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Friday 17 May 2013

बनाकर तेरी आखों को आईना नही देखा



बनाकर  तेरी आखों को आईना नही  देखा
मुद्दतों  हुई  हमने  अपना चेहरा नहीं देखा

बहुत  दिनो  से   यह मैदान खाली पडा है
कई बरसों से यहाँ मेला लगता नही देखा

शायद मौसम भी खफा है ज़माने से,तभी
बादलों  को  झूम कर बरसता नहीं देखा

न अब वो पीने वाले हैं औ न पिलाने वाले
महफ़िल मे किसी रिंद को झूमता नहीं देखा

रात भर जाग कर सुबह को  नींद आती है
कई दिनों से सूरज को उगता नहीं देखा

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

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