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Friday, 13 July 2012

अपने ही शहर में कोई, अपना नहीं मिलता

अपने ही शहर में कोई,
अपना नहीं मिलता
कभी ज़मी नहीं मिलती, तो
कभी आसमाँ नहीं मिलता

हर शख्श है यंहा तीश्नालब,
मगर किसी को,
कभी दरिया नहीं मिलता, तो
कभी समंदर नहीं मिलता

बुलंद हो रही हैं इमारतें तमाम
मगर इन इमारतों के बीच
कभी घर नहीं मिलता, तो
कभी मकाँ नहीं मिलता

यूँ तो बाज़ार खुल गए हैं
हर सिम्त मगर, मगर
कभी मुहब्बत नहीं मिलती, तो
कभी ईमान नहीं मिलता

चिटकती धुप में निकला हूँ
मगर इस शहर में मुकेश
कभी छांव नहीं मिलती, तो
कभी ठांव नहीं मिलता

मुकेश इलाहाबादी ------------

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