साँझ से ही हम नदिया किनारे बैठे रहे
दरिया के पानी में छप -छप करते रहे
ख्वाब थे हमारे आवारा बादलों की तरह
कई - कई रूपों में सजते रहे संवरते रहे
दरिया में लहरें आती रही औ जाती रहीं
हम भी अपनी तरह डूबते रहे उतरते रहे
इक पपीहा चाँद की मुहब्बत में है देर से
हम उसी की टेर को रह रह के सुनते रहे
हर सिम्त चाँद ने चांदनी चादर बिछा दी
मुकेश उजली चादर में करवट बदलते रहे
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------
दरिया के पानी में छप -छप करते रहे
ख्वाब थे हमारे आवारा बादलों की तरह
कई - कई रूपों में सजते रहे संवरते रहे
दरिया में लहरें आती रही औ जाती रहीं
हम भी अपनी तरह डूबते रहे उतरते रहे
इक पपीहा चाँद की मुहब्बत में है देर से
हम उसी की टेर को रह रह के सुनते रहे
हर सिम्त चाँद ने चांदनी चादर बिछा दी
मुकेश उजली चादर में करवट बदलते रहे
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------
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