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Sunday, 14 April 2013

ज़िन्दगी हमे आजमाने लगी

 
 ज़िन्दगी हमे आजमाने लगी
कश्ती हमारी डगमगाने लगी
देख तेरे खिले महुए सी हंसी
हसरते फिर मुस्कुराने लगी
मुद्दतों से  वीरान  था आँगन 
तुम  क्यूँ पायल बजाने लगी 
पुरानी  हवेली  टूटी  मुंडेर पे,,
फिर बुलबुल चहचहाने लगी
बेवजह  आग  लगा दी तुमने
गीली  थी लकड़ी धुआने लगी
मुकेश इलाहाबादी --------------

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