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Thursday 20 November 2014

अभी प्रातः सुन्दरी अंगडांइयां ले रही थी


अभी प्रातः सुन्दरी अंगडांइयां ले रही थी कि ऑख खुल गयी। खिडकी के बाहर झांक के देखा, बाहर उजाला अपने पंख फडफडा रहा था। सडक पे कार मोटरों की आमदरफत शुरु हो चुकी थी। पक्षियों का झुडं का झुड अपने अपने नीड छोड के  दाना दुनका की तलाश में चहचहाते हुए निकल चुके था। चौकीदार अपना डंडा एक दो बार फिर से सडक पे यूं ही फटकार के चाय की गुमटी पे बैठ चुका था। चाय वाला दुआ सलाम करके फिर से अपनी भटटी को गरम करने में लग चुका था। भटटी सुलगने के पहले ढेर सारा धुंुआ उगल रही थी। सडक का आवारा कुत्ता रात भर भोंक कर वहीं किनारे अपनी पुछं पीछे दबा के और अगली दो टांगों के बीच अपनी मुॅह रख के सो चुका था। पेड पे पत्तियां धीरे धीरे डोल रही थीं जबकि कुछ पेड बिलकुल समाधिस्थ सा खडे थे। कलियां खिलने की तैयारी में थीं कुछ तो खिल के मुस्कुरा भी रहीं थीं जबकि रातरानी अपने आंचल से ढेर सारे फूल गिरा के माहौल का महमहा चुकी थी जिसकी खुशबू खिडकी से आ आ कर ताजगी दे रही थी। इसी ताजगी ने बिस्तर छोडने पे मजबूर कर दिया और मै एक और व्यस्त व तनाव भरे दिन की तैयारी में जुट गया।
रोज या स्नान ध्यान और नास्ते के बाद लैपटाप पे बैठा हूं। रात जो रचना लिखी थी उसे एक बार फिर से पढूंगा और एक दूसरी रचना जो परसों लिखी थी उसे नेट पे पोस्ट करुंगा।

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