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Sunday 10 January 2016

वह पत्थर की मुर्ती थी।

सुना तो यह गया है, वह पत्थर की देवी थी।  पत्थर की मूर्ति। संगमरमर का तराशा हुआ बदन। एक - एक नैन नक्श, बेहद खूबसूरती से तराशे हुए। मीन जैसी ऑखें ,सुराहीदार गर्दन, सेब से गाल। गुलाब से भी गुलाबी होठ। पतली कमर। बेहद खूबसूरत देह यष्टि। जो भी देखता उस पत्थर की मूरत को देखता ही रह जाता। लोग उस मूरत की तारीफ करते नही अघाते थे। सभी उसकी खूबसूरती के कद्रदान थे। कोई ग़ज़ल लिखता कोई कविता लिखता। मगर इससे क्या। . .. ? वह तो एक मूर्ति भर थी। पत्थर की मूर्ति। 
सुना तो यह भी गया था, कि वह हमेसा से पत्थर की मुर्ति नही थी। बहुत दिनो पहले तक वह भी एक हाड मॉस की स्त्री थी। बिलकुल आम औरतों जैसी। यह अलग बात वह जब हंसती तो फूल झरते। बोलती तो लगता जलतरंग बज उठे हों। चलती तो लगता धरती अपनी लय मे थिरक रही हों।
उसके अंदर भी हाड मासॅ का दिल धडकता था। वह भी अपनी सहेलियों संग सावन मे झूला झूला करती थी। उसके अंदर भी जज्बात हुआ करते थे। वह भी तमाम स्त्रियों सा ख्वाब देखा करती थी।
वह भी सपने मे घोडा और राजकुमार देखा करती ।
और ------  एक दिन उसका यह सपना सच भी हुआ ।
उसके गांव मे एक मुसाफिर आया। बडे बडे बाल, चौडे कंधे। उभरी हुयी पसलियां । आवाज मे जादू , वह उसके सम्मोहन मे आगयी। वह उसके प्रेम मे हो गयी।
अगर पुरुष यानी वह मुसाफिर कहता तो वह। गुडिया बन जाती और उसके लिये कठपुतली सा नाचती रहती। अगर पुरुष कहता तो वह सारंगी बन जाती, सात सुरों मे बजती। अगर पुरुष कह देता तो वह नदी बन जाती, पुरुष उसमे छपक छंइयां करता।
और पुरुष कहता तो वह फूल बन जाती और देर तक महकती रहती। गरज ये की वह पुरुष को परमात्मा मान चुकी थी,खुद को दासी।
पर एक दिन हुआ यूं कि। खेल - खेल मे स्त्री पुरुष के कहने से फूल बनी और पुरुष भौंरा। और तब भौंरे ने उसने फूल को सारा रस ले लिया और फिर खुल गगन मे उड चला न वापस आने के लिये। इधर स्त्री फूल बन के उसका इंतजार ही करती रही।  इंतजार ही करती रही। और जब उसने दोबारा स्त्री बनना चाहा तो वह स्त्री तो बनी पर रस न होने से वह पत्थर की स्त्री बन गयी। और तब से वह पत्थर की ही थी।
मगर  उस पत्थर की मुर्ती मे भी इतना आकर्षण था कि जो भी देखता मंत्रमुग्ध हो जाता। जो भी देखता उसे देखता रहा जाता। लोग उसे देखने के लिये दूर दूर से आते, देखते और तारीफ करते।
और एक दिन दूर देश के एक कला परखी ने जब उस पत्थर की स्त्री के बारे मे सुना तो उससे रहा न गया।
उस कला के पारखी ने उसे देखने की ठानी। उसने अपने घोड़े की जीन कसी।  अपनी पीठ पे अपनी असबाब बांधे और चल दिया उस पत्थर की देवी को देखने । उस कद्रदान ने तमाम नदी नाले पार किये। तमाम शहर , कस्बों और जंगलात से गुजरा और पता लगाते-  लगाते एक दिन उस पत्थर की मूर्ति  के गांव पहुच ही गया।
उस कला के कद्रदान ने जब उसे देखा तो देखता ही रह गया उस पत्थर की स्त्री को।उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। कद्रदान उसे जितना देखता उठी ही उसकी इच्छा बलवती होती जाती और वह उसे देखता रहता देखता रहता।  देखते देखते क़द्रदान को उस पत्थर के मूर्ति से प्यार हो गया वह  प्रेम मे पड गया, बुरी तरह से, वह उसकी अभ्यर्थना करने लगा। पर इससे उस स्त्री पे क्या फर्क पडना था। वह तो पत्थर की थी।
लोग उस कद्रदान पे हंसते, उसे पागल कहते , फब्तियाँ कसते कहते अरे कभी कोई पत्थर की मूर्ति ने भी किसी से प्रेम किया है ? पर, वह कददान तो जैसे उस पत्थर की देवी के लिए पागल हो गया था । वह दिन रात उस मूर्ती की पूजा करता अर्भ्यथना करता उसके सामने गिडगिडाता। उससे प्रेम की भीख मांगता, उसके लिये कविता लिखता चित्र बनाता गीत गाता। पूजा करता। और कभी कभी तो उसके कदमो पे सिर रखकर खूब और खूब रोता।
और यह सिलसिला दिनो नही सालों साल चलता रहा।
आखिर उस कद्रदान का प्रेम रंगलाया। पत्थर की मूर्ति जीती जागती स्त्री में तब्दील हो गयी थी।
यह देख कर वह कद्रदान बहुत खुश हुआ, स्त्री भी एक बार फिर खुश हुई।
वह एक बार फिर कठपुतली बनी, सारंगी बनी नदी बनी फूल बनी अपने इस नए क़द्रदान के लिए।  और एक दिन फिर वह फूल बनी।  जिसे   कद्रदान सूंघ सकता था। अपने हथेलियेां के बीच ले के महसूस कर सकता था। उसकी कोमलता को , उसकी ख़ूबसूरती को।  
जिसे वह कद्रदान अपनी हथेलियों के बीच  आहिस्ता से लेकर उसकी महक को अपने नथूनों मे भर के खुश हो रहा था। अब वह खुशी से झूम रहा था नाच रहा था। हंस रहा था मुस्कुरा रहा था। वह मुर्ति भी उसके हाथों फूल सा खिल के महक के खुश थी। पर वह अपनी खुषी मे पागल कद्रदान यह भूल गया कि अगर उसने अपने अंजुरी को मुठठी मे तब्दील कर लिया या जोर से बंद किया तो फूल की पंखडियां बिखर जायेंगी आैंर फिर फूल फूल न रह जायेगा। पर उस कद्रदान ने ऐसा ही किया। नतीजा। फूल की पंखडियां हथेली मे बहुत ज्यादा मसले जाने से टूट गयीं और बिखर गयीं। अब वह फूल फल न रहा। एक सुगंध भर रहा गयी।
कद्रदान को जब होष आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके सामने अब न तो वह पत्थर की मुर्ति थी और न उसकी अंजुरी मे फूल थे जो उस मुर्ती के तब्दील होने से बने थे।

कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।
पर कहने वाले यह कहते हैं कि। वह कद्रदान आज भी।फूलों की उस खूबसूरत वादी की पहाड़ी चटटानों पे सिर पटकता है और जोर - जोर रोता हुआ भटकता हैं कि शायद  उस खूबसूरत सुगंध वाला फूल या यूं कहो की वह स्त्री जो पत्थर की मूर्ति थी। जो उससे नाराज हो के फिर से पत्थर बन गयी है एक दिन फिर मूर्ति बनेगी और फिर उसके प्रेम से फूल बन के खिलेगी।
पर इस बार वह अपनी अंजुरी को कस के नही भींचेगा । पंखुरियों को नही बिखरने देगा।


मुकेश इलाहाबादी -------------------

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