ज़िन्दगी हमे आजमाने लगी
कश्ती हमारी डगमगाने लगी
देख तेरे खिले महुए सी हंसी
हसरते फिर मुस्कुराने लगी
मुद्दतों से वीरान था आँगन
तुम क्यूँ पायल बजाने लगी
पुरानी हवेली टूटी मुंडेर पे,,
फिर बुलबुल चहचहाने लगी
बेवजह आग लगा दी तुमने
गीली थी लकड़ी धुआने लगी
मुकेश इलाहाबादी --------------
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