की सूक्ष्म अवस्था है। शरीर  भी प्रक्रति है पर यह है ठोस अवस्था। जब प्रेमधार सूक्ष्म रुप में आगे बढ़ती है तब प्रेम शरीर सम तत्व होने के कारण एक दूसरे को आर्कषित करते है। लिहाजा, शरीर विरल हो केप्रेमतत्व के साथ घुलना मिलना चाहता है।प्रेमतत्व’  भी शरीर के साथ एकाकार होना चाहता है। तब शरीर  कॉमाग्नि से उष्मित होकर, विरल हो कर शरीर के साथ एकाकार हो जाता है, औरप्रेमएक द्वार पार कर जाता है।
अब चूंकि समाज किन्ही कारणों सेकामाग्निको हेय समझता है। इसलिये बहुत से प्रेमी प्रेम के पहले पड़ावशरीरकी उपेक्षा कर जाने को अच्छा समझते हैं। और इसे प्रेम की  आदर्श स्थितिसमझते है। पर मेरे देखे यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नही होती। क्योंकि इस प्रकार के प्रेम में अंत तक एक अतृप्ति बनी ही रहती है। और आगे की यात्रा भी अवरुद्ध हो जाती है।
अतह हम कह सकते हैं किप्रेमधारावासना के द्वार से गुजर केलौकिक प्रेमके राज्य में प्रवेष करती है। अन्यथा वह गंगोत्री में ही सिमट के रह जाती है। और वहीं गोमुख में ही बूंद बूंद गिर कर किन्ही अरण्यों में खो जाती है।
लेकिन ज्यादातर मौकों पर महज शारीरिक स्तर पर मिलने वाले प्रेमी इस पहले द्वार पर ही अटक जाते हैं, कारण  शरीर के  तल पर मिलन मात्र मिलना और स्खलित हो जाना नही है। उसमें भी शरीर के पांचो तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा अपने अपने तंमात्राओं रुप, रस, गंध स्पर्ष और शब्द  के साथ अपने अपने उपादानों द्वारा जब तक एकाकार नही हो जाते तब तक यह शरीर तरल नही होता। इसका पूरा का पूरा विज्ञानतंत्र शाश्त्रने विकसित किया है।
लेकिन इस तल को पार करने में दूसरे सोपान के मुख्य तत्वमन तीसरे सोपान का प्रमुख घटकआत्मतत्वकी भी महती भूमिका होती है।
जिसकी चर्चा आगे के पत्रों में होती रहेगी। 


मुकेश इलाहाबादी


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